स्वीकार
काव्य साहित्य | कविता सविता अग्रवाल ‘सवि’23 May 2017
नैया पर मैं बैठ अकेली
निकली हूँ लाने उपहार
भव-सागर में भँवर बड़े हैं
दूभर उठना इनका भार
न कोई माँझी न पतवार
खड़ी मैं सागर में मँझदार
फिर भी जीवन है स्वीकार।
राहों में कंटक भरमार
अगणित जलते हैं अंगार
अभिशापों का है भंडार
पग-पग पर मिलती है हार
वृष्टि की पड़ती है बौछार
मंज़िल मेरी दूर अपार
फिर भी जीवन है स्वीकार।
कोई नहीं उन्माद शृंगार
न कोई प्रीत न मनुहार
न गेंदा है न गुलनार
साज न कोई न स्वर-ताल
टूट रहे संयम के तार
सृजन करूँ मैं बारम्बार
फिर भी जीवन है स्वीकार।
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