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शक्ति और अभिव्यक्ति

नव-रात्र आ गये है! नवधा शक्ति के धरती की चेतना में अवतरण का काल! अंतःकरण में दैवी भाव के स्फुरण और अनुभवन का काल! आकाश प्रकाशित, दिशायें निर्मल, पुलकभरा पुण्य समीर, जल की तरलता जीवनदायी शीतलता से युक्त सूर्य की प्रभायें तृण-तृण को उद्भासित करती हुई। दिव्य ऊर्जा के अबाध संचरण का काल, अंतश्चेतना के पुनर्नवीना होने की पावन बेला! साक्षात्कालरूपिणी, जगत् की क्रियात्मिका वृत्ति की संचालिका और समस्त विद्याओं, कलाओं में व्यक्त होने वाली ज्ञान स्वरूपिणी, महा शक्ति का पदार्पण, जो पञ्चभूतों को निरामय करती हुई चराचर में नई चेतना का संचार करने को तत्पर है।

स्वरा - अक्षरा जहाँ एक रूप हो सारी मानसिकताओं के मूल में स्थित हैं उस सर्व-व्याप्त परमा-शक्ति को सादर प्रणाम! उस चिन्मयी के आगमन का आभास ही मन को उल्लासित करता है और उसके रम्य रूपों का भावन चित्त को दिव्य भावों से आपूर्ण कर देता है! फिर विचार उठता है केवल मन-भावन रूप ही रम्य क्यों? वे विकराल रूप जिन्हें वह परम चेतना आवश्यकतानुसार धारण करती है, क्या कम महत्व के हैं। उन में भी मन उतना ही रमने लगे तो वे भी रम्य प्रतीत होंगे। वे प्रचंड रूप जो और भी आवश्यक हैं सृष्टि की रक्षा और सुचारु संचालन के लिये उन्हें पृष्ठभूमि में क्यों छोड़ दें। कृष्णवर्णा, दिग्वसना, मुण्डमालिनी भीमरूपा भयंकरा! वह भी एक पक्ष है, जिसके बिना सृष्टि की सुरक्षा संभव नहीं, कल्याण सुरक्षित नहीं। अपने ही हिसाब से क्यों सोचते है हम! जो अच्छा लगता है उतना ही स्वीकार कर समग्रता से दृष्टि फेरना क्या पलायन नहीं है? संसार के विभिन्न पक्ष हैं सबके भिन्न गुण हैं। अलग-अलग भूमिकाओं में व्यक्त होनेवाली मातृशक्ति प्रत्येक रूप में वन्दनीया है। वह अवसर के अनुरूप रूप धरती है और अपनी विभूतियों में क्रीड़ा करती हुई नित नये रूपों में अवतरित होती है।

वह सर्वमंगला सारे स्वरूपों में मनोज्ञा है, पूज्या है, उसके सभी रूप महान् हैं, जगत् के लिये काम्य और कल्याणकारी हैं। अपने सुख और सीमित स्वार्थ से ऊपर उठ समग्रता में देखें तो यहाँ कुछ भी अनुपयोगी नहीं, कुछ भी त्याज्य नहीं, यथावसर सभी कुछ वरेण्य है। उन सारे रूपों द्वारा ही उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है।

सौन्दर्य और रम्यता की हमारी धारणा संतुलित नहीं रह पाती। रौद्र- भयंकर के विलक्षण और भव्य सौन्दर्य की अनुभूति हृदय में दीर्घ तरंगों के आवर्त रच देती है। भयावहता के रस का स्वाद चेतना को उद्वेलित करता है झकझोरता है। पर उसे वही ग्रहण कर पाता है जो प्रकृति के भयंकर रूपों के साथ स्वयं को संयोजित कर ऊर्जस्वित हो सके। जो जीवन के तारतम्य में मृत्यु को सहज सिरधार सके। रौद्र की भयंकरता से जान बचाकर भागने के बजाय कराल कालिका की क्रूरता के पीछे छिपी करुणा की अंतर्धारा का भावन कर आह्लादित हो सके। उसके विलक्षण रूप के साक्षात् का साहस रखता हौ,और वीभत्स को कुत्सित समझने स्थान पर उसमें छिपी विकृतियों के मूल तक जा सके। कुछ प्राणी ऐसे भी होते हैं जो बिजलियों की कौंध और गरजते आँधी तूफ़ान से घबरा कर कमरे में दुबकने के बजाय -सामने आ कर प्रकृति मे होते उस ऊर्जा-विस्फोट से उल्लसित होते हैं उसे अन्तर में उच्छलित आवेग के साथ जीना चाहते हैं। ऐसे लोगों को कोई सिरफिरा समझे तो समझे पर उनकी उद्दाम चेतना जिस विराट् का साक्षात्कार करना चाहती है उसे समझाया नहीं जा सकता। ऐसे ही लोग मृत्यु को भी जीने मे समर्थ होते हैं।

