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शक है उन्हें

 आज वह उदास थी। सुंदर गोल मटोल गुड़िया सा चेहरा, दमकता हुआ रंग। हर बार की तरह होठों पर गहरे लाल रंग की लिपस्टिक और माथे पर बड़ी-सी लाल बिंदी। काँधे तक लटकते घुँघराले बाल उसकी सुंदरता को और निखार रहे थे। नयन नक़्श तीखे नहीं थे, पर प्यारी सी मुस्कान गालों में गड्ढे छोड़ जाती थी। ख़ूबसूरती में यदि आज कुछ नदारद थी तो सच्चाई भरी मुस्कान और बेफ़िक्र ठहाका। हमेशा की तरह सबसे मिल-जुल रही थी। लेकिन उसके सारे हाव-भाव में एक बनावटीपन नज़र आ रहा था। आँखों की गहराई में कहीं दूर उदासी झलक रही थी। बिंदास ठहाका मानो ठहरा हुआ था। 

लगभग ४ महीने बाद आज वह लेडीज़ किट्टी में दिखी। सभी महिलाएँ एक दूसरे से गले मिलकर ख़ुशी ज़ाहिर कर रही थीं। सुकन्या ने अपनी जगह पर बैठे-बैठे ही हवा में हाथ लहराकर मुझे ‘हाय’ कहा। मैं पास जाकर उससे हाथ मिलाया और मज़ाकिया लहजे में हल्के से उसके कानों में फुसफुसाई, “सोफ़े को थोड़ा आराम दे दो।” उसने मुस्कुराते हुए कहा, “बीच में फँसी हुई हूँ।” इन लफ्ज़ों का आशय मैं ठीक से समझ नहीं पाई कि वह सोफ़े के बीच में फँसी है या ज़िंदगी के भँवर से अभी तक नहीं निकल पाई है। मैंने मुस्कुराहट के साथ बात को रफ़ा-दफ़ा कर दिया। तंबोला (हाऊजी गेम) खेलने की बारी आई तो सुकन्या ने साफ़ मना कर दिया। “नहीं अमृता आज माफ़ करना, जल्दी जाना है, बेटी कॉलेज से आ जाएगी उसके पहले मुझे घर पहुँचना पड़ेगा।”

मैंने फिर भी उसे टिकट पकड़ाते हुए कहा, “हम जल्दी ख़त्म कर लेंगे, तुम फ़िक्र मत करो, समय से निकल जाओगी।” उसने मेरी बात मान मुझे पचास रुपए दे टिकट तो ले ली पर खेल के बीच में अचानक से उठी और अलविदा कह बाहर की तरफ़ मुड़ने लगी। मेरी प्रश्न भरी नज़रों को देखते हुए वह अपने होंठ मेरे कानों में सटाते हुए कहा, “समझा करो न प्लीज़, घर से फोन आ गया है, जाना पड़ेगा।” और एक रहस्यमयी मुस्कान होठों पर ओढ़े होटल के निकास की ओर बढ़ गई। “सुकन्या एक सेल्फ़ी तो ले लो यार” मैंने उसकी ओर देखा लेकिन वो नहीं पलटी और तेज़ गति से आँखों से ओझल हो गई। 

मैं जानती थी कि वह पारिवारिक समस्या से जूझ रही है। एक दिन उसने मुझसे नौकरी करने की इच्छा ज़ाहिर करते हुए कहा था कि मैं उसके लिए कोई नौकरी देखूँ क्योंकि उसके पति को लगता है कि वह ज़रूरत से अधिक ख़र्च करती है और इसलिए पैसे कम देते हैं। सिर्फ़ मैट्रिक पास होने की वजह से अच्छी नौकरी की अपेक्षा न रख किसी डे-केयर आदि में केयरटेकर की नौकरी भी करने के लिए तैयार थी। पति पत्नी के बीच आये दिन लड़ाइयाँ होती रहती थीं और यह कोई नई बात नहीं है। हर दंपति में वैचारिक मतभेद होता है। परंतु सुकन्या की बातों से लग रहा था कि मामला कुछ और ही है। मैंने उससे फोन पर कारण जानना चाहा। उसने अधिक कुछ नहीं कहा, बस इतना कहा, “नौकरी देखो न अमृता, हसबैंड पैसे नहीं दे रहे, पॉकेट मनी भी नहीं।” कहते-कहते गला भर आया था उसका। एक क्षण रुककर उसने फिर कहा था। “क्या करती हूँ मैं। बस एक किट्टी और कॉलोनी में सुंदरकांड पाठ के लिए जाती हूँ। कभी-कभी कुछ ड्रेस ख़रीद लेती हूँ वह भी साधारण सी। मेकअप के नाम पर एक लिपस्टिक और काजल लगाती हूँ। फिर भी ऐतराज़ है। मेरे तीन बच्चे हैं, उन्हें कुछ चाहिए तो मुझे ही पूछते हैं ना? हर छोटी-छोटी चीज़ों के लिए पापा को तो नहीं पूछेंगे। मैं उन्हें आइसक्रीम तो दूर, एक पेन या पेंसिल तक नहीं दिला सकती। मेरा क्या है, मैं अपनी साज शृंगार सब छोड़ दूँ। बदनामी उन्हीं की होगी। पत्नी को सजा-सँवार के रखना भी पति की ही ज़िम्मेदारी है। इससे उसी का पारिवारिक स्टेटस पता चलता है, इज़्ज़त बढ़ती है। यदि उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता तो मुझे क्या? लेकिन जब बच्चों की छोटी-छोटी माँग भी मैं पूरी नहीं कर पाती हूँ तो मुझे अंदर तक कचोटता है। अंतरात्मा पीड़ित होती है। बेबस सी महसूस करती हूँ। क्या मेरा यहाँ कुछ नहीं? क्या कठपुतली हूँ मैं जो इनके इशारों पे चलती रहूँ?” बात करते-करते रुक गई वह। बातों और आँसुओं के बीच की जंग मुझे स्पष्ट सुनाई पड़ रही थी। इस जंग में स्वाभाविक है बातों को हार माननी पड़ी थी। सिसकियों के बीच एक लंबी सी साँस की आवाज़ आई थी। मद्धिम आवाज़ में सॉरी सुनाई पड़ी और फोन कट गया था। 

