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सामयिक चुनौतियों के संदर्भ में नई सदी के हिंदी उपन्यास

उपन्यास अपने समय और स्थान से सार्थक संवाद करने में सर्वाधिक समर्थ विधा है। साहित्य के केंद्र में मौजूद मनुष्य और उसे घेरने वाले समाज पर जिन विचारों का प्रभाव पड़ता है, उन विचारों से जूझने की सर्वाधिक क्षमता उपन्यास में है। विचार, संस्थान, समाज, मनुष्य और विचारधाराओं की आपसी टकराहट से उत्पन्न यथार्थ परिदृश्य की रचना भी उपन्यास में ही संभव है। उपन्यास इस परिदृश्य के भीतर नए विचारों की सृष्टि करता है। विचार-शून्यता के माहौल में उपन्यास विचार के संकेत दे सकता है, यह उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा का प्रमाण है। 

आज साहित्य में उपन्यास तरह-तरह से आकार ले रहे हैं, उनमें मनुष्य का बदलता स्वभाव दिखाई पड़ता है। यह भी देखा जा सकता है कि आज समाज का एक ही रुख नहीं है। समाज में अनेक द्वन्द्वात्मक यथार्थ मौजूद हैं। वैश्वीकरण ने समाज, साहित्य, संस्कृति, राजनीति को एक समान आर्थिक नियति की ओर लगातार धकेलते हुए हर जगह अंतर्द्वंद्वों को उकसाया है। फलत: उपन्यास में जितनी विविधता और उत्तेजना आज है, पहले नहीं थी। यह देखने की ज़रूरत है कि यह विविधता कितनी पीड़ाओं का स्वाभाविक विस्फोट है और कितनी समाज को भीतर से विभाजित करने के उद्देश्य से किए गए पश्चिम के सैद्धान्तिक आक्रमण का नतीजा है। 

भारतीय विविधता को मुखरित करने में प्रेमचंद बहुत हद तक सफल रहे थे। इसके बाद मुख्यत: आधुनिकतावाद और मार्क्सवाद ने साहित्य में अपनी जड़ें जमा लीं। इससे लक्षित किया जा सकता है कि ये जीवन के कई अनसुलझे पहलुओं की ओर औपन्यासिक संकेत करते हैं। इसके बावजूद भारतीय विविधता की जड़ों में जाकर ये व्यापक स्तर पर उसकी आवाज़ें नहीं बन सके। फिर भी त्यागपत्र (जैनेन्द्र) शेखर एक जीवनी (अज्ञेय), झूठासच (यशपाल), मैला आँचल (रेणु), आधा गाँव (राही मासूम रज़ा), रागदरबारी (श्रीलाल शुक्ल), अंतिम अरण्य (निर्मल वर्मा), नौकर की कमीज़ (विनोद कुमार शुक्ल) जैसे कुछ उपन्यास हिंदी के बेजोड़ उपन्यास हैं, जिनमें कहीं आधुनिकतावाद और कहीं यथार्थवाद और कहीं दोनों की मिली-जुली विचारधारा दिखाई देती है। यह ग़ौरतलब है कि आधुनिकतावाद और मार्क्सवाद दोनों की वैचारिक जकड़न में लिखे गए उपन्यास प्रभावहीन ही सिद्ध हुए। वे जीवन के सहज प्रवाह में ठहर नहीं सके, क्योंकि उपन्यास का मुख्य आधार हमेशा चुनौती देने वाला कोई अनुभव रहा है। विचारधारा या सिद्धान्त से एक दृष्टि मिल सकती है परंतु अनुभव ही उपन्यास की रीढ़ बन सकता है। उपन्यास तभी उपन्यास है, जब उसमें चुनौतीपूर्ण अनुभवों के बदलते चित्र हों और समाज के नए रुख का संकेत हो, कोई मानवीय पीड़ा या कोई दबी हुई सामुदायिक आवाज़ हो जो एक व्यापक मानवीय रूपक को निर्मित करें। उपन्यास की श्रेष्ठता इस पर निर्भर करती है कि उसमें कितनी व्यापक दृष्टि के साथ मानवीय रूपक विद्यमान है, चाहे उसमें वैश्विक यथार्थ हो या भग्न राष्ट्रीय यथार्थ। उपन्यास एक कथाप्रधान गद्य विधा है इसमें कथा तब से है, जब से समाज है। यह समाज के होने का महत्त्वपूर्ण चिह्न है । कविता आत्मानुभूति से अकेले में हो सकती है, कथा के लिए समाज चाहिए। कथा कभी भी एक ही चरित्र, आत्मालाप और इकहरे यथार्थ से नहीं बन सकती। इसके अलावा कथा में ‘कहने वाले‘ की तरह ‘सुनने वाला’ भी महत्त्वपूर्ण होता है। 

कथा एक सामाजिक विषय है। हर कथा अपने लिए समाज में एक सामान्य जगह बनाती है। उत्तर-आधुनिक परिदृश्य में समाज की जगह समुदाय प्रधान हो गए हैं। उत्तर-आधुनिकावादियों ने आख्यान के अंत की घोषणा कर दी। उनके लिए कथा कहने वाले पुराने लोग निरर्थक हो गए। कई बार उपन्यास की भी मृत्यु की घोषणा हुई। फिर भी उपन्यास पहले से ज़्यादा सार्थक सिद्ध हुए हैं। निश्चय ही आज की कथा पीढ़ियों के सामने यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है की वे किस विचारधारा या राजनीतिक निष्ठा से जुड़कर उपन्यास लिखें क्योंकि आज न पहले जैसे जन-आंदोलन हैं, न विचाधारात्मक संघर्ष हैं और न कोई साम्राज्यवाद-विरोधी आवाज़ है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने विचारधारा और राजनीति तथा विचारधारा और सामाजिक आचरण के बीच एक खाई पैदा कर दी है। इसलिए समकालीन उपन्यासों के लिए स्त्रीवाद, दलित चेतना, जातीय चेतना, क्षेत्रवाद, आदिवासी जीवन, सांप्रदायिकता और अनगिनत असंगठित आंदोलन ही वैचारिक स्रोतों का काम कर रहे हैं। 

ग़ौरतलब है कि जाति, धर्म और राजनीति के आधार पर भारत में हर कहीं लगभग गृहयुद्ध की स्थिति है। आज की राजनीति की तरह ही उपन्यास लेखन पर भी स्थानीय सामुदायिक दबाव बढ़े हैं। ऊपर विश्व बाज़ार एक है, नीचे समाज विभक्त है, उपन्यास जगत भी विभक्त है। राजनीति के नए रूप सामने आ रहे हैं। इसी तरह आंदोलन के भी नए रूप उभर हैं, जैसे स्वधर्म प्रचार आंदोलन या अभियान, माओवादी आंदोलन, आदिवासी आंदोलन, जातिवादी आंदोलन, समुदायवादी आंदोलन, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के आंदोलन आदि। आज के उपन्यास इन्हीं घटनाओं के बीच से आकार ले रहे हैं। यदि कहीं भोगा हुआ यथार्थ है तो भी यह व्यक्ति का नहीं, समुदाय का भोगा हुआ यथार्थ है। इस संदर्भ में विभिन्न विमर्शों के रूप में सामने आए हिंदी उपन्यास इसमें संदेह नहीं कि भारत के लोग ‘विविधता में एकता’ के राष्ट्रवादी बिंबों से काफ़ी छले गए हैं। आज के उपन्यास इन बिंबों में छिपे सामंती वर्चस्वों से टकराते हैं।

