सीता की व्यथा!
काव्य साहित्य | कविता हनुमान गोप1 Jul 2021 (अंक: 184, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
राम जी का साथ दिया जिसने छाया बन कर,
मायापति के साथ रही जो उनकी माया बन कर।
रावण को इक तिनके से जिसने डरा दिया,
बिना शस्त्र उठाये लंकापति को हरा दिया।
जो साक्षात् लक्ष्मी का अवतार थीं,
वीणा पानी का संपूर्ण सार थीं।
जिनके आशीष से स्वयं हनुमान अमर हुए,
जिनकी इच्छा से अग्नि देव सरल हुए।
धरती से उत्पन्न हुईं, जनक का अभिमान थीं,
मिथिला की वो राजकुमारी अवध का सम्मान थीं।
रावण को राम ने निश्चित ही मारा था,
पर अशोक वाटिका में सीता से पहले ही वो हारा था।
फिर भी सीता को जग ने नहीं स्वीकार किया,
अग्नि परीक्षा लेकर भी उनका केवल तिरस्कार किया।
इक धोबी के कहने पर ख़ूब उपहास हुआ,
राम राजा बने रहे और सीता को वनवास हुआ।
गर्ववती वो देवी थी दुख अपार सहती रही,
पीड़ा स्वयं की स्वयं से ही कहती रही।
धरती से उत्पन्न हुई धरती में ही चली गयी,
जीवन भर दुख सहा अपनों से ही छली गयी।
राम जी का राज था पर नारी का कहाँ मान रहा?
कभी अग्नि परीक्षा कभी वनवास होता सदा अपमान रहा।
अयोध्या ये कलंक कैसे धो पायेगी,
प्रजा यहाँ की चैन से कैसे सो पायेगी।
सरयू की निर्मल धारा भी थम जायेगी,
व्यथा सीता की जब कोई सीता गायेगी।
अवध की पावन भूमि भी शर्मिंदा होगी,
सीता प्रसंग रहेगा जब तक निंदा होगी।
हर युग मे लव-कुश राम का रथ रोकेंगे,
सीता का क्या था दोष, कह कर उनको टोकेंगे।
इन प्रश्नों के आगे नतमस्तक भगवान रहेंगे,
सीता ने सहा था अपमान अब हर युग में राम सहेंगे।
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