कई दिन बीत गए। उसके बारे में बात या चर्चा नहीं हुई। मैं भी परेशान थी कि उसे नौकरी दिलाऊँ या नहीं। कहीं इससे उसकी परेशानी और तो नहीं बढ़ जाएगी। नौकरी खोजने से पहले मैं मसले के तह तक पहुँचना चाहती थी। एक दिन हमारी कॉमन मित्र प्रीति का फोन आया। “अमृता जी सुकन्या का फोन आया था। आपसे बात करनी है लेकिन उसका फोन उसके पति ने छीन लिया है और वह आपसे मिलना चाहती है।” पूछने पर उन्होंने बताया कि उसके पति को लगता है कि उसका किसी के साथ ग़ैर संबंध है। और इस बात को लेकर पूरी सोसाइटी में हंगामा कर दिया है। सुकन्या कहती है वह लड़का सिर्फ़ उसका दोस्त है। असलियत क्या है भगवान जाने। पति से बात करो तो लगता है वे सही बोल रहे हैं और सुकन्या से बात करो तो वह भी ग़लत नज़र नहीं आती। अब सच्चाई क्या है भगवान जाने। पर इतना ज़रूर है कि पति पत्नी का रिश्ता कटघरे में खड़ा है और दोनों ने मिलकर घर को जहन्नुम बना रखा है।” 

हमने अगले ही दिन सुकन्या के घर जाने का तय किया। दूसरे दिन मैं मेरी ख़ास सहेली स्वर्णा जो सुकन्या से परिचित थी उसे लेकर प्रीति के साथ सुकन्या के घर के लिए निकल पड़े। रास्ते में वार्तालाप के दौरान पता चला कि सुकन्या के सारे फोन कॉल रिकॉर्ड किए जा रहे हैं। वह किसी लड़के से बात करती है। पति रोज़ दारू पीकर तंग करता है। न तलाक़ देने के लिए तैयार है और न ही अलग रहने की इजाज़त दे रहा है। घर का सामान भी स्वयं ख़रीदता है और पत्नी को एक पैसा नहीं देता। कहता है कि अलग जाएगी तो बच्चों की फ़ीस भी नहीं देगा। वह सुकन्या को सबक़ सिखाना चाहता है। प्रीति का कहना था कि सौरभ भैया (सुकन्या के पति) भी इतने बुरे नहीं है। स्वनिर्मित इज़्ज़तदार इंसान हैं। अच्छे परिवार से हैं और पेशे से इंजीनियर हैं। सिर्फ़ दारू पीने की गंदी आदत है। सुकन्या की ही अधिक ग़लती है। शादी के २५ वर्ष बाद किसी पराए मर्द से बात करना कौन मर्द बर्दाश्त करेगा। 

गंतव्य पर पहुँचकर हमने गाड़ी पार्क की और तीसरे माले पर पहुँचकर सुकन्या के दो बेडरूम अपार्टमेंट की डोरबेल दबाई। साधारण सी सूती साड़ी पहने माथे पर एक छोटी सी बिंदी लगाए तथा होठों पर हल्की सी मुस्कान के साथ सुकन्या ने दरवाज़ा खोला। बग़ैर काजल और लिपस्टिक के सुकन्या का चेहरा रेगिस्तान के रेत सा प्रतीत हो रहा था। “अरे वाह तुम तो घर में भी सारी पहनती हो!” हमने उसे गले लगाते हुए कहा। 