आज हिंदी में उपन्यास विधा एक बड़े रूपान्तरण के दौर से गुज़र रही है। उपन्यास में कई आवाज़ें मुखर हो रहीं हैं जो विभिन्न वर्चस्वों को ध्वस्त कर रही हैं, महानगर केंद्रिकता टूटी है, देश की अपरिचित जगहें प्रकट हो रही हैं। शहरी आभिजात्य और नाटकीयता पर चोट करने के लिए हिंदी उपन्यासों में ज़मीन की आवाज़ के साथ ज़मीन की बोली एक बड़े उद्देश्य के साथ मुँह खोलती है। हिंदी उपन्यास में एक बड़ा परिवर्तन, नैरेटर का लेखक की जगह लेना है। यह पद्धति दुनिया के कई महादेशों से होते हुए हिंदी में आई और कुछ देर से लोकप्रिय हुई, हालाँकि सदियों पहले यह भारत में ही जन्मी थी। इस पद्धति को यथार्थवादी और विमर्शकार, दोनों तरह के लेखकों ने अपनाया। इस तरह के उपन्यास में कथा के भीतर कथा होती है। घटनाएँ सीधी रेखा में नहीं चलती, वे सर्पिल होती हैं या चक्राकार, एक दूसरे में उलझी हुई। नैरेटर कभी अतीत की स्मृतियों में तो कभी वर्तमान में चला आता है। हिंदी कथा साहित्य में उदय प्रकाश और संजीव ने ऐसे प्रयोग किए हैं। काशीनाथ सिंह ने पुराने औपन्यासिक शिल्प को तोड़ा है। उपन्यास और संस्मरण का मिश्रण किया है। तीनों ने (संजीव, उदयप्रकाश और काशीनाथ सिंह) सामाजिक समस्याओं को उठाते हुए अपना साहित्यिक खिलंदड़ापन नहीं छोड़ा है । उदय प्रकाश में ज़्यादा आभिजात्य और काशीनाथ सिंह में ज़्यादा देशजता है। संजीव मुखर ज़्यादा हैं। अधिक उल्लेखनीय है कि ये तीनों रचनाकार सामुदायिक विमर्शकारों से अलग हैं। 

उपन्यास भले ही एक मानवीय रूपक हो, यह राष्ट्र का एक प्रमुख सांस्कृतिक आईना है। इसमें राष्ट्र के दु:ख, स्वप्न, तनाव, संघर्ष, आशा, आनंद सब झलक उठते हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है कि भारतीयों द्वारा अंग्रेज़ी में लिखे उपन्यास ही अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारतीय उपन्यास के रूप में देखे जाते हैं। यह परिदृश्य अंग्रेज़ी और उपनिवेशवादी मस्तिष्क के गहरे संबंध को स्पष्ट करती है। 

भूमंडलीकरण से भिड़ती कुछ कथाएँ :
वैश्वीकरण के अभियान का आशय है पूँजीवाद को राष्ट्रीय दायरों से परे ले जाने की अभिलाषा और मुनाफ़े के लिए कुछ भी जायज़-नाजायज़ करना। इसलिए भूमंडलीकरण दरअसल पूँजीवाद की एकछत्रता का उद्घोष है। स्वतंत्र व्यापार का मतलब है सबसे सशक्त व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए उन सारे क्षेत्रों को खोल देना जो अब तक इनकी पहुँच के बाहर रहे हैं। उदारीकरण और भूमंडलीकरण का अगर कोई अर्थ है तो यही है। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि भूमंडलीकरण तमाम विकासशील राष्ट्रीयताओं के लिए घातक है। इसका विकल्प निश्चित ही स्थानीयता और विकेन्द्रीकरण पर आधारित नीतियाँ हैं। इस संदर्भ में इस दौर के कुछ उपन्यास हमारा ध्यान अनायास आकर्षित करते हैं। अल्का सरावगी कृत ‘कालिकथा वाया बाइपास‘ में ‘बाइपास‘ उपन्यास का बीज शब्द है। वह इंगित करता आज के युगधर्म की ओर जो मूल समस्याओं से बचकर बगल से सुविधाजनक रास्ते निकालने का है। उपन्यास इस युगधर्म की विडंबना को किशोर बाबू के बाइपास ऑपरेशन के माध्यम से उजागर करता है जो अंतत: उन्हें उन्हीं चीज़ों की ओर ले जाता है जिन्हें उन्होंने अब तक बाइपास कर रखा था। यानी की मूल समस्याओं से सामना करते हुए जूझने से बचना। उपन्यास में इंगित किया हुआ यह राष्ट्रीय यथार्थ ऐतिहासिक स्मृतियों के लोक में से होता हुआ वर्तमान की जिन विसंगतियों को लक्ष्य करता है उनका एक नमूना कथा के उस हिस्से में है जहाँ किशोर बाबू का उद्योगपति बेटा लोन लेकर फ़्रीडम फ़ोर्ड गाड़ी खरीदता है और किशोर बाबू सरप्राइज़ देने वाले अपने बेटे से कहते हैं, फ़्रीडम, एक चाभी से स्वतन्त्रता मिल जाती है तो इतने लोगों को जान देने की क्या ज़रूरत थी? उपन्यास की ये पंक्तियाँ ग़ौरतलब हैं – “हमने किसी समस्या के कारणों को मिटाने की कभी कोशिश नहीं की। हर समस्या को बाइपास करने के रास्ते ढूँढ़ते रहे। अपने देश के स्रोतों को बाइपास कर विदेशी फंड से तुम कुछ नहीं कर सकोगे तुम्हें जो करना है, वह अपने बूते पर करना होगा।“

