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श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों में राजनैतिक चेतना का उत्कर्ष

हर देश में उपन्यास की संस्कृति विकसित होने या न होने की अपनी-अपनी ऐतिहासिक वज़हें रही हैं। भारत संसार के उन चंद भाग्यशाली देशों में रहा है जहाँ उपन्यास लेखन व उपन्यास पढ़ने की बड़ी लोकप्रिय संस्कृति का विकास हुआ। मध्यवर्ग, परिवर्तन, अपराध, परिवार, रिश्ते, राजनीति और क्रांतियाँ जितने सूक्ष्म ढंग से उपन्यासों के माध्यम से व्यक्त हुए हैं, उतना किसी भी अन्य विद्या या लेखन के अन्य रूपों में नहीं। समाज के राजपथ को छोड़कर अनदेखी पगडंडियों पर चलने का हौसला उपन्यासों ने ही दिखाया है। भारत में लेखकों ने विशाल सामाजिक तथा राष्ट्रीय प्रक्रियाओं को समेटकर उपन्यासों के कथानकों में प्रतिबिम्बित करने में दुर्लभ सफलताएँ प्राप्त की हैं। प्रस्तुत आलेख में श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों का वर्तमान राजनैतिक यथार्य की कसौटी पर जाँचने-परखने का काम किया गया है।

स्वतंत्रता के पश्चात् भारत एक लोकतांत्रिक देश के रूप में अड़सठ साल का सफ़र तय कर चुका है। आज वह अपने आपको विकासशील से विकसित राष्ट्र बनाने के पथ पर अग्रसर है। स्वतंत्रता के पश्चात सात दशकों के कालखंड का विश्लेषण किया जाए तो भारत की राजनीतिक व्यवस्था में समयानुकूल परिवर्तन हुए हैं। स्वतंत्र भारत के लिए संघर्षरत भारतीयों ने एक ऐसे देश का सपना देखा था, जहाँ हर प्रकार की समानता व स्वतंत्रता होगी, हर नागरिक को मानवीय गरिमा के अनुकूल जीवन जीने के लिए उचित वातावरण व अवसर होंगे, देश के विभिन्न क्षेत्र अपनी-अपनी मौलिक विशिष्टताओं को बनाए रखते हुए भी एक सुदृढ़ व संगठित राष्ट्र के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करेंगे। पर स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय राजनीति के समक्ष कुछ ऐसी समस्याएँ आ गईं कि लाख कोशिश करने पर भी उपर्युक्त स्वप्न को साकार करना मुश्किल बनता गया। पिछले कुछ दशकों में भारत की राजनीतिक व्यवस्था में अनेक नई प्रवृत्तियों का उदय हुआ है। जातिवाद, क्षेत्रीयता, सांप्रदायिकता, भूमिपुत्र की अवधारणा, आरक्षण की राजनीति, आतंकवाद, गठबंधन की राजनीति, नैतिकता का अभाव, क्षेत्रीय दलों की बढ़ती भूमिका, न्यायिक सक्रियता, राज्यपाल की भूमिका पर उठे सवाल आदि इनमें प्रमुख हैं। इन नई प्रवृत्तियों में से कुछ ऐसी गंभीर राजनीतिक समस्याएँ हैं जो देश की एकता तक को खंडित कर सकती हैं। इन समस्याओं के कारण विकास की योजनाओं को भी समुचित रूप से लागू करना कठिन बनता जा रहा है। देश की राजनीति में फैली प्रमुख समस्याओं का चित्रण श्रीलाल शुक्ल ने अपने उपन्यासों में किया है।