“हाँ जी मैं घर में अधिकतर सारी ही पहनती हूँ। कभी-कभी ही सूट पहनती हूँ, लेकिन फिर भी हंगामा होता है।” आख़िरी वाक्य में वह फुसफुसाने लगी थी। सहज होने की नाकामयाब कोशिश करते हुए उसने हमें क़रीने से लगे सोफ़े पर बैठने का इशारा किया। अपनी बड़ी बेटी आराधना को हमसे मिलवाया जो इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष में थी और हमारे लिए उसे पानी लाने को कहा। परिस्थिति से सब लोग अवगत थे इसलिए उसे सामान्य करने की कोशिश करते हुए स्वर्णा ने कहा, “सुकन्या परेशान मत हो, सब ठीक हो जाएगा, गिले शिकवे . . .” मानो जैसे किसी ने उसकी दुखती रग पर ऊँगली रख दी हो। “क्या ठीक हो जाएगा स्वर्णा दी? कुछ नहीं होने वाला अब।“ अचानक वह रोष में आ गई। “किसी से बात क्या कर ली तमाशा बना कर रख दिया है मेरी। पूरी सोसायटी में बदचलन क़रार कर दिया है मुझे। सबके सामने ज़लील करता है। मुझसे मिलने वाले सभी मर्दों को मेरे साथ जोड़ता है। मेरे सारे फोन कॉल्स रिकार्ड किए जाते हैं। कुछ सबूत नहीं मिल रहा फिर भी नज़र-बंद कर रखा है।” वह आँसू रोक नहीं पाई, गालों तक लुढ़क ही गए। आँसुओं की परवाह किए बग़ैर उसने बात जारी रखा। “आपको पता है? कल दूर के रिश्ते के देवर हमें समझाने घर आए थे। उन्हें कहते हैं कि ‘तेरे साथ कितनी रात गुज़ारी है सुकन्या?’ वेश्या बना कर रख दिया है मुझे। घिन आ रही है मुझे ख़ुद से। ऐसा लग रहा है मैं सारी दुनिया के लिए उपलब्ध हूँ।” 

हिचकते हुए उसने साँस अंदर किया। हमने उसे ढाढ़स बँधाते हुए उसके लिए भी एक गिलास पानी मँगवाया। आराधना पानी लेकर आई और माँ का चेहरा देखने लगी। उसकी नज़र में बेबसी साफ़ झलक रही थी। हमारे कहने पर सुकन्या ने एक घूँट पानी पीया। 

“आख़िर है कौन वह लड़का?” मैंने जानना चाहा। 

“था एक लड़का, कहीं मिला था। कभी-कभार बात होती थी और मिली भी हूँ उससे एक बार। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि नाजायज़ संबंध है मेरा। दोस्ती नहीं हो सकती क्या? कौन सी किताब में लिखा हुआ है कि शादीशुदा स्त्री किसी को दोस्त नहीं बना सकती?” उसके बारे में मैंने हर बात बताई है ‘उन्हें’। फिर भी समझने के लिए तैयार नहीं। हर बात का अर्थ अलग तरीक़े से निकालेंगे और साबित करेंगे कि मैं ग़लत हूँ।” 

“सिर्फ़ दोस्ती है या प्यार भी करती हो उससे?” मैंने सीधे पूछ लिया। 

“आप भी क्या बात करती हैं दी’। तीन बच्चों की माँ हूँ मैं, भला प्यार कैसे कर सकती हूँ? इतनी समझ है मुझ में। पर हाँ उससे सुख–दुःख बाँटना ज़रूर अच्छा लगता है।”

“उसे तुम्हारे घर के हालात के बारे में पता है?”

“हाँ, सौरभ ने फोन करके धमकाया था उसे।”

“फिर भी बात करता है तुमसे?”

“अब वह भी नहीं करता।”

“बच्चों को पता है?”

“इनकी हरकत से कुछ नहीं छुपा है। बड़ी वाली थोड़ा समझती भी है परंतु रोज़ के हंगामा से सब डरे-सहमे रहते हैं। सौरभ के घर आते ही सब अपने कमरे में छुप जाते हैं।”

“तुम्हें नहीं लगता कि तुम दोनों की लड़ाई में बेचारे बच्चे पिस रहे हैं? कभी सोचा है उनके बारे में कि उनके कच्चे दिमाग़ पर क्या असर पड़ेगा?”

“बच्चों की ही तो परवाह है इसलिए बर्दाश्त कर रही हूँ वरना इस भरी दुनिया में कहीं भी अपना गुज़ारा कर लेती। परंतु अब थक गई हूँ मैं। रोज़ रात को दारू पीकर आना, हंगामा करना, मारना-पीटना यहीं ज़िंदगी हो गई है हमारी। मुझे इस इंसान के साथ नहीं रहना अब। बस हमारा ख़र्चा-पानी दे दें,” एक लंबी साँस ली उसने।

दीवार घड़ी में ३ का घंटा बजा। आराधना ने याद दिलाया कि गोलू और मीठी के स्कूल से आने का वक़्त हो गया। सुकन्या ने आराधना को स्कूटी से जाकर बग़ल के बस-स्टॉप से उन्हें ले आने को कहा। आराधना चाबी लेकर दरवाज़े से निकल गई। 

“आप लोगों से एक ही गुज़ारिश है दी," वह हाथ जोड़े हमारे सामने खड़ी थी। “प्लीज़ हमें सेप्रेशन दिला दीजिए। या तो वे दूसरे घर में चले जाएँ या हमें भेज दें,” आँखों में फिर आँसू भर आए। 

“इतने साल तुम लोगों ने साथ गुज़ारे हैं। छोटी सी बात के लिए इतने सालों का साथ ऐसे ही ख़त्म कर लोगी?”