केवल अपनी प्रसन्नता के लिये माँ की सम्पूर्णता को उसके विराट् स्वरूप को पृष्ठभूमि में क्यों छोड़ दें! वह भी एक पक्ष है, जिसके बिना सृष्टि की सुरक्षा, उसका कल्याण संभव नहीं। हम चाहते हैं अपने ही हिसाब से जो हमें अच्छा लगे वही ग्रहण करे सिर्फ़ वही क्यों? मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू! फिर कड़ुआहट कहाँ जायेगी? एक साथ इकट्ठा होकर जला डालेगी। इससे अच्छा है दोनों में संतुलन बैठा लिया जाय। अलग-अलग भूमिकाओं में प्रकट होनेवाली चिन्मयी, मंगलमयी के लीला लास के सभी रूप श्रेयस्कर हैं। संकुचित मनोभावना से ऊपर उठ समग्रता में देखें तो वही सर्वव्याप्त महा-प्रकृति है यहाँ कुछ भी अनुपयोगी नहीं, कुछ भी त्याज्य नहीं, यथावसर सभी कुछ वरेण्य है। उन सारे रूपों द्वारा ही उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है। इसीलिये उसका एक नाम व्याप्ति है।

माँ तो माँ है! प्रसन्न होकर स्नेह लुटायेगी तो कुपित होने पर दंडित भी करेगी, दोनों ही रूपों में मातृत्व की अभिव्यक्ति है। अवसर के अनुसार व्यवहार ही गृहिणी की कुशलता का परिचायक है, फिर वह तो परा प्रकृति है विराट् ब्रह्माण्ड की, संचालिका - परम गृहिणी। उस की सृष्टि में कोई भाव कोई रूप व्यर्थ या त्याज्य नहीं। समयानुसार प्रत्येक रूप और प्रत्य्क भाव आवश्यक और उपयोगी है। भाव की चरम स्थितियाँ -ऋणात्मक और, धनात्मक -कृपा-कोप, प्रसाद-अवसाद, सुखृदुख ऊपर से परस्पर विरोधी लगती हैं, एकाकार हो पूर्ण हो उठती हैं। उस विराट् चेतना से समरूप - वही पूर्ण प्रकृति है। उसका दायित्व सबसे बड़ा है अपनी संततियों के कल्याण का। हम जिसे क्रूर -कठोर समझते हैं अतिचारों के दमन के लिये वह रूप वरेण्य है।

'अव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्माद्या'

देवी के सभी रूप सृष्टि की स्थति के लिये हैं, जीवन के किसी न किसी पक्ष की बड़ी गहरी अंतर्दृष्टि देते हुये। संसार की सारी स्त्रियों के सारे रूप इस एक दैवी शक्ति में समाहित हो जाते है। नारीत्व अपने संपूर्म रूप में व्यक्त होता है। जगत् की सब नारियों में वह मातृशक्ति व्यक्त हो रही है। और इसे इस प्रकार वर्णित किया है -

'विद्याः समस्ता स्तव देवि भेदाः

स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु

त्यैकया पूरतमम्बयैतत्

का ते स्तुतिः स्तव्य परा परोक्तिः'

उसका एक अलौकिक पक्ष है और दूसरा लौकिक।

एक ही चेतना के प्रकृति और परस्थिति के संयोग से कितने रूप निर्मित होते हैं यह अवधारणा देवी के स्वरूपों में व्यक्त हुई है उसकी व्याप्ति सत् की परम अवस्था से तम की चरम अवस्था तक है एक ओर शुद्ध सात्विक सरस्वती और दूसरी सीमा साक्षात् तमोगुणा महाकाली। इनके मध्य में स्थित हैं महालक्ष्मी - रजोगुण स्वरूपा। दो विरोधी लगनेवाले गुणों के संयोग से रचित, द्विधात्मिका सृष्टि का पोषण करती हुई। अपने सूक्ष्म रूप में वह वाक्, परा-अपरा, सभी विद्याओं में, कलाओं में, ज्ञान-विज्ञान में सरस्वती है। वह स्वभाव से करुणामयी है अपने प्रतिद्वंद्वी के प्रति भी दयामयी।