श्रीलाल शुक्ल के राजनैतिक उपन्यास आज़ाद भारत के सत्ता चरित्र के प्रभाव से उपजे भीतरी-बाहरी परिवर्तनों की कहानी कहते हैं। उनसे साहित्य के संबंध में नामवर सिंह ने लिखा है- "श्रीलाल जी साहित्यकार की भूमिका को एक निष्पक्ष पर्यवेक्षक और वस्तुनिष्ठ जाँचकर्ता के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं।"1 तदभव के संपादक अखिलेश के अनुसार "राजनीति की चिंतनशीलता, विकास का गोरखधंधा, जनहित का पाखंड, भारतीय जनतंत्र की उन निर्विवाद वास्तविकताओं पर तीक्ष्ण और विस्तृत कटाक्ष उनकी रचनाशीलता की धुरी है।"2 राग दरबारी, पहला पड़ाव, आदमी का ज़हर, मकान आदि उपन्यासों में भी उन्होंने राजनीति का चित्रण किया है। इनमें जनतांत्रिक मूल्यों का विघटन, चुनाव, गाँधीवाद का ह्रास, भूदान यज्ञ की असफलता, स्वार्थपरक राजनीतिक के विभिन्न आयाम जैसे सत्तालोलुपता, सांप्रदायिकता, गुंडागर्दी, अवसरवादिता, गुटबंदी, वंश-परंपरा, भाई-भतीजाबाद, भ्रष्टाचार, गबन, नौकरशाही, न्यायिक व्यवस्था और संचार माध्यमों द्वारा राजनीतिज्ञों को दिया जाने वाला समर्थन, राजनीतिज्ञों द्वारा जनता को प्रभावित करने के लिए प्रयुक्त भाषावादी, संचार माध्यमों द्वारा प्रचार आदि का चित्रण उन्होंने अपने उपन्यासों में किया है। वे पाठकों को यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि आज की राजनीति में आदर्श, मर्यादा, राष्ट्रहित जैसे मूल्यों का स्थान क्या है? उपन्यास के क्षेत्र में भारतीय लोकतंत्र की इतनी सख़्त और विस्तृत जानकारी अन्यत्र दुर्लभ है।

राजनीति का सीधा संबंध शासन या सरकार से है। जनतंत्र की परिभाषा अब्राहम लिंकन ने इस प्रकार दी है- जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन। स्वातंत्र्योत्तर भारत में पदलोलुपता, भ्रष्टाचार और लूट-खसोट ने प्रजातंत्र को नंगा कर दिया है। इसीलिए राग दरबारी के वैद्यजी जैसे सत्तालोलुपत नेता के सपने में आकार प्रजातंत्र को ही कहना पड़ता है, मेरे कपड़े फट गये हैं। मैं नंगा हो रहा हूँ। इस हालत मे मुझे किसी के सामने से निकलते हुए शर्म लगती है। इसलिए "हे वैदय महाराज, मुझे एक साफ-सुथरी धोती पहनने को दे दो।"3 देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था राग दरबारी में चित्रित ट्रक के ख़राब गियर की तरह, जिसे बार-बार टॉप में डालने पर भी वह पुनः अपने खाँचे में आ जाता है।4

इस जनतांत्रिक व्यवस्था को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने की विधिवत प्रक्रिया हैं- चुनाव। चुनाव जीतने वाले नेता अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कार्य करते हैं, तो मजबूर होकर जनता को किसी और को चुनना पड़ता है। लेकिन वह भी स्वार्थी निकलता है। श्रीलाल शुक्ल ने नेताओं और चुनाव को लेकर जनता की निराशा को राग दरबारी के पात्र गयादीन के वक्तव्य द्वारा व्यक्त किया है कि "चुनाव के चोंचलें में कुछ नहीं रखा है। नया आदमी चुनो, तो वह भी घटिया निकलता है। सब एक जैसे हैं।"5 वह आगे कहता है कि "अगर नया आदमी कुछ करना भी चाहे तो दूसरे उसे कुछ करने नहीं देंगें।"6 इस प्रकार भारत के जनतंत्र को सही समर्थन देने में चुनाव प्रक्रिया असफल हुई है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा परिवर्तन था, गाँधीजी के सिद्धान्तों को नकारना। आज भारतवर्ष में गाँधीजी के सिद्धांतों के महत्व क्या है, इसका चित्रण उन्होंने राग दरबारी के गाँधी चबूतरे प्रसंग के माध्यम से किया है। वे लिखते हैं- "गाँधी, जैसा कि कुछ लोगों को आज भी याद होगा, भारतवर्ष में ही पैदा हुए थे और उनके सिद्धान्तों को संगम में बहा देने के बाद यह तय किया गया था कि गाँधी की याद में सिर्फ पक्की इमारतें बनाई जाएँगी और उसी मुहल्ले में शिवपालगंज में यह चबूतरा बन गया है।"7

इसी तरह विनोबा भावे ने जिस उद्देश्य से यज्ञ का आरंभ किया था, वह उद्देश्य सफल नहीं हुआ। राजनीतिक नेताओं ने अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए उसे तोड़-मरोड़कर हथियार बनाया। वे ज़मींदारों से भूमि दान में लेकर भूमिहीन किसानों में बाँटना चाहते थे। लेकिन जो भूमि दान में मिली, वह किसानों तक नहीं पहुँच पाई। इस संबंध में श्रीलाल शुक्ल ने अपने बहुचर्चित उपन्यास राग दरबारी में लिखा है- "प्रधान ने दान के रूप में इसे पहले अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को दिया और उनके बचे खुचे-हिस्से सीधे क्रय-विक्रय के सिद्धांत पर कुछ ग़रीबों और भूमिहीनों को मिले थे।"8 इस प्रकार भूदान यज्ञ औपचारिक ही हुआ।

आज आजादी के अड़सठ साल बीत जाने के बावजूद भी देश के राजनैतिक दलों में लोकतांत्रिक आचरण के आसार कम ही दीखते हैं। सत्तालोलुपता के कारण भारतीय राजनीति में नेता प्रमुख है, सिद्धांत गौण। ऐसे ही बूढ़े नेता हैं "राग दरबारी" के वैद्यजी। वे अपनी सत्तालोलुपता को छिपाकर कहते हैं कि "लोगों ने उन्हें पद संभालने के लिए मजबूर किया था।"9 उनके जैसे राजनीतियों के संबंध में इस उपन्यास का एक पात्र गयादीन कहता है- "जो जहाँ है, अपनी जगह गोह की तरह चिपका बैठा है। टस-से-मस नहीं होता।"10 वैद्यजी जैसे नेता सत्ता में बैठकर उसका भरपूर फ़ायदा उठाते हैं। उसके बाद अगर विनम्र होकर उसे त्यागते हैं तो वहाँ अपने पुत्र या रिश्तेदारों को बिठाते हैं। इसी संदर्भ में प्रस्तुत उपन्यास में लेखक लिखते हैं- "आज भी यशस्वी नेता यही करते हैं। भोग करते हैं, फिर उसका त्याग करते हैं, फिर त्याग द्वारा भोग करते हैं।"11 श्रीलाल शुक्ल ने अपने पहला पड़ाव नामक उपन्यास में भी ऐसे एक मंत्री का चित्रण किया है।

इस स्वार्थपरक राजनीतिक के कारण राजनैतिक नेता सत्ता को बनाए रखने के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद आदि के नाम पर लोगों को भड़काना, गुंडागर्दी, गुटबंदी आदि का भी सहारा लेते हैं। वोट और सत्ता के लिए अपने आपको धर्म निरपेक्ष कहने वाली पार्टियाँ भी इन चीज़ों को अपनाने में हिचकती नहीं है। ऐसा ही एक संदर्भ पहला पड़ाव नामक उपन्यास में आया है जहाँ कांग्रेस नेता और वकील परमात्माजी कानून का उल्लंघन कर एक मंदिर में अपने वरिष्ठ नेता और साथियों के साथ पूजा करने के लिए जाते हैं। यह सुनकर उनकी पत्नी से उपन्यास का नायक संतोष कुमार पूछता है - "यह काम तो विश्व हिन्दू परिषद वालों का है। कांग्रेसी होकर भी जीजा जी इस झमेले में कैसे फँस गए?"12 इसके जवाब में पत्नी कहती है - "नेता ने कहा कि अगर कोई हिन्दुओं का मंदिर तोड़ना चाहता है तो हम हिन्दू की हैसियत से नहीं संविधान के सिपाही की हैसियत से उनका विरोध करेंगे।"13 इसी तरह जाति और वर्ण के नाम पर वोट माँगने वाले नेताओं का चित्रण बिस्रामपुर का संत और राग दरबारी में हुआ है। इस प्रकार देश के राजनैतिक दलों की छिपी नीतियों का चित्रण भी श्रीलाल शुक्ल ने किया है। राजनैतिक नेता सत्ता पाने के लिए गुंडागर्दी का भी सहारा लेते हैं। चुनावों में लाठी, तमंचा, ज़ोर-ज़बरदस्ती, गुंडागर्दी का प्रयोग यहाँ आम बात है। इस संदर्भ में राग दरबारी के रूप्पन बाबू का कथन उल्लेखनीय है। वे कहते हैं- "देखों, दादा यह तो पॉलिटिक्स है। इसमें बड़ा-बड़ा कमीनापन चलता है।... दुश्मन को, जैसे भी हो, चित्त करना चाहिए।"14 गुंडागर्दी करवाने के लिए राजनैतिक नेता किस प्रकार युवाशक्ति का दुरुपयोग करते हैं,15 किस प्रकार माफ़िया सम्राट भी विधायक बनता है, इसका पहला पड़ाव नामक उपन्यास में भी हुआ है।16

