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शिष्टाचार

वे दोनों पति पत्नी पहली बार उस विशाल मंदिर वाले छोटे से शहर में गए थे। अचानक अपने बचपन के मित्र को सामने देख वर्मा साहब बहुत खुश हुए। मित्र ने बहुत आग्रह से प्रेम विह्वल होकर उन्हें अपने घर लिवा लाया।

मित्र का छोटा सा फ्लैट... मिसेज़ वर्मा को इतना ऊबाऊ लग रहा था... "कैसे रहते हैं इस दबड़े में लोग" वह सोचती जा रही थी और उसके माथे से पसीने बहते जा रहे थे। हालाँकि मकान इतना छोटा भी नहीं था। मध्य आय वर्ग का तीन कमरों वाला मकान था। उन्होंने अच्छी तरह सुसज्जित करके भी उसे रखा था। मगर अपनी औकात से नीचे वाले लोग ‘कुछ लोगों’ को दबड़े में ही रहते नज़र आते हैं।

मित्र की पत्नी और दोनों बच्चे उनकी तीमारदारी में यूँ लग गए थे जैसे भक्त के घर भगवान... जैसे उद्धव का मथुरा आना। उनका प्यार, उनकी भावनाएँ छलकते हुए जाम की तरह दिखाई पड़ती थीं।

मित्र अपनी पत्नी एवं बच्चों से कह रहे थे, "ये मेरे बचपन के साथी... हम लोग मिडिल स्कूल से कॉलेज तक साथ ही पढ़े थे। बाद में ये बड़े ऑफीसर बनकर मुंबई चले गए...।" श्रीमती वर्मा को उनका यह बार-बार दोस्त कहना फूटी आँख नहीं भा रहा था। वह चुपचाप बैठी रही थी बुत बनकर। विदा होते समय बच्चों ने उनके पाँव छुए तो, "अरे यह क्या...?" कह कर थोड़ा पीछे हट गई थीं।

कुछ ही दूर जाने पर उनका सीनियर सहकर्मी सोनी मिल गया। उसका भी घर उसी शहर में था। वे उसके घर बिन बुलाए चले गए थे। विशाल कोठी। पोर्टिेको में बी.एम.डब्ल्यू. ...ड्राइंग रूम भव्य। झाड़फानूस.. ईरानी कारपेट...। मिसेज सोनी सामने आई तो ज़रूर मगर खातिरदारी नौकरों के ऊपर छोड़कर किसी अर्जेंट पार्टी में चली गईं। उनके दोनों बच्चे जो संभवतया बाहर जा रहे थे खेलने "हाय" करते हुए जाने लगे तो मिसेज़ वर्मा ने उनकी बलैया लेते हुए कहा था "कितने शिष्ट हैं ये बच्चे।"

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