महादैत्य पहचानता नहीं है इस शक्ति को, उसके वास्तविक स्वरूप को, और उसे वशवर्तिनी बनाना चाहता है, अपनी लिप्सापूर्ति के लिये अपने अहं को तुष्ट करने के लिये। शुम्भ या निशुम्भ की भार्या बनने के प्रस्ताव का कैसा प्रत्युत्तर -वह घोषणा करती है मैं पहले ही प्रण कर चुकी हूँ, 'जो युद्ध में मुझे जीत सके, जो मुझसे अधिक बलशाली हो मैं उसी की भार्या हो सकती हूँ।'

यही है नारीत्व की चिर-कामना कि उसके आगे समर्पित हो जो मुझसे बढ़ कर हो। इसी मे नारीत्व की सार्थकता है और इसी में भावी सृष्टि के पूर्णतर होने की योजना। असमर्थ की जोरू बन कर जीवन भर कुण्ठित रहने प्रबंध कर ले, क्यों? पार्वती ने शंकर को वरा, उनके लिये घोर तप भी उन्हें स्वीकीर्य है। शक्ति को धारण करना आसान काम नहीं। अविवेकी उस पर अधिकार करने के उपक्रम में अपना ही सर्वनाश कर बैठता है। जो समर्थ हो, निस्पृह, निस्वार्थ और त्यागी हो, सृष्टि के कल्याण हेतु तत्पर हो, वही उसे धारण कर सकता है- साक्षात् शिव। नारी की चुनौती पाकर असुर का गर्व फुँकार उठता है, अपने समस्त बल से उसे विवश कर मनमानी करना चाहता है। वह पाशविक शक्ति के आगे झुकती नहीं, पुकार नहीं मचाती कि आओ, मेरी रक्षा करो! दैन्य नहीं दिखाती -स्वयं निराकरण खोजती है - वह है पार्वती। उन्हें बचाने शिव दौड़ कर नहीं आते। स्वयं निराकरण करने में समर्थ है -वह साक्षात् शक्ति है। शिव, जगत की शुभाशंसा, को दूत बना कर भेजती है - शायद असुर चेत जाये।

शक्ति कभी परमुखापेक्षी विवश निरीह और अश्रुमुखी नहीं हो सकती। देवी जानती हैं शिव ध्वंसक भूमिका में उतर आये तो प्रलय निश्चित है -जला डालेंगे अपनी क्रोधाग्नि में सबको।सृष्टि बचे या न बचे। वह स्वयं आगे बढ़ युद्ध-यज्ञ में आहुतियाँ देती हैं मत्त नर की मूढ़ता की उसकी पशुवत् लिप्साओं की और उसके अहंकार की। दुर्दम रक्तबीज का शोणित पान कर शेष सृष्टि को निर्भय करती है। जिसके रक्त की एक बूँद भी शेष रह जाये तो सारी सृष्टि का सुख-चैन दाँव पर लगा रहता है जिसके अस्तित्व की एक कणिका भी धरती पर बची रहे तो नई-नई आवृत्तियाँ रच लेती है।उसकी जीवनी-शक्ति को संपूर्ण रूप से पी डालती है। रण-मत्त होकर परास्त कर देती है उसके सारे बल को।

शक्ति मद में चूर दानव देखता है उस भीम भयंकर  महाघोर रूप को - दुष्टों के दमन के लिये अत्यंत क्रोध से काला पड़ गया है जिनका वर्ण, भैरवी बन, रौद्र और वीभत्स हो उठा है। बस एक अंतिम उपाय बचा रह गया जिससे रक्तबीज का नाश हो सकता है। और किसमें इतनी सामर्थ्य है कि अपने रक्त की प्रत्येक बूँद से नया रूप, नया जीवन पानेवाले महादैत्य को रक्तहीन कर सके -क्रोध की पराकाष्ठा! सारे ऊपरी आवरण उतार कर महाकाली दिग्वसना हो गई है, अतिचारी पशु से कैसी लाज और काहे की मर्यादा। साक्षात्मूल प्रकृति प्रत्यक्ष होती है। वह निरावरणा है, निराभरणा नहीं। विवसन विकट स्वरूपा, क्षात् प्रलयंकरी पर -सर्वांगभूषावृता हो अमंगलजनक अट्टहास कर रही है। अमंगल उसका जो सृष्टि का संकट बन गया है, जिसके कारण यह रूप धरा है। भयावह अट्टहास करती है वह कि अतिचारी का हृदय काँप उठा है, सन्न रह गया है वह। सर्व-श्रेष्ठ सुन्दरी, नारीत्व का सर्वोत्कृष्ट और पूर्णतम स्वरूप भोग-तृप्ति प्रदान करने साधन बनने के स्थान पर सर्वनाशी कैसे बन गया! मनोहर रूप को विकृत करनेवाला कौन है? वह जो अहंकार और बल- पौरुष के मद में चूर उसे अपने सुख का साधन और वशवर्तिनी बनाना चाहता है, उसे जो साक्षात् शिव को दूत बना कर भेजने की सामर्थ्य रखती है। अति मनोहररूप विकृत हो गया है सारा लास्य रौद्र और भयावह में परिणत हो गया - विवसना विकट स्वरूपा