“और क्या करूँ? मर्द दारू पीकर सोच लेता है कि उसे हर बदतमीज़ी करने का अधिकार मिल गया है और दारू पीने का बहाना भी वह खोज लेता है क्योंकि मर्दानगी तभी याद आती है जब बोतल अंदर उतरती है। थक गई हूँ मैं। कितना सहूँ दीदी? जब सोच ही लिए हैं कि मैं बदचलन हूँ तो अलग क्यों नहीं कर देते मुझे।” 

उसकी बात सुनकर हमें समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे समझाएँ! हमें इस बात की भी जानकारी थी कि सौरभ न उसे तलाक़ देगा और न ही अलग रहकर ख़र्चा-पानी देगा। उसे सबक़ सिखाने के लिए वह सारी संपत्ति भाइयों को देकर कहीं अंडरग्राउंड हो जाएगा। सुकन्या में इतनी क्षमता नहीं है कि बच्चों के साथ अपना भरण-पोषण करे। स्त्री के पक्ष में बने कई क़ानूनों के बावजूद सुकन्या विवश थी।

“अकेले कैसे रह पाओगी? यदि नौकरी भी करोगी तो ख़र्च नहीं उठा पाओगी सबका।”

“रह लूँगी मैं बच्चों के साथ। सिर्फ़ हमारा खाना-ख़ोरिश और बच्चों की फ़ीस दे दें बस।”

“इतना आसान नहीं है सुकन्या। अगर इतना आसान होता तो आज ये नौबत नहीं आती। मर्द अपने ईगो को सैटिस्फ़ाई करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।” 

हमने उसे समझाते हुए कहा कि दुनिया कितना भी मॉडर्न हो जाए भारतीय पति अपनी पत्नी को किसी ग़ैर मर्द से नज़दीकियाँ बढ़ाते हुए नहीं देख सकता और शादी के बाद की दोस्ती का नाम अधिकतर पतियों के शब्दकोष में नहीं है। भारतीय पुरुष का स्वभाव बदलना बहुत मुश्किल है। औरत ही बिगड़ा हुआ घर सँभाल सकती है। उसमें पति को वश में करने की ताक़त होती है। स्त्री की सहन-शक्ति पुरुष से कहीं अधिक होती है। इसलिए वह जननी है। घर को सँभालना स्त्री का ही दायित्व है यदि पुरुष के ऊपर छोड़ दिया जाए तो घर बिखर जाएगा। घर सिर्फ़ पैसे से नहीं, प्यार, अपनापन तथा विश्वास से चलता है। समझौते करने पड़ते हैं। ये ख़ूबियाँ पुरुष रूपी प्राणी में नहीं पाई जातीं। बिखरता हुआ घर स्त्री के लिए कष्टदायी होता है। उसका कोमल मन इसे नहीं पचा पाता इसलिए आज भी अधिकतर स्त्रियाँ ही समझौता करती हैं।

“आप-लोग समझ नहीं रहीं। मैं सब करके थक चुकी हूँ। बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। कैसी-कैसी बातें बोलते हैं आप लोगों को नहीं बता सकती। इतनी ज़लालत में प्यार कहाँ से लाऊँ? और हिम्मत नहीं बची है ज़लील होने की। २५ वर्षों का साथ है परंतु अफ़सोस कि अब तक समझ नहीं पाए मुझे। बग़ैर ग़लती के उनकी तसल्ली के लिए सॉरी तक बोल दिया और उस लड़के से बात नहीं करने का वादा भी किया। फिर भी सुनें तब न! क्या करूँ इन्हें समझाने के लिए? जब सीता ही अपनी पवित्रता सिद्ध नहीं कर पाई तो मैं तो एक आम-सी नारी हूँ जिसकी डोर पूर्णरूपेण पति के हाथ में है . . . ।”

“एक-दूसरे को समझना आसान नहीं है सुकन्या। समय और परिस्थिति के साथ इंसान बदलता रहता है। क्या तुमने कभी सोचा था कि इतने सालों के बाद कोई तुम्हारी ज़िंदगी में आएगा और बसी-बसाई ज़िंदगी में हलचल पैदा कर देगा?”

“तो क्या करूँ मैं? कोई गुनाह नहीं किया है मैंने।” 

“वह तुम जानती हो, पर पति का ईगो इसे स्वीकार नहीं करता। तुम सही हो तो उसे यक़ीन दिलाना भी तुम्हारा ही काम है। तुम्हें पता ही है कि तुम बच्चों के बग़ैर नहीं रह सकती हो। उनकी ज़िम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ सकती। उनके लालन-पालन के लिए तुम्हें पति के साथ रहना पड़ेगा क्योंकि वह तुम्हें अलग नहीं जाने देंगे। तुम्हीं सब ठीक कर सकती हो। ख़ुद के लिए नहीं तो बच्चों के लिए ही सही। इतने सालों के साथ में कहीं न कहीं प्यार भी होगा ही न। तुम चाहोगी तो सब ठीक हो जाएगा।”

पैर मोड़े टखनों पर कोहनी जमाए दोनों हथेलियों के बीच में चेहरा दाबे हुए वह दीवान पर कुछ देर चुपचाप बैठी रही। डबडबाई हुई नज़र सामने वाली खिड़की के बाहर थी जहाँ से बग़ल वाले मकान की ढही हुई इमारत नज़र आ रही थी। एक लम्बी साँस ली उसने और आँखें पोंछते हुए कहा, “मुझे समझ में नहीं आता कि सब मुझे ही क्यों समझाते हैं। आप लोगों से मैंने कुछ और ही उम्मीद लगा रखी थी। लेकिन ठीक है, आप लोग कहती हैं तो मैं तैयार हूँ समझौते के लिए भी। सब सह लूँगी, लगा लूँगी मुँह पर ताला, बर्दाश्त कर लूँगी सारे ताने और गलालतें पर प्यार-व्यार की बातें मत कीजिए मुझसे। नहीं हो पाएगा अब। इतना सब होने के बाद मैं ख़ुद को उनके हवाले नहीं कर सकती।”

