संजा (साँझी)
काव्य साहित्य | कविता संजय वर्मा 'दृष्टि’15 Sep 2021 (अंक: 189, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
साँझी का देशज शब्द संजा है।
गाँवों में घरों की दीवारों पर
ममता भरा आँचल का
अहसास होता
जब मंडती संजा।
दीवारें सज जाती गाँव की
और संजा बन जाती जैसे दुल्हन
प्रकृति के प्रति स्नेह को
दीवारों पर जब बाटती बेटियाँ।
संजा के मीठे बोल
भर जाते कानों में मिठास
गाँव भी गर्व से बोल उठता
ये हैं हमारी बेटियाँ।
अब शहर की दीवारों पर
टकटकी लगाए देखती
संजा के रंग और लोक गीत
ऊँची अट्टालिकाओं में
संजा मानों घूम सी गई
लोक संस्कृति की ख़ुशियाँ क्यूँ
रूठ सी गई।
लगता भ्रूण हत्याओं से मानों
सूनी दीवारें भी रोने लगीं
संजा ना रुला बार-बार
संजा मांडने का दृढ़ निश्चय
लोक संस्कृति को अवश्य बचाएगा
बेटियों को लोक गीत अवश्य सिखाएगा
जब आएगी संजा घर मेरे।
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