कृष्णवर्णा, मुण्डमालिनी भीमरूपा भयंकरा!

काली करालवदना, नरमाला विभूषणा,

भृकुटी कुटिलात्तस्या शुष्कमाँसातिभैरवा

अतिविस्तारवदना, जिह्वाललनभीषणा

निमग्नारक्तनयनानादापूरित दिङ्मुखा

ऐसे रूप को सामने पाकर स्तब्ध रह गया होगा - विमूढ़। कोई प्रतिकार, कोई प्रत्युत्तर नहीं बचा होगा उसके पास। परिणाम वही जो होना था। नारी पर बल के प्रयोग जब जब हुये तब तब अंत दुखद रहा। महा प्रकृति अपने संपूर्ण स्वरूप में पूज्या है, उसके सभी रूप वरेण्य हैं, जगत् के लिये काम्य और कल्याणकारी हैं। माँ के कोप में भी करुणा की अंतर्धारा विद्यमान है। दण्ड पा चुके महिषासुर को सायुज्य प्रदान करती है, अपने से जोड़ लेती है, सदा के लिये। भटका हुआ प्राणी माँ की छाया में चिर- आश्रय पा लेता है।

माँ के विराट् स्वरूप में तीनों गुण समाहित हैं। शक्ति स्वयं को अपने क्रिया-कलापों में अभिव्यक्त करती है। अपनी विभूतियों समेत क्रीड़ा करती हुई वह नित नये रूपों में अवतरित होती है। वही वाक् हैं जो सूक्ष्म रूप से सभी विद्याओं में कलाओं में ज्ञान-विज्ञान में व्याप्त है वह अपार करुणामयी है किसी को वञ्चित नहीं करती चाहे वह उसका प्रबल शत्रु रहा हो वह सभी रूपों में करुणामयी है। शिव को दूत रूप में भेज कर वह चेतावनी देती है, विनाश से पहले ही सँभल जाओ। शिव को दूत बना कर भेजती है - शायद असुर चेत जाये। उन्हें बचाने शिव दौड़ कर नहीं आते। वे जानती हैं शिव अपनी भूमिका में उतर आये तो प्रलय निश्चित है -जला डालेंगे अपनी क्रोधाग्नि में सबको। सृष्टि बचेगी नहीं। वह स्वयं आगे बढ़ युद्ध-यज्ञ में आहुतियाँ देती हैं मत्त नर की मूढ़ता की उसकी पशुवत् लिप्साओं की और उस अहंकारी व्यक्तित्व की जिसके अस्तित्व की एक कणिका भी धरती पर बची रहे तोकर नई-नई आवृत्तिया रच लेती है। उसकी जीवनी-शक्ति को संपूर्ण रूप से पी डालती है। रक्तबीज का शोणित पान कर शेष सृष्टि को निर्भय करती है।

वह नहीं चेतता तो वध करती है उसकी कुत्साओं का, लालसाओं का, अज्ञान का और अहंकार का और उसके सद्यप्राप्त शुद्ध स्वरूप को अपने से संयुक्त कर लेती है। यह सामर्थ्य और किसमें है कि अपने शत्रु पर पर भी करुणा करे।

नव –रात्रियाँ उसी के धरती पर अवतरण के शुभ-दिवस हैं। वह धरती की पुत्री है -हिमालय की कन्या। अपने मायके मे पदार्पण करती है हर वर्ष अट्ठारह दिनों के लिये - वासंती और शारदीय नव-रात्रों में। धरती के लिये वे दिन उत्सव बन जाते हैं। नई चेतना का नवराग धरा के कण-कण में पुलक भरता है। मंदिरों में धूम, देवी के स्थानों की यात्रायें शुरू -आनन्द उल्लास में नर-नारी नाच उठते हैं। उनके माध्यम से जीवन रस ग्रहण कर रही है वह आनन्दिनी। देवी सर्वमंगला है। धरती पर विचरण करने निकलती है, शिव को साथ लेकर और अपनी संततियों का कष्ट दूर करती है। शिव उनका स्वभाव जानते हैं, किसी को दुखी नहीं देख सकती वे, उनकी नगरी में कोई भूखा नहीं सो सकता। वे स्वयं अन्न का पात्र लेकर उसके पास पहुँच जाती हैं। वह व्यक्ति साक्षात् अन्नपूर्णा को उनके धरे हुये वेश में पहचाने या न पहचाने!

