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सत्यवती की सत्यकथा

घड़ी प्रातः ४.५० बजे का समय दिखा रही थी कि गहरी निद्रा से अचानक सत्यवती हड़बड़ाहट में उठी और पास ही में सो रहे पति को 'सुनो जी! सुनो जी!' पुकारती हुई उठाने लगी। यशपाल गूढ़ निद्रा के टूटते ही झट से बिस्तर पर उठ कर बैठ गए और बोले, "हाँ! क्या बात है सत्या? इतनी घबराई हुई क्यूँ हो?"

"सुनिए जी! मैं पुआर1 हो आई।"

"क्या कह रही हो? लगता है कोई स्वप्न देखा तुमने," कहते हुए यशपाल ने बिस्तर के साथ वाले स्विच को दबाकर कमरे की बत्ती जलाई। रोशनी में देखता है कि सत्या की साँस फूली हुई है और चेहरे पर भय व् चिंता के मिश्रित भाव थे। यशपाल ने बिस्तर के साथ सटे मेज़ से पानी का भरा हुआ गिलास पत्नी सत्या के हाथ थमाते हुए कहा, "पहले पानी पी लो और फिर विस्तार से बताओ।"

सत्यवती ने दो घूँट पानी मुँह में भर कर गिलास वापिस मेज़ पर रख दिया। फिर लम्बी साँस भर कर बोली, "जी! मैं जब सो रही थी तब मुझे अचानक ऐसा प्रतीत हुआ जैसे किसी ने मेरे माथे पर हाथ रख दिया। चाहकर भी मैं अपनी आँखें नहीं खोल पा रही थी क्यूँकि वह हाथ माथे के साथ-साथ मेरी आँखों पर भी था। मुझे बंद आँखों से दो श्वेत वस्त्र धारण किए भीमकाय शरीर वाले देवदूत की छवि से पुरुष मेरे सिर के दोनों ओर खड़े दिखे। उन्होंने मुझे उनके साथ चलने का आग्रह किया। ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनके समक्ष मैं मौन अपने ही शरीर से बाहर निकलकर उनके आदेशानुसार साथ हो ली। वे मुझे धरती से ऊपर और ऊपर वायुमार्ग द्वारा ले गए। काफ़ी ऊँचाई पर पहुँचते ही मुझे एक भव्य द्वार दिखा जिस पर हरे राम! हरे राम! लिखा था। जैसे ही वे देवदूत मुझे ले द्वार के समीप पहुँचे तो देखती हूँ कि द्वार के कपाट स्वयं खुल गए। भीतर प्रवेश करने पर एक अतिरिक्त द्वार और फिर एक और अन्य द्वार दिखे जो हमारे प्रवेश मात्र से ख़ुद ब ख़ुद खुलते जाते थे। हर द्वार पर हरे राम! हरे कृष्ण! लिखित था। जैसे ही हम तृतीय द्वार से भीतर प्रवेश किए तो एक दिव्यपुरुष के दर्शन हुए जिन्होंने मुझे देखते ही देवदूतों को क्रोध भरे स्वर में कहा, ’ये किसे ले आए हो? अभी इसका वक़्त नहीं आया। वापिस ले जाओ!’ उस दिव्यपुरुष के वचन सुनते ही दोनों देवदूत बिना कुछ कहे पवन के झोंके समान मुझे अपने संग उड़ा ले गए। अगले ही क्षण मैंने स्वयं को पुनः बिस्तर पर अपने सुप्त शरीर के पास खड़ा पाया। यूँ महसूस हुआ कि पुनः किसी ने मेरे माथे पर हस्त रखा और मुझे अपने शिथिल शरीर में प्राणवायु के संचार की अनुभूति हुई। मैं तुरंत उठ बैठी परंतु वे देवदूत नज़र नहीं आए और फिर मैंने तुरंत आपको उठाया।"