इस दौर में ऐसे उपन्यास भी लिखे गए हैं जो प्रकृति, पर्यावरण और इनके साथ जुड़े हुए लगभग ध्वस्त प्राय समाजों की कहानियाँ कह रहे हैं। नई भाषा में इन्हें आदिवासी विमर्श का कथानक कहा जाता है। इनमें मुख्यत: उस विकास की ख़तरनाक जय-यात्रा को दिखाया गया है जो नई सभ्यता लेकर आई है। इन उपन्यासों में उदाहरण के लिए रणेन्द्र का लघु उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता‘ है जो अपने सीमित आकार–प्रकार में चिंतित कर डालने वाले गंभीर सवालों को उठाता है। कुल सौ पृष्ठों में सीमित यह उपन्यास सुर-असुर वाले वैदिक काल तक जाता हुआ जिस तरह हम सभ्यतावादियों को ख़ुद अपने ही कठघरे में खड़ा करता है वह जितना विडंबनापरक है, उतना ही दु:खदायी और चिंताजनक भी। करुणा और प्रेम से लबालब भरी यह कथा आधुनिक और उत्तर-आधुनिक विकासवादियों की अमानवीयता और नृशंसता की जैसी कहानी कहती है, उसे सुन-समझ कर अपनी ही सभ्यता को लेकर चिढ़ सी पैदा होने लगती है। बार-बार मन खिन्न और उदास होता है और सोचता है कि विकास का मूल अर्थ क्या वस्तुत: विनाश है? या फिर कमज़ोर पर ताक़तवर की विजय। पर यह सवाल भी उठता है कि क्या प्रकृति भी सचमुच ऐसी ही दुर्बल और लाचार सत्ता है? इस तरह के लेखन को पढ़ते हुए यह प्रश्न मन में बार-बार उठता है कि मनुष्य के लिए सभ्यता निर्मित हुई है या फिर बाज़ार और सभ्यता के लिए मनुष्य बना है? और जो मानव समूह इनके योग्य नहीं, क्या उन्हें नष्ट हो जाना चाहिए? ये केवल सृजन और लेखन के प्रश्न नहीं हैं, सृष्टि की स्वाभाविक प्रक्रिया और सभ्यताओं की अमर्यादित होती जाती गतिविधियों की चुनौतियाँ हैं। 

इसमे कोई संदेह नहीं कि भूमंडलीकरण ने भारतीय सामाजिक एवं पारिवारिक मूल्यों को अपार क्षति पहुँचाई 
है। जिस ढंग से भूमंडलीकरण की बाज़ारवादी नीतियों ने उपभोक्तावाद को जन्म दिया उससे समाज का हर वर्ग प्रभावित हुआ है। आजीविका के प्रति नई पीढ़ी की सोच बादल गई। सूचना संचार और प्रौद्योगिकी के बढ़ते बाज़ार ने एक नव धनाढ्य वर्ग को जन्म दिया जिसने मध्यवर्गीय जीवन मूल्यों को तहस-नहस कर दिया। देश में एक मॉल-संस्कृति तेज़ी से विकसित हुई, जिसने युवा पीढ़ी को अपनी गिरफ़्त में ले लिया। रिश्ते-नाते, माता-पिता-संतान संबंध सभी उपभोक्तावादी दृष्टि से संचालित होने लगे। माता-पिता और संतान के रिश्तों में दूरियाँ, सूनापन और उपेक्षा मिश्रित उदासी का भाव परिवारों में व्याप्त हो गया है। सफल आजीविका का मापदंड विदेशी नौकरियाँ और ‘लिव इन रिलेशन‘ में जीने की स्वच्छंदता की माँग साकार होने लगी। विवाह की संस्था धीरे-धीरे हाशिये पर जाने लगी है। ममता कालिया कृत ‘दौड़‘ उपन्यास इन स्थितियों को मार्मिक यथार्थ के साथ चित्रित करता है। नई सदी के हिंदी उपन्यासों में परिवेर्तित जीवन मूल्यों की बेबाक व्याख्या करने वाला यह लघुपन्यास अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। ‘दौड़‘ ममता कालिया का छठा उपन्यास है। स्वयं लेखिका के शब्दो में ‘दौड़’ की थीम इस प्रकार है : ‘आर्थिक उदारीकरण ने भारतीय बाज़ार को शक्तिशाली बनाया। इसने व्यापार प्रबंधन में विशेषता हासिल करने के अवसर दिए। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने रोज़गार के नए अवसर प्रदान किए। युवा वर्ग ने पूरी लगन के साथ इस सिमसिम द्वार को खोला और इसमें प्रविष्ट हो गया। वर्तमान सदी में अन्य वादों के साथ एक नया वाद प्रारम्भ हो गया, बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद। इसके अंतर्गत बीसवीं सदी का सीधा-सादा ख़रीददार एक चतुर उपभोक्ता बन गया। जिन युवा प्रतिभाओं ने यह कमान सँभाली उन्होंने कार्यक्षेत्र में तो ख़ूब कामयाबी पायी पर मानवीय संबंधों के समीकरण उनसे कहीं ज़्यादा खींच गए, तो कहीं ढीले पड़ गए। ‘दौड़’ इन प्रभावों और तनावों की पहचान कराता है।‘ ‘दौड़’ से गुज़रना आज की युवापीढ़ी की मानसिकता और आचरण को सतह को चीरते हुए भीतर तक महसूस करना है। ‘जहाँ हर महीने वेतन मिले, वही जगह अपनी होती है।‘ इस वाक्य को मंत्र की तरह जीती युवा पीढ़ी है जो भरे-पूरे बाज़ार में खड़ी है। इस बाज़ार में महत्त्वाकांक्षाएँ हैं, भारी-भरकम वेतन प्राप्त करने की लालसाएँ हैं, ख़ुद को साबित करने का जुनून है और है क्षण में जीने की ज़िद। प्रतिस्पर्धा से प्रतिस्पर्धा की तरफ जाती इस अंधी दौड़ में रिश्ते-नाते, मानवीयता, संवेदना, शहर, सपना, लगाव, परंपरा सबका सब अर्थहीन, दकियानूस और बीता हुआ उच्छ्वास भर है। यहाँ रिश्ते बहुत व्यवसायिक, रस्मी और सतही हैं। यहाँ शहर का अर्थ केवल रोज़गार में खुलता है। यहाँ स्मृतियाँ एकदम व्यर्थ हैं और सपने सिर्फ़ तरक्क़ी से जुड़े हैं। इस बाज़ार ने यह सब कुछ लील लिया है जो मनुष्य को मनुष्य बने रहने की ताक़त देता है। 

एक छोटे से उपन्यास में उपभोक्तावाद, भूमंडलीकरण और उत्तर-आधुनिक समय का दर्दनाक आख्यान ममता कालिया ने बहुत बड़े फ़लक पर रच दिया है। पवन और सघन, नई पीढ़ी के दो लड़के केवल इस उपन्यास के ही नहीं बल्कि समकालीन समय के अधुनातन चरित्र हैं जो हर घर में बसे हैं। ये वह प्रतीक चरित्र हैं जो थोड़े-बहुत बदलाव के साथ महानगरों में भाग-दौड़ का आधुनिक जीवन जीते मध्यवर्गीय और उच्च-मध्यवर्गीय परिवारों में अनवरत साँस ले रहे हैं। इन चरित्रों ने अपना जीवन ख़ुद गढ़ा है। यह साहित्य और संस्कृति के बीच पल-बढ़कर जवान हुई पीढ़ी नहीं, इंटरनेट, ईमेल और सर्फ़िंग के माध्यम से जीवन के मानदंडों को निर्धारित करने वाली पीढ़ी है। इनके लिए रिश्ते-नातों का कोई अर्थ नहीं, कोई संवेदनात्मक स्वर नहीं है। ‘दौड़’ आज की युवा पीढ़ी की जीवन दृष्टि का प्रतिनिधित्व करता है। 

समकालीन लेखन में आज दो प्रकार के लेखक आमने-सामने हैं। एक वे जो सभ्यता की चकाचौंध के सामने अंधे हो चुके हैं, दूसरे वे जो इस सभ्यता की चकाचौंध के पीछे छिपे अँधेरे और उसके कारनामों को देख पा रहे हैं। यह एक विडम्बना ही है कि मनुष्य सृष्टि के मर्म को समझते हुए सभ्यता का विकास करने की प्रक्रिया में विफल हुआ है वह उसकी सत्ता को चुनौती देते हुए निरंतर निरंकुशता की ओर बढ़ता जा रहा है। मनुष्य की इस क्रूर प्रवृत्ति को दर्शाते हुए रणेन्द्र ने अपने उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में एक विस्तृत ऐतिहासिक फ़लक उठाया है। उन्होंने संकेतों में कह ही डाला है कि सृष्टि का विनाश निरंतर इसी तरह किया जाता रहा है। 

इसी संदर्भ में आदिवासी समाज के जीवन यथार्थ को सहज सरल शैली में चित्रित करने वाला उपन्यास संजीव बख्शी कृत ‘भूलन कांदा‘ उस छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज की जीवन कथा है, जहाँ नक्सलियों को ख़त्म करने और लूटतान्त्रिक व्यवस्था कायम करने के लिए हर बार राजनीतिक सत्ता व्यापक नरमेध को सहज स्वीकार्य बनाने की चतुराई दिखाती है। छत्तीसगढ के आदिवासी बेहद भोले और छल प्रपंच से दूर शांतिप्रिय जीवन में विश्वास रखने वाले लोग हैं, जिन्हें यह तक मालूम नहीं भारत कब गुलाम था और कब आज़ाद हुआ। पहले कौन शाक था और आज कौन शासक है। इस तथ्य को जनकवी नागार्जुन ने भी लक्ष्य किया था अपनी कविता ‘शालवानों के निविड़ टापू में ....‘ नागार्जुन की यह कविता सन् 1973 की है जब छत्तीसगढ राज्य का कोई अस्तित्व नहीं था। 

संजीव बख्शी के इस उपन्यास का शीर्षक ‘भूलन कांदा‘ अपने अबूझ अर्थ के कारण समझने में उलझन पैदा करता है। उपन्यास के प्रारम्भ में लेखक ने भूलन कांदा के बारे स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘छत्तीसगढ़ के जंगलों में भूलन कांदा देखा जाता है। ग़लती से किसी का पैर पड़ गया इस पर तो वह भटक जाता है। दिखता है तो सब ओर पेड़ ही पेड़, रास्ता नहीं दिखता। कोई निकलता है गाँव का इधर से समझ जाता है, यह भूलन का काम है। वह पास आकर उसे बस छू लेता है कि फॉर से सब कुछ वैसा का वैसा दिखने लगता है। यह किंवदंती नहीं सत्य है । यह अजीब सा लगता है, पर यह मौजूद है छत्तीसगढ़ के जंगलों में।‘ इस सूचना के बाद जब लेखक कथा प्रारम्भ करता है, तो पाठकों का पाँव अनायास भूलन पर पड़ जाता है और तभी वह भूलन-लोक से वापस लौट पाता है, जब उपन्यास समाप्त होता है। ‘भूलन कांदा‘ दरअसल सीधे-सादे आदिवासियों की सहज कथा उन्हीं की ठेठ भाषा और स्थानीय शब्दावली में उनकी जीवन-शैली को गहराई और प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करता है।

लेखक संजीव बख्शी का इस अंचल की भाषा और उसकी एक-एक बारीक़ियों पर विशेष अधिकार है। आदिवासी समाज की सामाजिक संरचना, पर्व-त्योहार और उनके नाम, मनाने का तरीक़ा सब कुछ अलग है। एक साल जब गाँव में ठीक से बारिश नहीं होती है, तो गाँव के लोग चिंतित हो जाते हैं कि पानी क्यों नहीं बरस रहा है? तब गाँव के पंडित ने विचार करके बताया कि ‘इस साल पोरा तिहार मनाया जावे।‘ लेखक आदिवासी समाज के शब्द प्रयोग को लेकर बेहद सजग है –‘जानवर बोलने से कोई भी जानवर, पर जनावर बोलने का मतलब होता है शेर।‘ संजीव बख्शी का उपन्यास भूलन कांदा बेहद संवेदनशीलता से विविध प्रान्तों के जंगलों में रहने वाले आदिवासी समुदायों के जीवन से जुड़े सवालों को बेबाकी से उठाता है। आदिवासियों के जीवन में जेल, पुलिस, अदालत आदि की सार्थकता पर यह उपन्यास गंभीर सवाल करता है। यह उपन्यास आदिवासियों में सामूहिक निर्णय की परंपरा को दर्शाता है। जिस जेल के नाम से मुख्यधारा के समाज के लोगों की इज़्ज़त चली जाती है और रूह काँपने लगती है, उस जेल के बारे में आम आदिवासी जनता की सोच है की ‘जेल में इलाज की सुविधा है और टाइम पर खाना-पीना होता मिलता है।‘ ऐसे में पुनर्विचार करने की ज़रूरत है की जिस मक़सद से आधुनिक न्याय प्रणाली में जेल की अवधारणा विकसित हुई, क्या वह सफल है? जिस सज़ा को अपराधी सज़ा ही नहीं समझे, जो जेल उसे अपने घर से बेहतर लगे, जहाँ का खाना-पीना उसे आम जीवन में कभी नसीब न होता हो, उसका फिर मतलब क्या है? उपन्यास में कई अन्य प्रसंग भी हैं जो हमारी न्याय व्यवस्था से सीधे टकराते हैं। 

