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शान्त पवन

ध्यान सी लगी वह -
हाँ कल तक जब नीरव क्लान्त में बहती थी।

कुछ पाकर निषिक्त से प्रतीत हुई 
आज भी धन्य सी लगती है 
धुँआ धुआँ सा जब यहाँ 
जग का कोना - कोना होता, 
घिरते तम से भी कुछ 
हँसकर जो बोल उठी थी।
तब किनके मिलन की लाग लगीं थीं ?
ज्वलंत की लपटें उठी 
इन दिशाओं में थीं जब।
शान्त भुवन सी तब भी बहती थी।
शान्त भुवन सी अब भी बहती है।
हाँ कल तक जो नभ सी - 
विकल्प विशाल लिए हुए, 
कहीं ढूढ़ती उस क्षितिज में तनिक... 
तनहाई दूर करने का भ्रम लिए हुए?
हाँ कौतुक की विशाल सभा में जब 
प्रत्येक पहर की अभिव्यंजना होती थी।
सिमट सिमट कर पत्तों सी 
ज्वलंत में भी हँसती थी ,
किन्तु आज तक किसी से.
कुछ न कह अबोध गति से चलती है?
तब भी बहती थी अब भी बहती है।
करुण कथा की किसी व्यथा पर,
प्रबुद्ध होकर चलती है।
शाम कि उलझनो में मिश्रभ भरती
भोर में प्रसारित सुकून सी बहती है।
हाँ यह पावन पवन ही है जो 
अबोध गति - सी निरन्तर बहती है।

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