सत्यवती की सारी कथा सुन यशपाल कुछ क्षण मौन रहे और फिर बोले, "सत्या! लगता है कि तुमने गूढ़ निद्रा में कोई स्वप्न देखा है।"

"नहीं जी! यह स्वप्न नहीं था," सत्यवती तुरंत बोली। "मुझे जो आज अनुभूति हुई उसमें स्वयं को अपनी आत्मा से पृथक् होते महसूस किया, इसमें स्वप्न जैसा कुछ न था।"

सत्यवती का ध्यान इन विचारों से हटाने हेतु यशपाल बोले, "देखो प्रातः हो गई है, मैं स्नान कर पूजन-अर्चन की तैयारी कर लूँ। तुम भी भगवती दुर्गा का ध्यान करो तो ऐसे स्वप्न नहीं देखोगी।"

यशपाल उठ कर स्नानागार में चले गए परंतु सत्यवती अभी भी ख़ुद को अर्द्ध जागृत व् अर्द्ध स्वप्नावस्था में महसूस कर रही थी। यशपाल अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए। सत्यवती भी नहा-धो कर रसोईघर में जाने लगी तो सामने से आती बहू ने सास के चरण स्पर्श किए। 

सत्यवती ने बहू को आशीष दिया और साथ ही आंतरिक उत्कंठा को ज़ाहिर कर बोली, "बहू आज मेरे साथ विचित्र घटना घटित हुई।"

बहू ने आश्चर्यचकित पूछा, "क्या हुआ माता जी?"

सत्यवती ने पुनः सारी घटना का विवरण बहू को दिया। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं का हृदय अधिक संवेदनशील होता है। शायद इसीलिए बहू के नेत्रों में सत्यवती को घटना की यथार्थता पर सहमति की प्रतिशतता पति यशपाल की अपेक्षा अधिक दिखी। पूजन-अर्चन और नाश्ते से निवृत्त हो सब आँगन में बैठे थे। यशपाल कुर्सी पर बैठे अख़बार के पृष्ठ पलट रहे थे  और वहीं पास में रखे बिस्तर पर बैठीं सत्यवती और बहू अपने-अपने कार्य में संलग्न थीं। इतने में गाँव के सरपंच हरिसिंह ने मुख्यद्वार से आवाज़ लगाई, "पुरोहित जी! घर पर  ही हो? अंदर आ जाऊँ?"

यशपाल बोले, "आ जाओ सरपंच जी! दरवाज़ा खुला ही है।"

सरपंच जी को अंदर आते देख पास  के कमरे में बैठा उनका छोटा बेटा अंदर से कुर्सी ला कर पिताजी की कुर्सी के समीप रख कर पुनः अंदर चला गया। हरिसिंह और यशपाल चाय के घूँट भरते हुए साथ-साथ में वार्तालाप करने लगे। बातों-बातों में यहाँ-वहाँ की अनेक मुद्दों पर चर्चा हुई। तभी अचानक हरिसिंह बोला, "पुरोहित जी! इन्सान के जीवन का भी कुछ पता नहीं। आज सुबह चुनीराम माँझी की धर्मपत्नी भी चल बसी।"

"कौन चुनीराम?" यशपाल ने दिमाग़ पर थोड़ा ज़ोर डालते हुए पूछा। 

"अरे पुरोहित जी! आप को याद नहीं वे जो दरिया किनारे बस्ती है, उसमें रहता है चुनीराम।"

"हाँ! हाँ! याद आया," यशपाल बोले। 

"उसी चुनीराम की धर्मपत्नी सत्यवती आज प्रातः लगभग ४.३०-५ बजे के बीच चल बसी। सुनने में आया कि बिस्तर पर सोई-सोई ही चली गयी। इतनी शांति से प्राण त्यागना भी हर किसी के भाग्य में कहाँ?"

अवाक् यशपाल ने पत्नी सत्यवती की तरफ़ देखा और फिर बहू की तरफ़। तीनों के चेहरे सफ़ेद और एक लम्बी चुप्पी! 

  1. पुआर= परलोक

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