नई सदी के उपन्यासों में पूर्वोत्तर प्रान्तों की जनजातियों के जीवन को उजागर करने वाले उपन्यासों का उद्भव एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित अरुणाचल प्रदेश में मुख्यत: बाईस जनजातियाँ निवास करती हैं। इन सभी जनजातियों की संस्कृति, वेषभूषा, रीतिरिवाज, खान-पान, आचार-विचार और व्यवहार परस्पर भिन्न हैं। इन सभी जनजातियों की अपनी स्वतंत्र भाषाएँ हैं। प्रत्येक जनजाति के लोग अपने समुदाय में अपनी जनजातीय भाषा का प्रयोग बोलचाल और वैचारिक आदान-प्रदान के लिए करते हैं। ग़ौरतलब है कि अंतर-सामुदायिक व्यवहार के लिए वे सभी हिंदी का ही प्रयोग करते हैं। इन लोगों में आनुषंगिक रूप से जनजातीय श्रेष्ठता का क्रम निर्धारित है। विवाह आदि जनजातीय दायरे में ही स्वीकार्य होते हैं। किन्तु इसके बावजूद इनमें स्नेह, सौमनस्य और सौहार्द्र का भाव पाया जाता है। आदी, निशी, आपातानी आदि जनजातियाँ अपने मौलिक जीवन विधान के लिए मशहूर हैं। इन सभी जनजातियों में शिक्षा का प्रसार तेज़ी से हो रहा है। इन लोगों की जीवन शैली में आधुनिकता का प्रवेश हो चुका है। ये सभी जनजातियाँ आधुनिक जीवन शैली को अपना रहीं हैं किन्तु अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं का ये कट्टरता से पालन करते हैं। जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार सभी जनजातियों में भिन्न भिन्न विधियों से सम्पन्न किए जाते हैं। इस संस्कारों की अपनी विशेषताएँ हैं और इन्हें सभी लोग बहुत ही आदर और भक्ति भाव से संपन्न करते हैं। इनके संस्कारों में अंधविश्वास और प्राचीन रूढ़िवादिता की मौजूदगी आश्चर्य पैदा करती है। अनेक जनजातियों में धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलि की प्रथा मौजूद है।

इन्हीं जनजातियों में से एक जनजाति है - मनपा। यह एक बौद्ध धर्मावलम्बी जनजाति है। इस जनजाति के लोग मृतकों के शव को एक सौ आठ टुकड़ों में काटकर नदी में बहा देते हैं। इसी संस्कार की समाजशास्त्रीय व्याख्या करने वाला उपन्यास है 'शव काटने वाला आदमी'। इस उपन्यास का मूल चरित्र ' दारगे नरबू' पेशे से एक शव काटने वाला आदमी है जिसे 'मनपा' (जनजाति) लोग 'थांपा' कहकर बुलाते हैं। दारगे नरबू अपनी घर गृहस्थी सँभालता है और पत्नी 'गुईसेंगमु तथा बेटी रिजोम्बी' के साथ नदी के किनारे समाज से दूर सूनसान जगह पर रहता है। वह तवांग में छोड़ आए अपने परिजनों और दोस्तों की याद में खोया रहता है। यह उपन्यास दारगे नरबू नामक एक शव काटने वाले आदमी की जीवन कथा है। इसके लेखक येसे दरजे थोंगछी असमिया के महत्त्वपूर्ण कहानीकार और उपन्यासकार हैं। शव काटने वाला आदमी मूलत: असमिया भाषा की रचना है जिसे दिनकर कुमार ने हिंदी में अनुवाद किया है। लेखक येसे दरजे थोंगछी ने मनपा जनजाति के शव काटने वाले आदमियों के जीवन को निकट से देखकर इस उपन्यास की रचना की है।

 येसे दरजे थोंगछी मूलत: अरुणाचल प्रदेश के कामेंग जिला में स्थिति जीगांव नामक पहाड़ी गाँव के निवासी हैं। उन्होंने बचपन से ही असमिया भाषा में कविता, नाटक आदि लिखना शुरू कर दिया था और बाद में कहानी और उपन्यास भी वे लिखने लगे। उनके कहानी, उपन्यास और नाटक अरुणाचल की विभिन्न जनजातियों की अनोखी जीवन शैली पर आधारित हैं। असमिया में उनकी रचनाओं के लिए उनकी तुलना नाईजीरियन उपन्यासकार 'चिनुवा आछिवे' के साथ की जाती है। भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त होने के बाद, वर्तमान में वे 'सूचना अधिकार कानून विभाग' के अधीन अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सूचना एवं क़ानून आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं। 

लेखक येसे दरजे थोंगछी का जन्म 'सेरादुकपेन' जनजाति में हुआ। मनपा और सेरदुकपेन जन जातियों में काफ़ी समानता होने के कारण लेखक ने उपन्यास लेखन के लिए मनपा जनजाति का अध्ययन किया। लगभग तीन वर्षों तक लेखक तवांग जिले के उपायुक्त के पद पर कार्य करते हुआ इनको इस जनजाति के समाज और लोगों को काफ़ी क़रीब से देखने का मौक़ा मिला। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि तवांग जिले की भौगोलिक और प्राकृतिक सुंदरता से निर्मित है। मनपा लोगों की शव काटकर नदी में बहा देने की प्रथा पर उपन्यास लिखने के लिए लेखक को सामाजिक और मानसिक तौर से काफ़ी साहस जुटाना पड़ा। उपन्यास के केंद्र में मनपा जनजाति की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों के साथ उनका जन जीवन विस्तार से विभिन्न कल्पित पात्रों के माध्यम से व्यक्त हुआ है। उपन्यास में कथारस का अभाव नहीं है लेकिन दारगे नरबू की जीवन शैली पाठकों में रोमांच पैदा करती है। उपन्यास में परम पावन दलाई लामा, तवांग के तत्कालीन एडिशनल पॉलिटिकल ऑफ़ीसर श्री टी के मूर्ति और आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल निरंजन प्रसाद को छोड़कर सारे पात्र काल्पनिक हैं। लेखक के अनुसार उपन्यास का कथानक पूरी तरह काल्पनिक है फिर भी कुछ घटनाएँ तवांग में घटी सच्ची घटनाओं से प्रेरित हैं। उदाहरण के तौर पर 1950 में भूकंप से बड़ी संख्या में मनपा जनजाति के लोगों की मृत्यु, 1952 में तवांग का प्रशासन तिब्बत सरकार से भारत सरकार को हस्तांतरित किया जाना, तिब्बत पर चीन का कब्ज़ा और दलाई लामा का तवांग जिले के बीच से भारत में प्रवेश, चीन का हमला और हमले के दौरान सीमा तक बोझ लादकर ले जाने वाले मनपा लोगों की मौत, दिरांग में दलाई लामा द्वारा कालचक्र पूजा आदि ऐतिहासिक घटनाओं से भरपूर यह मार्मिक असमिया उपन्यास हिंदी में अनूदित होकर पाठकों और समालोचकों द्वारा सराहा गया है और इसका नाट्य रूप राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सराहा गया। 

