अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

समकालीन कविताः कालबोध की अपेक्षा युग चेतना की कविता

संपादक : सुमन कुमार घई
तिथी : १५ अक्तूबर, २०१४

प्रत्येक साहित्य अपने समय की छाप से युक्त होता है क्योंकि प्रत्येक रचनाकार अपने समय-काल से बद्ध होता है और ऐसा न होने पर वह सिर्फ कल्पना-जगत का कवि ही हो सकता है अपने समाज का नहीं। अपने समय-विशेष की जटिलताओं, समस्याओं और सरोकारों से बँधकर ही कोई भी कृति और कोई भी कृतिकार अपनी अर्थवत्ता प्रमाणित करता है। लेकिन कुछ कवि ऐसे होते हैं जो काल में रहते हुए काल का अतिक्रमण कर जाते हैं और ऐसे रचनाकार ही कालातीत सिद्ध होते हैं। यही स्थिति समकालीन कविता के संदर्भ में है जहाँ वह अपने समसामायिक परिवेश का ही चित्रण नहीं करती वरन् अतीत और भविष्य को साथ लेकर चलती है और इस क्रम में वह कालबोध की अपेक्षा युग-चेतना ही कविता सिद्ध होती है। नागार्जुन लिखते हैं- "प्रतिबद्ध हूँ जी मैं प्रतिबद्ध हूँ/ बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त।" अर्थात् कवि की स्वीकारोक्ति है कि उसकी प्रतिबद्धता, उसका जुड़ाव ‘बहुजन समाज’ के साथ है न कि ‘अल्पसंख्यक समाज’ के साथ जो मुठ्ठी भर लोग हैं और पूरे समाज का शोषण भी करते हैं। ऐसे शोषित समाज के पल-प्रतिपल के विकास को कवि अपनी कविता का विषय बना रहा है और यह बात स्पष्ट है कि यह शोषित समाज सिर्फ समकालीन समाज का ही सच नहीं है बल्कि हर युग का सच है।

जब हम कहते हैं- ‘समकालीन कविता की समकालीनता’ तो इसका अर्थ ही यही है कि आज की कविता अधिक से अधिक जीवन के निकट गई है, वह ज्यादा-से-ज्यादा वंचित समाज से जुड़ी है और इसके लिए उसने प्रतिरोध की ऊर्जा को अपनाया है। आज वह सही अर्थों में ‘लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति’ है।

समकालीन समाज का सबसे बड़ा यथार्थ है- वैश्वीकरण, जिसने अब तक की तमाम चूलों को हिला दिया है। इसी ने तमाम तरह की संचार क्रांतियों, उपभोक्तावादी संस्कृतियों को जन्म दिया है। आज का यह समय और व्यवस्था पहले से अधिक अमानवीय है क्योंकि वृद्ध पूँजीवाद के इस समय में व्यक्ति और साहित्य के बीच खाई निरंतर बढ़ती जा रही है और साहित्य के स्थान पर कुछ छवियों को रखा जा रहा है। यह सही है कि किसी भी युग की समकालीनता को उस युग पर गहराते संकट द्वारा ही समझा जा सकता है और आज साहित्य और कला की पहचान को जिस तरह से मिटाया जा रहा है उससे एक बात साफ है कि यह सिर्फ साहित्य या कला का ही संकट नहीं है, यह समाज का भी संकट है क्योंकि साहित्य समाज का ही तो आईना है। बद्रीनारायण कविता के पक्ष में अपना बयान देते हुए लिखते हैं- "मेरे लिए कविता की हिस्सेदारी सत्ता, शक्ति एवं बाज़ार द्वारा मानुषपन को नष्ट करने की जो एक भारी लड़ाई छेड़ी गई है उसके विरुद्ध मानुषपन को मुक्त रखने की रेडिकल तथा इमैनसिपेटरी लड़ाई में कविता की हिस्सेदारी करके कविता को पाना है।"1 यानी बाज़ार ने जिस आदमी को अपदस्थ किया है समकालीन कवि उसे कविता के द्वारा पुनः स्थापित करना चाहता है। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं- "मैं व्यक्ति को नहीं जानता था / हताशा को जानता था / इसीलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया / मैंने हाथ बढ़ाया / मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ।"2 (हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया) यही है कलावाद को ध्वस्त करता जनवाद जो वंचित समाज को महत्त्व देता है ‘मैं’ को नहीं। ‘आत्म’ और ‘जन’ के बीच का यह सहसंवाद ही समकालीन कविता की समकालीनता है जो उसे काल-विशेष में स्थित करते हुए भी काल से परे ले जाती है।

