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सत्य के नज़दीक

सत्य के नज़दीक 
बहुत भय होता है 
पकड़ने ही नहीं देता वो सत्य को। 
साहित्य के बाज़ार में 
सत्य के मुखौटों में लहलहाता है झूठ
अभिव्यक्ति की "स्वतंत्रता" 
शब्द की स्वायत्त अर्थवत्ता को देकर चुनौती 
घूमती है रचना धर्मिता के बाज़ार में। 
 
कविता पूर्ववर्ती अर्थों, क्रमों 
और कोटियों से निकल कर 
स्वभाव, रुचि, अनुभूति और संस्कारों
को पार करती बढ़ रही है 
बाज़ार धर्मिता की ओर। 
 
सत्य से साहित्य का सफ़र 
नाद से अनुनाद की आवृति 
झरे पत्तों सी गिरती कवितायें ।
पेशेवर अवांछित  आलोचक 
सब कुछ यंत्रवत अजीवित सा। 
 
लेखक को तलाशते बाज़ार 
और बाज़ार में फँसता लेखक। 
सत्य और साहित्य के दरमियाँ 
बढ़ रहीं हैं दूरियाँ। 
 
गुमशुदा सी अभिव्यक्ति  
दृष्टा और सृष्टा की जगह 
सम्मानों और वाहवाही के स्वर।  
सृष्टि और सम्प्रेषकता हो रही है 
धुँधली और संदिग्ध। 
 
सब कुछ सत्य के नज़दीक होकर भी 
साहित्य के अनुच्छेदों से बहुत दूर 
निष्प्राण और अप्रयोज्य सा।

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