अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सपनों में भी बसता मेरा वतन

"जहाँ हमारा ख़ून गिरा है, वह लद्दाख हमारा है।"

बगल के पलंग पर दादी के साथ बैठी पोती ने अपनी दादी को झिंझोड़ते हुए कहा, "दादी, बब्बा जी नींद में न जाने क्या  बड़बड़ा रहे हैं!"

पत्नी ने बड़बड़ाते हुए मेरा हाथ खींचा, "हुँह, इन्हें तो सपने भी 370 के ही आते हैं।"

मैं उठकर बैठ गया। पोती अपनी किताब पढ़ रही थी, कुछ लिखती भी जा रही थी। सामने देखा दीवाल पर टँगी घड़ी 10 ही बजा रही थी।

"मिट्ठू, क्या मैं सो गया था?"

उत्तर पोती मिट्ठू के स्थान पर उनकी दादी ने दिया, "ना ना जनाब,आप कहाँ सोए थे ? सो तो हम लोग रहे थे।"

पोती ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी। उसकी दादी ने भी भी उसीका साथ दिया।

"अब तो आपका लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बन गया है, अब सो जाओ," यह पत्नी जी के बोल थे।

"क्यों तुम्हें क्या तकलीफ़ हो गई?"

मिट्ठू बोली, "अरे बब्बा जी आप नींद में कह रहे थे- 'जहाँ हमारा ख़ून गिरा है, वह लद्दाख हमारा है'... इसलिए दादी कह रही हैं।"

मैंने पत्नी-उन्मुख होकर कहा, "नहीं, मंजुल बात 370 की नहीं है। मैं तो स्वप्न में क़रीब 57 साल पहले चला गया था।"

"क्या हुआ था 57 साल पहले? बब्बा जी बताओ न। प्लीज़ बब्बा जी बताओ न।"

"सुनो!

"मैं कक्षा छह में पढ़ता था उस समय। हमारे शासकीय माध्यमिक विद्यालय भवन में चारों तरफ़ पक्के अध्ययन कक्ष बने थे, बीच में कच्चा आँगन  था। आँगन सदा साफ़-सुथरा रहता था। उसमें चारों ओर किनारों पर गेंदे की विभिन्न क़िस्मों के पौधे लगे थे, उनमें ख़ुशबूदार फूल लगे थे। स्कूल पहुँचने पर पहले "प्रार्थना" फिर पढ़ाई। अंत में छुट्टी होते ही सब विद्यार्थी अपने अपने घरों की ओर भागते।

"पढ़ाई के बीच में लगभग 1 बजे इंटरवल होता था। सभी छात्र इस दौरान इधर-उधर घूमते, मस्ती करते। एक दिन हेडमास्टर साहब ने आदेश निकाला, "आज से इंटरवल में सभी विद्यार्थी आँगन में बैठेंगे।"

"इंटरवल की घण्टी बजते ही सभी विद्यार्थी आँगन में  टाट पट्टियों पर कक्षा बार दक्षिणाभिमुख बैठ गए। दक्षिण में सभी शिक्षक उत्तराभिमुख होकर बैठे। उनके सामने एक टेबल पर रेडियो रखा था। हेडमास्टर साहब ने फ़ुल वॉल्यूम पर रेडियो ऑन कर दिया; समाचार आने लगे।

"यह बात सन 62 की है। समाचारों से तो कुछ समझ में नहीं आया पर समाचार सुनने के बाद शिक्षकों ने आपस में जो बातें कीं उनसे पता चला कि चीन ने भारत पर आक्रमण किया है और सीमा पर भारी युद्ध चल रहा है।

"यह युद्ध 20 अक्टूबर 1962 से 21 नवम्बर 1962 तक चला। उस समय देश प्रेम का ऐसा जज़्बा कि पूरे युद्ध के दौरान अध्यापकगण प्रतिदिन इंटरवल में ख़ुद भी समाचार सुनते और विद्यार्थियों को भी सुनवाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि सभी विद्यार्थी  शाला समय के बाद प्रतिदिन गाँव में रैली निकालते और तरह-तरह के देश-प्रेम और राष्ट्रीय एकता के नारे लगाते थे। उनमें एक नारा यह भी था जो कि तुम्हारे कहने के अनुसार  मैं आज स्वप्न में बड़बड़ा रहा था।

"मिट्ठू जी मुझे याद है कि उस समय हमारे गाँव के आस-पास दूर-दूर तक राष्ट्रीय एकता का आलम यह था कि लोग जाति, धर्म, परस्पर के लड़ाई-झगड़े सब भूलकर देश के लिए मर-मिटने को तैयार हो उठे थे।"

मिट्ठू जी जो अब तक बब्बा जी टुकुर टुकुर मुँह ताक रही थी, कहने लगीं, "बब्बा जी बड़ी होकर मैं सेना में ही भर्ती होऊँगी।"

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अब पछताए होत का 
|

भोला का गाँव शहर से लगा हुआ है। एक किलोमीटर…

आत्मबल का कमाल
|

अल्पिका एक छोटे से पहाड़ी गाँव के साधारण…

उड़न खटोला
|

ईरज हर दिन उससे एक ग़ुब्बारा ख़रीदता था…

कॉम्पटिशन
|

  अनुषा और मानसी एक ही स्कूल की एक…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

कविता

चिन्तन

कहानी

लघुकथा

कविता - क्षणिका

बच्चों के मुख से

डायरी

कार्यक्रम रिपोर्ट

शोध निबन्ध

बाल साहित्य कविता

स्मृति लेख

किशोर साहित्य कहानी

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं