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संतोष धन सुख की खान

“मणि! तुमने आत्महत्या का इतना बड़ा क़दम क्यों उठाया? अपने बच्चे के बारे में भी न सोचा। ख़ैर मनाओ कि बच गईं।“

अर्चिता के पूछने पर मणि फूट-फ़ूट कर रोने लगी। बोली, “मैम! मैं क्या करूँ? पति के दफ़्तर में मिलने आने वालों का स्वागत, रिश्तेदारों का सत्कार, चीनू का स्कूल का ख़र्च। मैं अपने लिये कुछ भी न ख़र्च करूँ तो भी महीना पूरा नहीं बीतता और हम दोनों में झगड़ा हो जाता है। मेरे पापा जितनी पॉकेट मनी देते थे उतनी मेरे पति की तनख्वाह है। मैं तंग आ गई हूँ।“ 

शेखर बोल पड़े, “मैम! मणि जब बाज़ार जाती है तो ज़रूरत न हो तब भी सामान ले आती है।“ 

मणि बोली, “मैम! रिश्तेदारों की ख़ातिर के लिये लाना पड़ता है।“ 

र्चना ने दोनों को समझाया, “कहावत है कि ’जितनी चादर है उतने पैर पसारो’। जो तुम्हारे पास प्रेम से आता है उसको आदर से ख़ाली चाय पिला दो और सादा भोजन करा दो तो वह प्रसन्न रहेगा। यदि एक बार बहुत सत्कार कर दिया और अगली बार न कर पाये तो वह अपना अनादर समझेगा।“ एक बात और सुनो, “जब कोई चीज़ लेने को तुम्हारा मन करे और पैसे कम हों तो सोचो कि बहुत से लोगों के पास तुमसे कम है। उस समय यह मत सोचो कि तुम इसे नहीं ख़रीद पा रहे हो। उस चीज़ को मन भर के देखो, उसकी क़ीमत पूछो और सोचो कि बाद में इसे ले लेंगे। घर आने पर तुम उस वस्तु की उपयोगिता पर विचार करो। यदि वह वस्तु आवश्यक लगती है तो जब सहूलियत हो तब ख़रीद लो। यदि ख़रीदने की सामर्थ्य न हो तो यह कहकर मन में संतोष करो कि तुम्हारे पास बहुत से लोगों से अधिक है। तुमने देखा होगा कि तुम्हें कोई चीज़ तभी ज़्यादा अच्छी लगती है जब तक वह तुम्हारे पास नहीं है। जब तुम उसे पा लेते हो तो कुछ दिन में मन भर जाता है। इसलिये जो कुछ तुम्हारे पास है उसके लिये ईश्वर को धन्यवाद दो। जब एक बार मन में संतोष आ जायेगा तो जान जाओगे कि संतोष धन सुख की खान है।“

शेखर और मणि ने अर्चना को धन्यवाद देकर कहा‌, “मैम! अब हम समझ पाये कि ईमानदारी से कम वेतन में हम कैसे रह सकते हैं।“ 

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