भारतीय राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण नासूर है- गुटबंदी। यह अंदर ही अंदर प्रजातंत्र की पद्धति को खोखला कर रही है। गुटबंदी के बारे में राग दरबारी में उपन्यासकार लिखते हैं - "गुटबंदी परमात्मानुभूति की चरम दशा का एक नाम है।"17 इसी संदर्भ में वे आगे कहते हैं- "मैं-मैं, तू और तू, मैं को मिटाकर मैं की जगह तू और तू की जगह मैं बन जाना चाहता है।"18 इस गुटबंदी की भावना ने नेताओं को अनुशासनहीन और अनुत्तरदायित्वपूर्ण बना दिया है। राजनीति में अवसरवादिता भी काफी बढ़ गई है। जहाँ भी किसी नेता को अपना लाभ दृष्टिगत होता है, वह उसी ओर आकृष्ट होता है, उसी गुट में शामिल होता है। राग दरबारी के वैद्यजी ऐसे ही नेता है जो स्वतंत्रता से पूर्व अंग्रेज़ों के भक्त थे और स्वतंत्रता के बाद देशी नेताओं के परम भक्त हैं।19 और इसी वज़ह से शिवपालगंज के सबसे शक्तिशाली नेता है। ऐसे ही पात्रों का निर्माण श्रीलाल शुक्ल ने मकान नामक उपन्यास के नेता और पहला पड़ाव नामक उपन्यास के परमात्माजी और इंजीनीयर साहब के रूप में किया है।

भारत की राजनीति में वंश परंपरा और भाई-भतीजावाद का भी अत्यधिक महत्त्व है। राग दरबारी के रूप्पन बाबू के बारे में उपन्यासकार लिखते हैं - "वे पैदायशी नेता थे क्योंकि उनके बाप भी नेता थे। उनके बाप का नाम वैद्यजी था।"20 भाई-भतीजावाद का समर्थन करने वाला नेताओं के वक्तव्य का उदाहरण राग दरबारी के रंगनाथ और गाँव प्रधान रानीचर के वार्तालाप में मिलता है। रंगनाथ कहता है, "शहर के भाई-भतीजावाद का समर्थन करने वाले नेता कहेंगे- "कहाँ जाएँ भाई-भतीजे! अगर उनका कोई भाई-भतीजा ओहदेदार है तो क्या वे भूखों मर जाएँ। किस कानून में लिखा है कि वे कारोबार तक न करें।"21

इस प्रकार स्थान मिलने पर अगर कोई भाई या भतीजा कोई ग़लत काम करके पकड़ा जाता है तो नेता अपने आपको मासूम साबित करने के लिए उन आरोपों का खंडन करेंगे। स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा अभिशाप है- भ्रष्टाचार।

भारतीय राजनीति में यह ख़तरनाक रूप में फैला हुआ है। भ्रष्टाचार का एक उदाहरण है- राग दरबारी में चित्रित में चित्रित कोऑपरेटिव यूनियन में होने वाला गबन। अगर कोई नेता भ्रष्टाचार के संबंध में पकड़ा जाए तो वे वैद्यजी के समान कहेंगे - "उसकी जाँच कराना चाहते हो? करा लो, पर पहले यह तय कर लो कि भ्रष्टाचार कहते किसे हैं।"22 इस प्रकार वे अपनी मासूमियत का प्रदर्शन करते हैं।