“तुम उसकी फ़िक्र मत करो। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा,” प्रीति ने समझाने की कोशिश की। पता नहीं हमारी बातों से वह कितनी प्रभावित हुई परंतु उसके हाव-भाव में हमने सकारात्मकता की रोशनी खोज ली। 

मैंने सौरभ जी को बुलाने के लिए उन्हें फोन मिलाया। पहले तो उन्होंने फोन नहीं उठाया पर कई बार कोशिश करने के बाद उन्होंने जवाब दिया और आधे घंटे के अंदर आने का वादा भी किया पर सुकन्या को फोन कर इस पंचायत के लिए ताना देना भी नहीं भूले। इतने में धड़धड़ाते हुए भाई और बहन के साथ आराधना घर में दाख़िल हुई। पल भर के लिए भूचाल सा आ गया। गोलू ने बस्ता दीवान पर फेंका और सीधे माँ के गले से लटक गया।

“अरे रे बस भी कर गोलू! अब उतने भी छोटे नहीं हो! यू आर इन एट्थ नाऊ ! आँटी लोगों से मिलो!” सुकन्या उसे प्यार करते हुए बोली। पल भर के लिए ऐसा लगा जैसे उसके सारे दुःख-दर्द दूर हो गए। गोलू ने हमारी तरफ़ देखा और शर्माते हुए माँ के कान में कुछ कहा। 

“ठीक है, कपड़े रखे हुए हैं रूम में, जाकर कपड़े बदल लो और खाना खाओ बाक़ी की बातें बाद में करेंगे,” एक प्यारी सी पप्पी देकर वह रूम में घुस गया।

घर का माहौल थोड़ा बेहतर अवश्य था परंतु हवा में अभी भी भारीपन था। इसी बीच आराधना ने समोसे और लस्सी हमें लाकर दीं। हमलोग ज़ायक़े का आनंद लेने लगे। खाते-खाते सुकन्या को समझाने की कोशिश भी कर रहे थे कि थोड़ा धैर्य से काम ले। हम उससे वादा लेना चाह रहे थे कि वो कम से कम अपनी तरफ़ से लड़ाई के हालात पैदा न करे। परंतु सुकन्या के साथ-साथ हम सब अंदर से डरे हुए थे कि पता नहीं सौरभ जी का व्यवहार कैसा होगा। हमने सुना था कि सुकन्या की सहेलियों के साथ भी वे ठीक से पेश नहीं आते क्योंकि उन्हें लगता है कि सहेलियाँ सुकन्या को भड़काती हैं। इतने में बालकनी से कुछ फड़फड़ाने की आवाज़ आई। एक कबूतर लोहे के ग्रिल में फँसे पंख को आज़ाद करने की कोशिश कर रहा था। कुछ देर की जद्दोजहद के बाद वह उड़ने में सफल हो गया परंतु पंख को घायल होने से नहीं बचा पाया। उसकी क़ुर्बानी मुझे सोचने पर मजबूर कर रही थी। 

दरवाज़े की घंटी बजी। सुकन्या ने आराधना से कहकर बच्चों के लिए रूम में टीवी चालू करवा दिया। आराधना ने दरवाज़ा खोला और झट से रूम की ओर लपक गई। सौरभ कुमार घर के अंदर प्रवेश किए। एक मीडियम क़द-काठी का इंसान। उम्र कोई ५० के आस-पास होगी लेकिन चेहरे की झुर्रियाँ ६० की बता रहीं थीं। इन झुर्रियों की ज़िम्मेदार शराब थी या घर का माहौल कहना मुश्किल था। औपचारिक नमस्कार-पाती के बाद वे दीवान पर बैठ गए। सुकन्या ने उनके लिए पानी का ट्रे दीवान पर ही रख दिया। समय का ध्यान रखते हुए हमने सीधे विषय पर आना उचित समझा।

“सौरभ जी आपको पता ही होगा कि हम क्यों आए हैं? काफ़ी दिनों से आना चाह रहे थे लेकिन इस परिस्थिति में नहीं . . .”

“इसी से पूछना था, परिस्थिति भी इसी ने पैदा की है और आप-लोगों को बुलाया भी इसने  ख़ुद है। इसी से पूछिए न कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या क्या कर रही है, मेरा सुख चैन हराम कर रखा है। यहाँ तक कि ऑफ़िस के काम में भी मन नहीं लगता। मैं कमज़ोर दिल का नहीं हूँ मैडम, कोई और होता तो पता नहीं अब-तक क्या कर लिया होता। या तो ख़ुद आत्महत्या कर लिया होता या इसे ज़हर दे देता . . .।”

सुकन्या दीवान से उठकर सोफ़े पर आ चुकी थी। बग़ैर प्रतिक्रिया के पति की बातें सुन रही थी। सौरभ जी का बोलना जारी था।

“क्या क्या नहीं किया इसके लिए। हर चीज़ की आज़ादी दी। कभी कोई सवाल नहीं किया। अब लग रहा है ज़रा ज़्यादा ही उड़ा दिया इसे। पर लगने ही नहीं देना चाहिए था। ग़लती हो गई . . .।” 

