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सौदागर

उसके पास-पड़ोस की सभी हमउम्र लड़कियाँ अपना-अपना घर बसा चुकी थीं। कई तो उसकी उम्र से चार-पाँच साल छोटी भी थी। वह विवाह के यथार्थ से भली-भाँति परिचित थी। कई बार स्त्रीमुक्ति के बारे में अखबारों में पढ़ती तो उसे मन ही मन बहुत क्रोध आता था। उसकी तो बस एक ही इच्छा थी कि उसके माँ-बाबूजी सदा खुश रहें लेकिन जब भी वे उसे देखते उनके चेहरे पर विषाद की रेखाएँ उभर आती थीं और वे अपनी किस्मत को कोसने लगते थे। वह अच्छी तरह जानती थी कि मध्यम वर्गीय परिवारों की लड़कियाँ समाज द्वारा संचालित होती हैं और उनके माता-पिता भी समाज की रूढ़ियों से ग्रस्त होते हैं। वह हर बार सोचती थी कि बाबूजी से सीधे कहे कि बिना शादी के भी लोग जीते हैं और मेरे विवाह के बारे में परेशान मत होइए, लेकिन वह कहाँ मानने वाले थे। कहीं भी, कोई भी मिलता, तो बस घर आने का न्यौता दे डालते और उसे एक बार फिर बाहरी लोगों के सामने नुमाइश बनना पड़ता था। वह देखने में साँवली थी, लेकिन नैन-नक्श में कोई नुक्स न था। उसका कद भी ठीकठाक था। पिछले पाँचेक साल से किसी प्राइवेट कंपनी में काम कर रही थी और वेतन भी अच्छा ले रही थी। उसके लिए बहुत से रिश्ते आये, लेकिन दुर्भाग्यवश सभी रंग पर आकर अटककर वापस लौट जाते थे। शायद ऐसा भी हो कि कोई भी अपनी बात दिल खोलकर कहने में संकोच करता हो। एक बार एक सज्जन मय माँ-बाप पधारें। वह किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में ऊँचे ओहदे पर थे। उन्होंने लड़की के बायोडाटा के साथ-साथ उसे भी निहारा और उसकी शादी की देरी का कारण भाँप गए। तभी लड़के का पिता बोला- "हमें आपकी लड़की पसंद है, लेकिन एक छोटी-सी शर्त है। यह आपकी इकलौती संतान है और अब आप भी वृद्धावस्था से गुज़र रहे हैं, सो इतने बड़े मकान का आप क्या करेंगे। हमारा लड़का भी तो शादी के बाद आपका ही तो है। आप पहले यह मकान लड़के के नाम कर दीजिए, हमें यह रिश्ता मंजूर है।" यह सुनकर लड़की के माँ-बाप स्तब्ध रह गए।

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