पार्वती और शंकर के दाम्पत्य में दोनों समभाव पर स्थित हैं अधिकारी, अधीन अनुसरण कर्ता, प्रधान गौण का संबंध कहीं नहीं दिखाई देता। नारी और पुरुष सम भाव से स्थित! उनका व्यक्तित्व ऐसा सहज और सुलभ है कि हर कहीं प्रतिष्ठित हो सकता है।।

पुरुष अपनेआप में अकेला है और नारी अपनी कलाओं मध्य क्रीड़ा करती हुई नये-नये रूपों में अवतरित होती है -लीला-कलामयी है। उसके दो चरम रूप -सृष्टि के पोषण के लिये वत्सला पयोधरा और विनाश के लिये प्रचण्डा कालिका। रक्त की अंतिम बूँद तक पी जानेवाली। मेरे मन में विचार आता है यदि पुरुष अकेले संतुष्ट है अपने आप में पूर्ण है तो अनेक क्यों होना चाहता है - 'एकोहंबहुस्यम ' की ज़रूरत क्यों पड़ती है उसे, जो वह प्रकृति का सहारा लेता है। वह अविककारी है तो उसमें कामना क्यों जागती है? वह दृष्टा मात्र है तो लीला क्यों करता है?

हिमालय से कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक देवी कितने-कितने नाम-रूपों से लोक-जीवन में बसी हुई है हर आंचल हर भाषा,हर जीवनशैली के अनुरूप पार्वती लोक-जीवन में प्रतिष्ठित हैं। यहाँ तक कि हर मन्दिर में नव-रूप धारण कर नये संबोधनों में विराज रही हैं, आधुनिक नामों से भी -शाजापुर (म.प्र.) की रोडेश्वरी देवी! कहीं वे ग्वाले की पुत्री हैं -वास्तव में कृष्ण की भगिनी रूप में यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर क्रूर कंस के हाथों से स्यं को छुड़ा कर आकाश मार्ग से गमन कर विन्ध्याचल मे जा विराजी थीं -कहीं ज्वालारूपा, कहीं कूष्माण्डा (कानपुर की कुड़हा देवी)। काली गौरी, धूम्रा श्यामा। उनके नाम और रूपों की कोई सीमा नहीं।

भारतीय नारी के हर त्यौहार पर पार पार्वती ज़रूर पुजती हैं, उनसे सुहाग लिये बिना विवाहताओं की झोली नहीं भरती। सहज प्रसन्नमना हैं गौरा। कोई अवसर हो मिट्टी के सात डले उठा लाओ और चौक पूर कर प्रतिष्ठत कर दो, गौरा विराज गईं। पूजा के लिये भी फूल-पाती और जो भी घर में हो खीर-पूरी, गुड़, फल, बस्यौड़ा और जल। दीप की ज्योति भी उनका स्वरूप है ज्वालारूपिणी वह भी जीमती है! पुष्प की एक पाँखुरी का छोटा सा गोल आकार काट कर रोली से रंजित कर गौरा को बिन्दिया चढ़ाई जाती है। और बाद में सातों पिंडियों से सात बार सुहाग ले वे कहती हैं। माँ ग्रहण करो यह भोग और भण्डार भर दो हमारा। अगले वर्ष फिर इसी उल्लास से पधारना और केवल हमारे घर नहीं हमारे साथ साथ, बहू के मैके, धी के ससुरे, हमारे दोनों कुलों की सात-सात पीढ़ियों तक निवास करो। विश्व की कल्याण-कामना इस गृहिणी के, अन्तर में निहित है क्योंकि यह भी उसी का अंश है, उसी का एक रूप है। यह है हमारे पर्वों और अनुष्ठानों की मूल-ध्वनि!

माँ, आविर्भूत होओ हमारे जीवन में, करुणा बन बस जाओ हृदय में, शक्ति स्वरूपे, समा जाओ मेरे तन-मन में! जहाँ तक मेरा अस्तित्व है तुमसे अभिन्न रहे! अपनी कलाओं में रमती हुई मेरी चेतना के अणु-अणु में परमानन्द की पुलक बन विराजती रहो!

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