सोच में पड़ गई मैं। कब तक पति अपनी पत्नी के हक़ को एहसान के तराज़ू पर तौलता रहेगा। पर हम उनका रिश्ता सँभालने आए थे इसलिए अपने मस्तिष्क को अधिक सोचने से रोक लिया। 

“कोई ग़लती नहीं हुई है आपसे, पत्नी अर्द्धांगिनी होती है उसे भी बराबर का हक़दार होना चाहिए न . . .!” मैंने बीच में ही टोका।“इन तमाशों से आपकी ही बदनामी हो रही है समाज में। सुकन्या का क्या है, वह घर में होती है, उसके कानों में बातें आते-आते आएँगी लेकिन आपका दायरा काफ़ी बड़ा है। घर की बातें घर में रहें तो अच्छा है। आप ही एक बार सोचिए। १६ वर्ष की उम्र से सुकन्या आपके साथ शादी-शुदा ज़िंदगी व्यतीत कर रही है। कभी शिकायत का अवसर दिया क्या?” एक तरह से आपने गढ़ा है उसको। आप दोनों समझदार हैं सौरभ जी। छोटी सी बात है। हो गई किसी से दोस्ती . . .” 

“. . . दोस्ती!” अचानक तैश में आ गए वे। “इस उम्र में दोस्ती का क्या मतलब है मैडम? क्या शादी करेगी उससे? मुझमें क्या कमी है वो भी तो बताए! सेल्फ़ मेड आदमी हूँ। एक दारू पीने की आदत है और वह भी शादी के समय से ही। पूछिए आप इस औरत से। इसी ने अपनी माँ से कभी मेरे लिए झगड़ा किया था और कहा था कि तू अपने बेटों को सँभाल, मेरे पति के दारू पीने की फ़िक्र न कर, उनके लिए मैं काफ़ी हूँ। मेरे परिवार में ताका-झाँकी मत कर। अब अचानक से एक दोस्त आ गया है जिसके लिए मुझसे अलग होकर ऐश करना चाहती है और वह भी मेरे पैसों पर।”

हमारी उम्मीदों के विपरीत सुकन्या अभी भी चुप थी। सौरभ जी क्षण भर के लिए रुके और घर में नजर दौड़ाने लगे – “ये घर देख रही हैं न! सारा सामान बिखरा होता है। इसे बेहतर तरीक़े से रख सकती है। इधर-उधर दिमाग़ लगाने से अच्छा है कि घर का और बच्चों का ध्यान रखे,” उन्होंने किचन की ओर इशारा करते हुए कहा।

सुकन्या अब बर्दाश्त नहीं कर पाई। 

“मतलब क्या है आपका? क्या कमी दिख रही है इस घर में? और बाल-बच्चों की देखभाल कौन करता है? आपको पता भी है कि कौन क्या पढ़ रहा है, कितने नम्बर ला रहे हैं? फ़ीस भरने के अलावा कोई मतलब है आपको? दूसरों को बोलने से पहले अपनी ख़ुद की गिरेबान में झाँक कर देख लीजिए सौरभ। घर से ग़ायब हो जाते हैं और फोन बंद कर लेते हैं। कभी हमें बाहर नहीं ले जाते। अपनी मस्ती तो कर ही लेते हैं दोस्तों के साथ। हमारी फ़िक्र क्यों होगी आपको? थोड़े से दोस्त हैं उनसे भी कष्ट है। मैं हँसू बोलूँ भी न! दम घुट के मर जाऊँ तो शायद आप ख़ुश होंगे . . .!”

मैं सुकन्या को चुप कराने की कोशिश करने लगी। मुझे डर था कि कहीं झगड़ा-लड़ाई की नौबत न आ जाए। मैंने घर में नज़र दौड़ाई। सब कुछ क़रीने से लगा हुआ था। धूल भी नहीं दिख रही थी। बाथरूम भी साफ़-सुथरा ही दिखा था।

“अब जाने भी दीजिये इन छोटी-मोटी बातों को। ख़त्म कीजिए ये सब,” मैंने बात को आगे बढ़ाया। 

“मैं ख़त्म कर दूँगा, पहले मुझे यक़ीन दिलाए कि उस लड़के से न मिलेगी और न ही बात करेगी। फ़ेसबुक पर फोटो लगाने की क्या ज़रूरत है? बार-बार व्हाट्सएप का स्टेटस बदलती है। सेल्फ़ी लेकर डालती रहती है। क्या यह सब करने की उम्र है इसकी! ४० साल की बुड्ढी हो चुकी है। दुनिया भर के फ़्रेंड्स रखी है और मुझे ब्लॉक कर रखा है।”

एक इंजीनियर के मुँह से इस तरह की बातें सुनकर मुझे हँसी आ गई। बड़ी मुश्किल से हँसी पर क़ाबू पाते हुए मैंने कहा, “ये सब आजकल आम बात है सौरभ जी। आपको पता नहीं है क्या?” मुस्कुराहट रोक नहीं पाई मैं। 

“फिर फोन में पासवर्ड क्यों लगाती है? और फोन के लिए इतनी बेचैन क्यों रहती है? फ़ेसबुक पर मुझे ब्लॉक करके क्यों रखा है?” इतने कपड़े हैं इसके पास पर मेरे सामने एक नहीं पहनती। मैं भी चाहता हूँ कि सुंदर दिखे, अच्छे कपड़े पहने। लेकिन सिर्फ़ मेरे लिए, किसी और के लिए नहीं।”

“मतलब क्या है आपका, मैं हमेशा ही ऐसी थी। कभी नोटिस करते तब तो पता चलता। और एफ बी से क्यों न ब्लॉक करूँ? मेरे वॉल पर जाकर कुछ भी पोस्ट कर देते हैं। मेरा मज़ाक उड़ाते हैं। पब्लिक प्लटेफार्म पर भी रिश्तों का मज़ाक बना रखा है,” सुकन्या ने ताने देते हुए कहा। वह बीच-बीच में ग़ुस्से से तिलमिला रही थी परंतु मेरा बोलना कि ‘अगर तुम लोग लड़ाई करोगे तो हम चले जाएँगे’ असर दिखा रहा था। वह चुप लगा गई। 

मैं सोचने पर मजबूर थी कि क्या सचमुच इतने वर्षों की शादी में सौरभ जी को अब एहसास हो रहा है कि सुकन्या क्या पहन रही है और कैसी दिख रही है?

“देख रही हैं आप लोग ! बूढ़ी हो रही है पर बाल काला करवा कर जवान दिखना चाहती है और दूसरी ओर बेटी काले बाल को भूरा करने पर तुली हुई है। ये भी कोई बात हुई?” 

अब हँसी रोकना नामुमकिन था। हॉल सामूहिक ठहाकों से गूँज गया। हमने महसूस किया कि सौरभ जी काफ़ी हद तक अपना भड़ास निकाल चुके थे। चेहरे की शिकन में कमी नज़र आ रही थी। सौरभ जी के बातों से हमें इतना समझ में आ गया कि उन्हें सुकन्या के प्रति असुरक्षा की भावना है और इसकी ज़िम्मेदार दोनों के उम्र में अंतराल और सुकन्या की ख़ूबसूरती है। स्थिति का जायज़ा लेते हुए हमने अपनी बात रखी। 

“अब हो गया न सौरभ जी! दाम्पत्य जीवन कोई खेल नहीं है। इसमें भी कई पड़ाव आते हैं। एक दूसरे को समझने के लिए पूरी ज़िंदगी कम पड़ती है। आपकी गढ़ी मिट्टी की गुड़िया को पर अवश्य लगे हैं लेकिन उड़ने में भी उसे आपका ही सहयोग चाहिए होगा। आपको भी देखना है कि उसके पंख कमज़ोर न पड़ जाएँ। आप दोनों समझदार हैं। रिश्ते में थोड़ी दरार ज़रूर पड़ गई है लेकिन प्यार अभी भी बरक़रार है। थोड़ा कोशिश करेंगे दरारें पट जाएँगी। आप दोनों को एक दूसरे की सपोर्ट की आवश्यकता है। एक दूसरे को ताने देना बंद कर प्यार से रहने की कोशिश कीजिए। हो सके तो कुछ दिनों के लिए कहीं छुट्टी पर हो आइए। मुझे विश्वास है कि गिले-शिकवे दूर हो जाएँगे।” 

“ये ना-समझ औरत सोचती है कि मैं डिवोर्स दे दूँगा और इसका ख़र्च उठाऊँगा। मेरी सैलरी की हक़दार ख़ुद को मानती है। इसे समझाइए ज़रा कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला। सबसे पहले तो मैं इसे डिवोर्स ही नहीं दूँगा। दूसरी बात ये कि मेरी सरकारी नौकरी नहीं है। मैं चाहूँ तो कल ही नौकरी छोड़ दूँ। फिर काहे की सैलरी और काहे का मेंटेनेंस। एक पैसा नहीं मिलेगा इसे,” एक लम्बी साँस ली उन्होंने। 

“ठीक है, मैं मान लेता हूँ आपकी बात। यह कोशिश करेगी तो मैं भी कोशिश करूँगा सब ठीक करने की।” 

“पहले इन्हें बोलिए कि मेरा फोन वापस करें और मेरे कॉल्स रिकॉर्ड करना बंद करें,” सुकन्या ने कहा। 

“फोन मैं दे दूँगा, सोशल मीडिया से भी नहीं रोकूँगा लेकिन जब तक मुझे भरोसा नहीं होगा मैं रिकॉर्ड करता रहूँगा।” 

हमने सुकन्या को समझाया कि जब तुम ग़लत ही नहीं हो तो क्या फ़र्क़ पड़ता है। कर लेने दो उन्हें तसल्ली। 

मन से या बेमन से पता नहीं पर सुकन्या राजी हो गई। 

“और इसे बोलिए कि मुझे फेसबुक पर अनब्लॉक करे,” सौरभ जी ने एक और शर्त रखी। 

“पहले वादा करना पड़ेगा कि वहाँ पर कोई वाहियात कॉमेंट नहीं करेंगे।”

इस बार सौरभ जी को शर्त माननी पड़ी। 

“बच्चे आ गए?”

“हाँ रूम में टीवी देख रहे हैं।”

“आते ही रूम में क्यों बंद हो गए? मिलवाना था न इन लोगों से .... ”

“...मिल चुके हम लोग, बड़े प्यारे बच्चे हैं,” मैंने टोकते हुए कहा। 

“हम लोग बात कर रहे थे इसलिए उन्हें अंदर जाने को कहा,” सुकन्या ने भी सफ़ाई पेश की। 

हमें उन दोनों के बीच का वार्तालाप अच्छा लग रहा था। सौरभ जी आश्वस्त नजर आ रहे थे। हमने भी राहत की साँस ली। 

“इन लोगों को कुछ खिलाया या सिर्फ़ पंचायत के लिए ही बुलाया था,” उन्होंने हमारी ओर इशारा करते हुए कहा। 

“जी, थैंक यू सौरभ जी, हमने बहुत सारा खाया है,” मैंने मुस्कुराते हुए कहा। 

“हम अगली बार आएँगे तो बहुत अच्छे कंडीशन में आप-लोगों को देखना चाहेंगे।” स्वर्णा ने कहा। 

“आप-लोग अगली बार मुझे बता कर आइए, आपके लिए मैं अपना वाला स्पेशल अंडा-पालक की सब्ज़ी खिलाऊँगा....” 

“... वह आपकी नहीं मेरी डिश है," सुकन्या ने उन्हें बीच में टोका। “पता है दी? मैं अच्छा-अच्छा डिश बनाकर रखती हूँ और ये फोटो खींचकर व्हाट्सएप ग्रुप में अपने नाम से पोस्ट कर देते हैं।” रुआँसा सा चेहरा बनाते हुए सुकन्या ने शिकायत भरे लहजे में हम सबकी ओर इशारा किया। उसकी इस मधुरता भरी शिकायत पर हम सब मुस्कुरा दिए। सौरभ जी भी मुस्कुराहट रोक नहीं पाए। 

काफ़ी देर हो गई थी। हमलोगों ने जल्दी से चाय खत्म की और घर वापसी की तैयारी में जुट गए। दोनों, दंपती हमें नीचे तक विदा करने आए। मैंने अपनी गाड़ी का दरवाज़ा अनलॉक कर प्रीति और स्वर्णा को बैठने का इशारा किया।

“लगता है पीछे से आपने किसी को मारा है,” सौरभ जी ने गाड़ी के पिछले हिस्से की ओर इशारा करते हुए कहा। 

“नहीं, मैंने तो कभी नहीं मारा मगर दूसरे ज़रूर मार देते हैं,” मैंने मुस्कुराते हुए सफ़ाई पेश की।

“हाँ लोग भी शराफ़त का नाजायज़ फ़ायदा उठाते हैं,” उन्होंने चुटकी ली। 

मैंने गाड़ी स्टार्ट कर विदा ली। गाड़ी की गति के साथ-साथ मेरा मन भी गतिमान हो रहा था। न चाहते हुए भी मस्तिष्क यह सोचने पर मजबूर था कि आख़िर बात क्या है? क्या सुकन्या का गुनाह वाक़ई इतना बड़ा है जिसकी सज़ा वह भुगत रही है? क्या इस रिश्ते में सिर्फ़ सुकन्या की ग़लती है या पति भी ज़िम्मेदार है? क्या सौरभ जी को इस बात की जलन है कि जो उन्होंने पुरुष होते हुए नहीं किया वह सुकन्या ने किया? यदि उनका संबंध किसी पराई स्त्री के साथ होता तो क्या वे वाक़ई में सुकन्या को माफ़ कर देते? ऐसा कहा जाता है कि यदि मर्द अवैध रिश्ते में पड़ता है तो एक बार माफ़ भी किया जा सकता है परंतु औरत को नहीं किया जा सकता। क्या इसका अर्थ यह हुआ कि यदि सौरभ सुकन्या को माफ़ कर देते हैं तो उनका बड़प्पन होगा और यदि सुकन्या उन्हें माफ़ करती तो वह उसका फ़र्ज़ होता? क्या सुकन्या को जीवन भर पति के ताने चुपचाप बर्दाश्त करना उसका फ़र्ज़ होना चाहिए क्योंकि वह पति का अधिकार है और उसका एक मित्र बनाना वाक़ई में अक्षम्य अपराध है? आख़िर रिश्ते बनाए रखने के लिए स्त्री कब तक स्वाभिमान को ताक़ पर रखकर समझौते करती रहेगी? इस प्रकार के न जाने कितने अनबूझ पहेली को मेरा मस्तिष्क सुलझाने की नाकामयाब कोशिश कर रहा था। 

कार में हम तीन थे फिर भी एक सन्नाटा पसरा हुआ था। कार गलियों में बाएँ–दाएँ मुड़ती हुई गंतव्य की ओर बढ़ रही थी। सुकन्या एवं सौरभ के रिश्तों को सुलझाने की हमारी छोटी सी कोशिश आज कामयाब हुई। इस सोच में डूबे हुए हम सब कार के साथ चलते जा रहे थे और मन में उठे प्रश्नों को नज़रअंदाज़ कर ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि उनका रिश्ता फिर से पहले की तरह हरा-भरा बन जाए। हमें नहीं पता था कि हमने सही किया या ग़लत बस इस बात का संतोष अवश्य था कि एक टूटते हुए घर को जोड़ने में कामयाब हुए और एक स्त्री को एक बार फिर अपनी तथाकथित भारतीय परंपरा और संस्कार को बलि चढ़ाने से बचाया। भले ही उसे स्वयं इस वेदी कि आहुति क्यों न बनना पड़े! 

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