आज के युग में तो यह और भी आवश्यक है कि हम अपनी संघर्ष-चेतना को पहचानें क्योंकि आज जिस बाज़ारवादी संस्कृति का प्रसार है वहाँ गाँव के हाट कहीं खो गए हैं और वर्तमान बाज़ार सब कुछ निगल लेने को तैयार है। राजेश जोशी लिखते हैं- "मुझे लगता है यह दौर नये स्तर पर, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से संघर्ष का दौर है। प्रतिरोध की शक्तियाँ विखंडित हुई हैं और बिखरी हैं। शिम्बोर्स्का के शब्दों का सहारा लूँ तो कह सकता हूँ कि उम्मीद एक नौजवान लड़की नहीं है अब। भूमंडलीकरण, मुक्त बाज़ार और संचार के क्षेत्र में फैली सनसनी और आक्रामकता के सारे तानेबाने को समझने-बूझने और बेधने की कोशिश में ही आज की कविता की समकालीनता को तलाशा जाना चाहिए।"3 आज का यह नवसाम्राज्यवाद मीडिया और बाज़ार द्वारा फैलाया जा रहा है जिसमें वास्तविकता का स्थान भ्रम-जाल ने ले लिया है और इसी भ्रम को तोड़कर वास्तविक दुनिया को स्थापित करने का काम समकालीन कविता कर रही है। यद्यपि इसमें भी अपवादस्वरूप कुछ कुलीनतावादी कवि हैं जिनके लिए बाज़ार अवसर उपलब्ध कराने का एक जरिया है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि वास्तविक दुनिया वही है जिसमें आम आदमी जीता है जबकि सत्ता वर्ग तो सिर्फ वायवी दुनिया में ही जीता है। आज वास्तविकता यही है कि "हमें कितना अकेला किया है हमारे समय ने, समाज ने / स्वजन भी इसके अपवाद नहीं।"4 (शोकगीतः 1)

आज की इस उपभोक्तावादी संस्कृति में जहाँ जीवन का संघर्ष चरम पर है और कला और साहित्य को भी वस्तु रूप में परिणत किया जा रहा है ऐसे में समकालीन कविता में जीवन की इसी जद्दोजहद को बचाने की कोशिश मिलती है। और कवि की यही पक्षधरता उसे काल तक सीमित न करके युग से संबद्ध करती है। यही वजह है कि समकालीन कविता का दायरा सिर्फ चंद मुठ्ठी भर समकालीन कवियों तक ही सीमित नहीं है वरन् उसमें नागार्जुन, त्रिलोचन, मुक्तिबोध जैसे कवियों की उपस्थिति भी दर्ज है। इन सभी कवियों को जो चीजें परस्पर जोड़ती है, वह है- मानवीय संवेदना, श्रम में निष्ठा, प्रतिरोध की क्षमता और जीवन के छोटे-से-छोटे पक्ष को समझकर-जानकर उसे कविता का विषय बनाना। "उल्लेखनीय तथ्य यह कि उस समय की कविता किसी आंदोलन पर निर्भर न होकर स्वयं में एक आंदोलन थी।"5 अर्थात् कविता आज समाज में परिवर्तन लाने का साधन-मात्र नहीं वरन् साध्य है। समकालीन रचनाकारों ने जिस प्रकार से समाज में अपनी भागीदारी सुनिश्चित की है वह सिर्फ काल-विशेष तक सीमित नहीं है वरन् वह अतीत के सम्मिश्रण और भविष्य की संभावनाओं से जुड़ी है। जब इब्बार रब्बी लिखते हैं- "भरोसा दे रहे हैं अक्षर / शरण हो रहे हैं शब्द / मैं बनजारों की तरह / पड़ाव बदल रहा हूँ / मात्र विचार नहीं / पूरा घर है कविता।"6(घोंसला) तो प्रकारांतर से वे अपने कविता-कर्म में वह अदम्य विश्वास दर्शाते हैं जहाँ कविता ने सिर्फ दर्शन या विचार की भूमिका ही नहीं निभाई वरन् अपने समय का अतिक्रमण कर समय से पार जाने और चौहद्दियों तक फैले संसार तक अपनी उपस्थिति दर्ज करने का कार्य भी किया है और इन्हीं अर्थों में समकालीन कविता सिर्फ काल-बोध की नहीं वरन् युग-चेतना की कविता सिद्ध होती है।

1. उद्धृत, (लेखः यह मानुषपन को मुक्त रखने की रेडिकल लड़ाई है, बद्रीनारायण), अन्यथाः संपा- कृष्ण किशोर, अंक-4
2. अतिरिक्त नहीं विनोद कुमार शुक्ल, पृ- 13
3. सदी के अंत में कविताः संपा- विजय कुमार, पृ- 366
4. दो पंक्तियों के बीचः राजेश जोशी, पृ- 76
5. उद्धृत, (लेखः कविता का भविष्य, भविष्य की कविता), आलोचना, संपा- परमानंद श्रीवास्तव, सहस्राब्दी अंक 13, पृ- 33
6. घोषणापत्रः इब्बार रब्बी, पृ- 27

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

शोध निबन्ध

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं