शहर
काव्य साहित्य | कविता डॉ. विक्रम सिंह ठाकुर4 Jan 2016
इस शहर में रहने वाले लाखों चेहरे
सब एक से नज़र आते हैं मुझे
नहीं किसी का जैसे कोई वज़ूद
बस चल रहें हैं किसी मशीन की तरह
सब एक से
फ़ुर्सत कहाँ कि मिलें, बैठें, बात करें
हाल पूछें, बात सुनाएँ, दुःख रोएँ
लोग नहीं यहाँ हर गली-नुक्कड़ पे
इश्तिहार मिलते हैं
हर चीज़ का इश्तिहार है यहाँ
मकान, गाड़ी, तेल, साबुन
फ़ोन, डाइपर, कंडोम, वियाग्रा
नहीं है तो बस इश्तिहार इंसानियत का
सब कुछ तो है इस शहर में
फिर भी ये ज़िंदा लोगों का शहर नहीं लगता
यहाँ के रिश्ते इंसानियत के रिश्ते नहीं लगते
यहाँ के न सूरज मे गर्मी है, न चाँद में सुकून
लौटना भी चाहूँ तो नामुमकिन सा लगता है
बन गया हूँ मैं भी एक मशीन का गुमनाम सा पुर्ज़ा
जो चला रहा है इस मशीन को बिना किसी एहसास के
और जो फेंक दिया जाएगा कचरे में ख़राब होने पर
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
नज़्म
कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं