अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

सौ-सौ चूहे खाकर बिलाव हज को चला

 नर बिलाव मूँछों वाला था। कंजी आँखों वाला अवसरवादी। मक्खन स्वयं चट करने और पदासीन लोगों को लगाने में अग्रणी। नैतिकता और भारतीयता के प्रति कमनिष्ठ। दामपंथ और सलाम पंथ का घोर समर्थक।

शिविरबद्धता का लाभ उठाकर शिखर पुरुष बन बैठा। शीर्ष सम्मान, शिखर पुरस्कार, रूस और चीन की मेज़बानी का आनंद, सभी कुछ हस्तगत किये। कौन सा पुरस्कार था जो उसे अप्राप्त रहा?

दो पाँव वाला नर बिलाव (दो पाँव गुप्त थे)। इस अवसर पन्थी शिविर से सब कुछ ले भगा। सैकड़ों मूषकों को अपने चतुर पंजों से ठिकाने लगाने के बाद सोचा तीर्थ यात्रा क्यों न कर ली जाये?

अब इन पुराने छींकों में रह भी क्या गया है?

उसने कमनिष्ठों की ओर गुर्राकर देखा। उचित अवसर आने पर फ़तवा जारी कर दिया "कम निष्ठा के कारण ही साहित्य और संस्कृति की इतनी हानि हुई है। भले ही अतिनिष्ठों की पंक्ति में न बैठ पाए, वह कम निष्ठों की क़तार से बाहर आ चुका है। उसे पूरा विश्वास है कि उस शिविर के शीर्ष बिंदु से चलकर इस शिविर के शीर्ष बिंदु तक भी वह अवश्य पहुँच जायेगा।

अर्थ और काम उस शिविर ने प्रचुर मात्र में दिए। धर्म और मोक्ष इस शिविर में आकर कमा लेगा। याने शाम को पी, सुबह को तौबा कर ली, रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।

उसकी आत्मा क्षण भर में ही सारे कलंकों को धो लेना चाहती है। उस घाट पर कमनिष्ठ रहकर पूँजी एकत्र की। इस घाट पर धूनी रमाने एक पाँव पर खड़े हुए हैं। लोग उन्हें पहुँचे हुए तपस्वी की तरह देख रहे थे।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

105 नम्बर
|

‘105’! इस कॉलोनी में सब्ज़ी बेचते…

अँगूठे की छाप
|

सुबह छोटी बहन का फ़ोन आया। परेशान थी। घण्टा-भर…

अँधेरा
|

डॉक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची…

अंजुम जी
|

अवसाद कब किसे, क्यों, किस वज़ह से अपना शिकार…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

यात्रा-संस्मरण

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

लघुकथा

कविता-मुक्तक

कविता

हास्य-व्यंग्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं