अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

संस्कार

पहली बार घर से बाहर जा रही थी, दो–तीन दिनों के लिए नहीं पूरे तीन साल के लिये। परदेस में पढ़ने की बात घर में किसी को रास नहीं आ रही थी। कभी घर से स्कूल तक तो अकेले नहीं गई थी। कैसे रहेगी? अनजान शहर, अनजान लोग, इतनी सारी चुनौतियाँ . . .। हालात भी इजाज़त नहीं देते थे। लेकिन बेटी की इच्छा के आगे पिता ने बैंक से कर्ज़ ले लिया। उसकी इच्छाएँ कर्तव्यों और दायित्व-निर्वाह में स्वाहा हो गईं, लेकिन बेटी को अवश्य ही लंदन भेजूँगा। वह वही कोर्स करेगी जो वह करना चाहती है। हाँ–ना करते करते सैकड़ों हिदायतों के साथ उसे माँ-बाप छोड़ आये मुंबई एयरपोर्ट। माँ नौकरी छोड़कर उसके साथ जाना चाहती थी पर फिर फ़ीस कैसे भरी जाती? अकेला पिता कैसे ढोता ख़र्चों का बोझ? माँ ने भी दिल कड़ा कर लिया, रह लूँगी अकेली, लेकिन बेटी के सपनों की दुश्मन नहीं बनूँगी। बरसों से पहना हनुमानजी का तावीज़ बेटी के गले में लटका दिया। नया मोबाइल फोन, घर-गृहस्थी का छोटा-मोटा सामान। सारी व्यवस्थाएँ कर दी गईं। हिदायतों की लंबी सूची, अनजान लोगों से दूर रहना, सुबह-शाम फोन करना, रात देर तक न जागना . . .।

अचानक मिली छूट से वह बौखला गई। जल्द ही नये-पुराने, अच्छे-बुरे लड़के-लड़कियों के साथ दोस्ती हो गई, बाहर आना-जाना होने लगा। वह एक आज़ाद पंछी थी, जहाँ कोई रोकने वाला न था। होस्टल के कमरे में टेबल पर रखे हनुमान जी की एक मूर्ति जो इस हिदायत के साथ रखी थी कि रोज़ दिया लगाना। लेकिन फ़ायर अलार्म के डर से उसने सिर्फ़ प्रणाम से काम चला लेना सीख लिया। 

और फिर ऑरेंज जूस पीते-पीते न जाने कब वह बीयर और वाइन पीने लगी। सिगरेट के छल्ले बनाने का भी तो एक अपना मज़ा था। मेहनत की थी छल्ले बनाना सीखने में। ‘शीशा बार’ में नहीं जाती तो सबके साथ कैसे रह पाती? वह भूलती गई . . . बहुत कुछ। . . . उन हिदायतों को . . . भी . . . धीरे. . . धीरे , जो माँ-बाप ने दी थीं। घर रोज़ बात न कर पाना, व्यस्तता और समय का अंतर बता कर यक़ीन दिलाना मुश्किल नहीं था। सिर्फ़ शनिवार-रविवार ही बात होने लगी। पढ़ाई बहाना बन गई फोन न कर पाने का। 

इधर कई बार से ’शीशा बार’ के उस अधेड़ उम्र के वेटर को देख कर उसे कुछ होने लगता था। साथियों के बग़ैर भी वह जब-तब वहाँ जाने लगी। वह अक़्सर एकाध ड्रिंक बड़ी अदा के साथ उसे मुफ़्त ही दे देता था। उसके कसरती शरीर और बलिष्ठ बाहों की बल्लियों से वह नज़रें न हटा पाती। यों उस वेटर से बातें तो रोज़ ही होती थीं, आख़िर एक दिन उसने उसे घर पर बुलाने का प्रस्ताव रख ही दिया। कह सकते हैं कि दोनों का परिचय काफ़ी बढ़ गया था। युवा मन कल्पानाकाश में विचरने लगा। लड़की ने उस शाम दोस्तों के साथ जाने से मना कर दिया। 

रात आठ बजे मुलाक़ात तय हुई थी, इस मुलाक़ात का मतलब वह ख़ूब समझ रही थी। उसने तैयार होते हुए अपनी आँख का काजल कुछ क़ातिलाना अंदाज़ में गहरा किया। टेबल पर रखे वेनिटी केस में से अभी लिप्स्टिक तक हाथ पँहुचे ही थे कि हनुमान जी की वह छोटी सी मूर्ति गिर पड़ी। उसने वापस जगह पर रखने से पहले आदतन माथे पर लगाई कि स्वतः ही उसका हाथ गले के लॉकेट पर चला गया। वह, मानो, यकायक होश में आ गई। हे भगवान! यह क्या करने जा रही थी मैं? उसका बदन थरथर काँप रहा था। छाती और गला अवरुद्ध। उसने उसे एक संदेश भेजा– ‘मैं नहीं आ सकती आज भी और कभी भी।‘ उसका एक हाथ लॉकेट पर और नज़र टेबल पर रखे हनुमान जी पर थी। उस शाम वह घंटों फूट-फूट कर रोई और फिर उसे सब कुछ एकदम साफ़-साफ़ नज़र आने लगा। 
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी

कविता

लघुकथा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं