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संवेदनाओं का गुलदस्ता

प्रेमचंद जी बड़े स्वाभिमानी स्वभाव के थे। घर में आये मेहमान का स्वागत बड़ी गर्मजोशी के साथ करते थे। अक्सर पुराने ज़माने की बातें करके संवेदनाओं से मन हल्का कर लेते थे। उन्हें आज का दौर और नई पीढ़ी में कुछ ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। हाँ जब दफ़्तर से आने के बाद फ़ुर्सत में हो जाते तब पोते मोहन को प्यार से पास में बिठाकर उससे बातें करते थे। मगर मोहन उनकी बातों से बोरियत महसूस करने लगता और कहता, "क्या दद्दू जब देखो तब वहीं पुरानी बातें करते रहते हो, कम से कम आज की स्टाइलिस्ट जनरेशन को देखते हुए थोड़ा तो चेंज लाओ।"

प्रेमचंद जी का मुँह यह सुनकर छोटा हो जाता आत्मग्लानि के बोझ तले रुँधे स्वर में कह देते, "बेटा मोहन मुझे तुम्हारी स्टाइलिस्ट जनरेशन से कोई शिकायत नहीं है, परंतु जो संस्कार परंपरागत चलते आ रहे हैं उन्हें स्वीकार तो करना ही होगा। देखो तुम्हारी टी शर्ट पर कितना बेहूदा कार्टून चित्र बना हुआ है और देखो मेरी यह सफ़ेद कमीज़। कहीं से कहीं तक पश्चिमी  लिबास की परछाई तक नहीं दिख रही।"

मोहन से रहा नहीं गया और झल्लाते हुए माँ को आवाज़ दी, "मॉम प्लीज़ दद्दू को समझाओ ना.... जब देखो तब पुरानी बातें और कल्चर को लेकर मुझे डिस्टर्ब करते रहते हैं।" 

मोहन की माँ ने अंदर से टिप्पणी कर दी, "बेटा जब तक झेल सको झेल लो फिर तुम्हारे डैडी के बैंगलोर से आने के बाद इस बकवास प्रॉब्लम का सल्यूशन निकाल लेंगे। डोंट वरी एंड टेक इट इज़ी"।
प्रेमचंद जी यह सुनकर संवेदनाओं का गुलदस्ता लेकर अपने कमरे की ओर चल दिये।
 

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