उपन्यास का नायक दारगे नरबू है जो अपने गाँव दिरांगजंग में आउ थांपा, आपा थांपा या आजांग थांपा के नाम से ही जाना जाता है। मनपा भाषा में आउ का अर्थ बड़ा भाई, आपा का अर्थ पिता, दादा या बुजुर्ग होता है। आजांग का अर्थ मामा और थांपा का अर्थ शव काटने वाला आदमी होता है। यानी गाँव में किसी के लिए वह बड़ा भाई, किसी के लिए दादाजी और किसी के लिए मामा है। मगर मूल रूप से वह एक शव काटने वाला आदमी, थांपा है। उसका घर दिरांगजंग गाँव से कुछ दूरी पर थांमपानांग यानी शव काटने वाली निर्जन जगह पर स्थित है। इस निर्जन स्थल पर स्थित उसके घर के पास ही दिरांग नदी जाकर दिगिन नदी में मिल जाती है। उसके घर में तीन सदस्य रहते हैं। वह, उसकी पत्नी गुईसेंगमू और उसकी विकलांग बेटी। लेखक ने दारगे नरबू के माध्यम से मनपा जनजाति की इस लोमहर्षक प्रथा को दुनिया के सामने उद्घाटित किया है। दारगे नरबू का हुलिया जिस तरह जुगुप्सा पैदा करता है वह स्वयं अपने आप में एक विशेष सामाजिक संस्कार का बोध कराता है। लोगों के शव काटते समय खून, पीव, सदा हुआ मांस, चर्बी, पेशाब, मल आदि के छींटों की वजह से उसके कपड़ों पर एक मोटी परत जम जाती है और उसके ऊपर अनगिनत जुएँ अपना प्रजनन क्षेत्र और विचरण भूमि तैयार कर लेते हैं। लोग ऐसी हुलिया वाले को अपने आसपास भी नहीं फटकने देते लेकिन किसी भी मनपा के घर में जब मृत्यु होती है तो लोग उसे ढूँढ़कर आवभगत कर शव कटवाने का काम करवाते हैं और फिर उन टुकड़ों को नदी में बहा देते हैं। मनपा जनजाति में यह धारणा है कि इस प्रथा के पालन न करने पर मरने वाले को स्वर्ग में जगह नहीं मिलेगी। 

दारेगा के पास महीने या साल के ज़्यादातर हिस्से में शव काटने का काम नहीं रहता। जिस दिन शव काटने का काम करना पड़ता है, उस दिन शाम के वक़्त दारेगा नरबू (आउ थांपा) गाँव की सड़कों पर लड़खड़ाते हुए नहीं भटकता फिरता है, मगर जिस दिन लाश लेकर कोई भी उसके पास नहीं आता, उस दिन शाम के वक्त आउ थांपा (दरेगा नरबू) शराब पीकर मौज मस्ती करता है। 

यह उपन्यास मुख्यत: दरेगा नरबू के चरित्र पर आधारित तो है ही लेकिन उसके साथ ही अरुणाचल प्रदेश की 1950 के दशक की राजनीतिक स्थितियों का ऐतिहासिक ब्यौरा भी प्रस्तुत करता है। दारेगा नरबू का कार्य जितना भयावह और घृणास्पद दिखाई देता है उसके साथ जुड़ी हुई मान्यता या अंधविश्वास उतना ही जटिल और कट्टर है जिसका अन्य कोई समाधान नहीं है। जीवन भर लोगों के शव काटते रहने के कारण लोगों के बाहर-भीतर के अंगों की बनावट, रोग के लक्षण, मृत्यु आदि के कारण आदि के बारे में दारेगा जानकार हो चुका है - इस बात पर गाँव वालों को संदेह नहीं होता। इस कारण वह कई बीमारियों का इलाज भी करने की क्षमता रखता है। कई मामले में वह किसी भी मनुष्य की होने वाली मौत की पूर्व सूचना भी दे सकता है। ऐसा अनोखा किन्तु घृणास्पद पात्र है दारेगा नरबू। 

यह उपन्यास दारेगा नरबू के शव काटने के अनुभवों का विस्तृत चित्रण करता है जो कि अत्यंत रोमांचक और भयावह है। तरह तरह के लोगों के शव उसके पास आते हैं, सभी आयु के शव, सुंदर स्त्रियों से लेकर वृद्ध स्त्री पुरुषों के शव, इन सबको काटते हुए दारेगा नरबू के मन-मस्तिष्क में पैदा होने वाली संवेदनाएँ पाठक को झकझोरकर रख देती हैं। शव को काटने की विधिवत पद्धति होती है जिसे उपन्यासकार ने बहुत बारीक़ी से समूची प्रक्रिया को देखकर ही उपन्यास में वर्णित किया है। "दारगे के दाव (शव काटने वाला धारदार छुरा) पहले जुड़ा होता है बाएँ पैर के टखने का नीचे वाला हिस्सा, उसके बाद घुटने तक का हिस्सा, उसके बाद दायें पैर के टखने का नीचे वाला हिस्सा, उँगली इत्यादि वाला हिस्सा, उसके बाद घुटने तक का हिस्सा आदि नदी की तेज़ धारा में टुकड़ों में बँटकर बह जाते हैं। इसके बाद बायाँ घुटना, दायाँ घुटना ख़त्म होने पर हाथों की बारी आ जाती है। पहले नाज़ुक उँगलियों वाली बाईं अटेली कलाई के पास से, फिर केहुनी के पास से, फिर कंधे के पास से, उसके बाद दायीं हथेली कलाई के पास से, फिर केहुनी के पास से, फिर कंधे के पास से कट जाने के बाद सुंदर स्त्रियों के शरीर विहीन, हाथ विहीन, पैर विहीन, हाथ-पाँव-सिर छिपाकर रखने वाले कछुए की तरह अजीव बेडौल हो जाते हैं। इस तरह क्रम से शरीर के विभिन्न हिस्सों को दारगे काटता जाता है। बीच-बीच में उसे मृत के परिजन उसे शराब पिलाते जाते हैं। दारेगा के ही अनुसार शव काटने की पूरी प्रक्रिया का सबसे गंदा और घृणित काम नारी देह के भीतरी हिस्से को चीरने-काटने का काम। पहले गर्भाशय, फिर गुर्दा, माल, पचे-अधपचे खाद्य के साथ पेट की अंतड़ियाँ, हृदय, फेफड़ा, स्टैन, सीना, आदि एक सौ आठ टुकड़ों में विभाजित होकर एक सुंदर शरीर वाली स्त्री पृथ्वी से लुप्त हो जाती है।"(पृ : 19)
 मनपा जनजाति की सुंदर स्त्रियाँ लाश बनकर निर्लिप्त भाव से अपने शरीर को उसके हवाले कर देती हैं, काटे जाने के लिए । थोड़ा-थोड़ा कर एक सौ आठ टुकड़ों में बँटकर इस पृथ्वी से लुप्त हो जाने के लिए। पहले वे सुंदर स्त्रियाँ नग्न होती हैं उसके हाथों से। उसके हाथ उनके शरीर को ढके वस्त्र उतार देती हैं, उसके बाद कोई प्रतिवाद किए बग़ैर सुंदर स्त्रियाँ अपने शरीर को इस तरह छोड़ देती हैं नग्न होने के लिए। बेशर्म की तरह उन्मुक्त हो जाती हैं, सुंदर स्त्रियाँ। खुले आसमान के नीचे वे आख़री बार अपनी ख़ूबसूरती को प्रदर्शित कर जाती हैं। अस्थाई, भंगुर जीवन का मज़ाक उड़ाकर चली जाती हैं, मनुष्य और पृथ्वी का अपमान कर चली जाती हैं। मगर दारेगा नारबू को अपना फ़र्ज़ पूरा करना ही होगा। इसीलिए उसके दाव के साथ चित्त होकर पड़ी हुई सुंदर स्त्रियॉं का सुंदर शरीर उनके सुंदर धड़ से अलग हो जाता है। गरदन से, शरीर से कटा हुआ सुंदर स्त्रियों का सिर एक ऊँची चट्टान के ऊपर रखा जाता है, जहाँ कुत्ते-गीदड़ पहुँच नहीं सकते। इस तरह दरेगा नरबू अपनी मानवीय संवेदनाओं दफ़नाकर अपना कर्म करता जाता है। उपन्यास का अधिकांश दारगे नरबू के जीवन पर आधारित है। प्रकारांतर से तत्कालीन राजनीतिक परिवेश और भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा से उत्पन्न स्थितियों में दारेगा नरबू और उनके साथी मनपा जनजाति के लोगों की विपत्तियों की कहानी मार्मिक रूप से उपन्यास में चित्रित हुई है। चीनी आक्रमण के दौरान अरुणांचली जनजातियों द्वारा भारतीय सैनिकों की सहायता का विस्तृत ब्यौरा उपन्यास का महत्त्वपूर्ण अंश है। चीनी सेनाओं द्वारा तिब्बत पर आक्रमण का प्रसंग इस उपन्यास को इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बनाता है। तवांग का क्षेत्र जो भारत-चीन की सीमा पर बसा हुआ राजनयिक महत्त्व का क्षेत्र है, इसी के इर्द-गिर्द उपन्यास का परवर्ती हिस्सा केन्द्रित है। तवांग के रास्ते दलाई लामा का भारत प्रवेश, एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसका औपन्यासिक चित्रण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 

इस उपन्यास का सबसे सशक्त पक्ष इसकी भाषा है। हिंदी में अनूदित होने के बावजूद उपन्यास की कथाभाषा मनपा जनजातीय प्रयुक्तियों, मुहावरों तथा अभिव्यक्तियों की मौलिकता को जिस रूप में अनूदित पाठ में बनाए रखा है वह ग़ौरतलब है। कठिन जनजातीय अभिव्यक्तियों के लिए हर अध्याय के अंत में शब्दार्थ उपलब्ध कराए गए हैं जो कि स्वागत योग्य है। जनजातीय भाषा में वस्तुओं, पदार्थों, परंपराओं, कर्मकांडों, रीति-रिवाजों के नाम आदि का सरल अनुवाद अथवा हिंदी के समानार्थी शब्दों को यथास्थान सूचित किया गया है जो कि इस उपन्यास को पठनीय बनाता है। उत्तरपूर्वी जनजातीय समाजों के जीवन पर हिंदी में बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। यह उपन्यास अपने ढंग का विरला उपन्यास है जो भारत के सुदूर प्रान्तों में उपेक्षित और हाशिये पर पड़े समुदायों के जीवन की एक झाँकी प्रस्तुत करने में सफल। 

नई सदी के उपन्यासों ने अपनी बनावट और बुनावट में कथा शिल्प के सारे पुराने मानदंडों – कथानक, चरित्र, कथावाचन, वर्णन, पात्र-चित्रण, परिस्थिति, आशय, परिवेश का समानुपातिक संयोजन आदि को भाषा के ताने-बाने समेत नकार दिया है। कथ्य में अनुभूति, दीर्घ अनुभव, संवेदना आदि लगभग ग़ायब हो गए हैं। क्योंकि तेज़ी से गतिमान सूचनाएँ मात्रा की अधिकता के कारण भयंकर दबाव बनाती हैं। उपन्यासकार आज के उपन्यास में अनेक भूमिकाओं में स्वयं रहता है। पात्र के भीतर पात्र। पाठ के भीतर पाठ। शिल्प का कोई अनुशासन नहीं होता। शिल्प कुछ भी हो सकता है। पाठक और कथावाचक का संबंध बदल गया है। पाठक और पाठ का संबंध बदल गया है, अब इस संबंध में भाव की भूमिका ख़त्म हो गई है। प्रेमचंद के नैरेशन, रेणु के नैरेशन, मोहन राकेश के नैरेशन और नई सदी्वके उपन्यासों के नैरेशन में बहुत अंतर आ गया है। सूचनाएँ पाठक और नैरेटर को पास ले आई हैं। सूचनाएँ सरलता से, सहजता से, चारों ओर बिखरी हुई उपलब्ध हैं। यही उपलब्धता लेखक का काम मुश्किल कर देती है। उसे उघड़ी हुई सच्चाइयों के भीतर परिदृश्य रचना होता है। वर्तमान में घटित हो रहे परिदृश्य की रचना ही सर्जनात्मकता का प्रमाण बनती है। इससे पहले का लेखक चरित्र परिवेश वस्तुगठन आदि के संयोजन द्वारा अपनी रचना में यथार्थ के रूप उघाड़ता था। आज यथार्थ बहुत हद तक उघडा हुआ है। इस उघड़े यथार्थ के नीचे कौन से तंत्र एक दूसरे में गुँथ कर कौन-सा परिदृश्य गढ़ते हैं, गुँथने की प्रक्रिया क्या है और परिदृश्य के भीतर अर्थ क्या बुना गया है, इसमें रचना का होना निहित है। 

इस संदर्भ में प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘मुन्नी मोबाइल‘ महत्त्वपूर्ण रचना मानी जा सकती है। इसके दो मुख्य प्रसंग हैं, एक साधारण सी घरेलू नौकरानी मुन्नी की महत्वाकांक्षाओं का वह सफ़र जो उसे उसके व्यक्तित्व की दृढ़ता की ऊर्जा से उसे डॉन बनाता है और बाज़ार के शातिर हाथ जो उसकी हत्या कर देते हैं और दूसरा प्रसंग नैरेटर/लेखक/पत्रकार आनंद भारती के आँखों देखे गोधरा कांड के तत्काल बाद गुजरात की ज़मीन पर राजनीति के सांप्रदायिक चेहरे, गुंडागर्दी, मनुष्यता की खुलेआम हत्या और इस सबके पीछे मौजूद सुनियोजित राजनीतिक सोच का है। 

मुन्नी संघर्ष करती है आगे बढ़ने के लिए और एक बेहतर जीवन जीने के लिए। साधारण निरक्षर मुन्नी आनंद भारती के संपर्क में शिक्षा और तकनीक का महत्व समझकर अपने बच्चों को शिक्षित करती है, मकान बनवाती है और मोबाइल का उपहार लेकर अपनी दुनिया बदलने लगती है। मुन्नी गुंडों से लड़ते हुए अपनी मंज़िल तक पहुँचने की यात्रा करती है और मोदी गुंडों को संरक्षण देते हुए अपनी सत्ता की यात्रा करते हैं। मुन्नी मार दी जाती है और मोदी लोकतन्त्र में लोकतान्त्रिक चुनाव पर चुनाव जीतते चले जाते हैं। मोदी बहुत कम बोलते हुए दिखते हैं, मुन्नी सच्चाई के ताव में रहती है – 
“हीर सिंह के सामने आकार उसने बोला, ‘मेरा नाम मुन्नी मोबाइल है’, इस बात को कभी न भूलना।“ इस घटना के बाद उसका हौसला बढ़ चुका था, वह गलत बात के लिए किसी के आगे नहीं झुकती थी। भिड़ जाती। सच के लिए उसे भिड़ना आ गया था। (मुन्नी मोबाइल –पृ 14) 
उपन्यास में आनंद भारती पर भी हमला हुआ। आनंद भारती सदमे में थे। उनके दफ्तर का माहौल भी मोदी समर्थकों से भरा था। कोई भी आकार उनको चिढ़ा जाता, ‘आपने मोदी कि हराने के लिए टनों कागज खराब कर दिया। लेकिन मोदी का आप कुछ बिगाड़ नहीं पाए‘। (मुन्नी मोबाइल – पृ 45) इन पंक्तियों में बात सिर्फ़ आनंद भारती और मोदी की या सांप्रदायिकता और पंथनिरपेक्षता की नहीं है। पाठ और प्रसंग के बीच मौजूद शब्दों की उस अनुगूँज की है जो बाज़ार, राजनीति, धर्म, गुंडागर्दी, बौद्धिकता, विचार, प्रशासन और शासन तंत्र की भिड़ंत में हार रहे मनुष्य की चुप्पी धारण करती है। 

इस उपन्यास का शिल्प अपने आप में अद्भुत है कहीं कोई आवरण, छद्म, अभिनय और दिखावा नहीं है, न शब्दों मे, न अर्थ में। नेता का नाम तक नहीं बदला है। चाहे मानवीय संबंध हों, समाज हो या राजनीति हो। संस्थान और जीवन में मौजूद अर्थहीनता के बीच से उपन्यास जो अर्थहीनता दिखाता है उसमें वह ऐसे गठबंधनों की गाँठें दिखा देता है जिसे आलोचक को और पाठक को एक व्यापक अर्थ में खोलना और तोड़ना होगा तभी मनुष्यता बच सकेगी। 
“आनंद भारती को मामला समझ आ गया था। मुन्नी मर्डर की गुत्थी लगभग उन्होंने सुलझा ली थी। उन्हें लगा कि जिस तरह से इराक के सद्द्म हुसैन को अमेरिकी प्रेसिडेंट जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने पेट्रोल के धंधे को यूरो से जोड़ने के लिए सज़ा दी थी, वैसे ही विदेशी लड़कियों को अपने साथ शामिल करने की सज़ा मुन्नी को मिली थी। सद्दाम हुसैन के यूरो से पेट्रोल का बिजनेस जोड़ देने से डॉलर विश्व बाज़ार में औंधे मुंह गिर गया था, उसी तरह मुन्नी के गैंग में विदेशी लड़कियों के आने के बाद दूसरे प्लेयरों की रोजी रोटी छिन गई थी। बात बड़ी हो या छोटी, यदि उसमें समानता हो तो उसका अंत एक जैसा ही होता है। शायद मौत। “(मुन्नी मोबाइल – पृ 154) 

भूमंडलीकरण, बाज़ार और बाज़ार की पैदाइश पैसे की हवस और इसके बीच तेज़ी से बदल रहा समाज हमारे सामने नया अर्थशास्त्र और नया समाजशास्त्र रच रहे हैं इसके अंतरसंबंधों के परिप्रेक्ष्य में ही आज का उपन्यास समझा जा सकेगा। 

नई सदी का कथा साहित्य मूलत: विमर्शों का कथा साहित्य बन गया है। विचारधाराएँ और मान्यताएँ सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों से प्रेरित होकर विमर्श का रूप ले चुकी हैं। दलित समाज की परिस्थितियों की पड़ताल करने वाली मानसिकता से उपजी वैचारिकी दलित विमर्श के रूप में उपन्यास साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुकी है। दलित रचनाकारों की आत्मकथाओं द्वारा दलित चेतना, भोगा हुआ यथार्थ, उनकी पीड़ा समाज के सामने प्रकट हुई है। इनमें कतिपय दलित लेखिकाओं की आत्मकथाएँ विशेष उल्लेखनीय हैं। सुशीला टाकभौरे (शिकंजे का दर्द) और आशा आपराद (दर्द जो सहा मैंने) आत्मकथाएँ दलित स्त्री की व्यक्तिगत और सामाजिक अवमाननाओं को बिना किसी दुराव के प्रकट करती हैं। दलित लेखकों की आत्मकथाओं में तुलसीराम कृत मुर्दहिया और मणिकर्णिका विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 

स्त्रीवादी विमर्श, स्त्री सशक्तिकरण तथा नारी के पारिवारिक और सामाजिक शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाली लेखिकाओं ने अपना एक पृथक रचना संसार निर्मित कर लिया है जिसमें मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, कृष्णा अग्निहोत्री, चंद्रकांता, मधु कांकरिया, प्रभा खेतान, मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, महुआ माजी आदि ने नई सदी के हिंदी उपन्यासों को पैनी धार दी है। सांप्रदायिक तत्वों के दुष्प्रभाव को चित्रित करने वाले नए उपन्यासों में मो आरिफ़ का उपयात्रा और महुआ माजी का मैं बोरिशाइल्ला महत्त्वपूर्ण हैं। स्त्री की अस्मिता और अस्तित्व के प्रश्न से जुड़े सवालों पर विचार करने हेतु स्त्री विमर्श, समाज की मूलधारा से कटे हुए हाशिये पर पड़े हुए समुदायों के अधिकारों के चिंतन को अल्पसंख्यक विमर्श के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किया जा चुका है। साहित्य में सांप्रदायिक-विमर्श भी महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न का स्थान प्राप्त कर चुका है। आदिवासी जन जातियों के जीवन संघर्ष एवं अधिकारों की लड़ाई को कुछ लोग दलित विमर्श का हिस्सा मान बैठे हैं जो कि सही नहीं है। वन्य जनजातियों के जीवन और उनकी चुनौतियों का एक सुदीर्घ इतिहास भारतीय समाज में आज़ादी से पूर्व से ही विद्यमान है जो वर्तमान युग में एक पृथक और स्वतंत्र अस्तित्व धारण कर चुका है। आदिवासी जन जीवन पर आधारित महत्वपूर्ण उपन्यासों की रचना हो चुकी है। उपन्यास साहित्य समाजशास्त्र का रूप धारण कर चुका है जो कि किसी भी समाज को पर्त दर पर्त खोलने में सक्षम है। 
 

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