राजनैतिक नेता जनता को अपनी सेवानिरति का विज्ञापन देने के लिए तरह-तरह के माध्यमों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें भाषणबाजी और संचार माध्यमों का प्रयोग प्रमुख है। भाषणबाजी के द्वारा अपनी स्वार्थ-प्राप्ति के लिए वे चुनाव में वादे ही नहीं देते बल्कि जनता के सच्चे सेवक भी बन जाते हैं। उसी संदर्भ में भाषण सुनने वाली जनता के संबंध में पहला पड़ाव उपन्यास का संतोष कुमार का वक्तव्य महत्त्वपूर्ण है। वह कहता है - "उसे तर्क नहीं चाहिए, गुत्थी को सुलझाने वाली विचार-शृंखला नहीं चाहिए, सिर्फ आवाज़ का थियेटरी उतार-चढ़ाव चाहिए, तभी तालियाँ बजेंगी।"23

संचार माध्यमों जैसे समाचार पत्र, टी.वी., रेडियो आदि के द्वारा भी नेता जनता को प्रभावित करते हैं। ये संचार माध्यम भी अवसरवादी हो गए हैं। ऐसा ही संदर्भ बिस्रामपुर का संत में आया है, जहाँ नेता और गर्वनर बने कुँवर जयंति प्रसाद से रिश्वत लेकर समाचार पत्र उनका गुणगान करते हैं। इसके संबंध में लेखक लिखते हैं, "कभी गर्वनर की हैसियत से अपनी दिनचर्या की कुछ पंक्तियाँ स्थानीय अख़बार में छप जाने पर उन्होंने वरिष्ठ जनसंपर्क अधिकारी को स्विस्स चॉकलेट का एक डिब्बा भेंट किया था। आज सारे राष्ट्रीय अख़बार उनके त्याग और आत्मनिर्वासन की महागाथा अपनी ओर से छाप रहे थे।"24 इसी प्रकार के लापरवाह समाचार पत्रों का चित्रण पहला पड़ाव नामक उपन्यास मंे भी हुआ है।

देश की राजनीति का छोटा-सा परिच्छेद है- विद्यालयी राजनीति। यहाँ पर तरह-तरह की स्वार्थ सिद्धि के लिए विद्यार्थियों का इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार की राजनीति का चित्रण सूनी घाटी का सूरज, पहला पड़ाव और राग दरबारी आदि उपन्यासों में हुआ है। सूनी घाटी का सूरज में स्कूल प्रिंसिपल को पद से हटाने पर वे छात्रों को हड़ताल करने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं- "वैसे यह प्रजातंत्र है। तुम्हारी इच्छा को कौन टाल सकता है।"25 इस प्रकार वे अपनी कुर्सी बचाना चाहते हैं। कभी-कभी इस स्वार्थ की राजनीति से छात्र नेता तक ऊब जाते हैं। इसी प्रकार का एक संदर्भ दरबारी में भी आया है जहाँ छात्र नेता रूप्पन बाबू विद्यालयी राजनीति से तंग आकर कहते हैं- "तुम इस कॉलेज का हाल नहीं जानते। लुच्चों और शोहदों का अड्डा है। मास्टर पढ़ाना-लिखाना छोड़कर सिर्फ़ पोलिटिक्स भिड़ाते हैं।"26 इस प्रकार भ्रष्ट राजनीति के कारण विद्यालय का शांतिपूर्ण वातावरण भी कलुषित होता जा रहा है।

इस प्रकार श्रीलाल शुक्ल ने अपने अलग-अलग उपन्यासों में राजनीति के विभिन्न दाँव-पेंचों बख़ूबी चित्रण किया है। भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के संबंध में वे कहते हैं- "भारतवर्ष में अराजकता और अस्तव्यस्तता को शताब्दियों तक झेलने की असाधरण क्षमता रही है। उसी आधार पर आप कह सकते हैं कि भारतीय लोकतंत्र का भविष्य वही है जो उसका वर्तमान है।"27 उन्होंने भारतीय राजनीति के विभिन्न पहलुओं का सच्चा चित्रण पाठकों के सामने प्रस्तुत करके एक साहित्यकार के रूप में अपनी भूमिका के प्रति ईमानदारी दिखाई है। स्वयं एक नौकरशाह होते हुए भी नौकरशाही के भ्रष्टाचार तक का चित्रण करने में उन्होंने झिझक नहीं दिखाई। इस प्रकार हम देख सकते है कि उनका साहित्य समाज का सच्चा दर्पण है।

सन्दर्भ:-

1. श्रीलाल शुक्ल: जीवन ही जीवन, नामवर सिंह, पृ.सं.-17
2. श्रीलाल शुक्ल की दुनिया, अखिलेश, पृ.सं.-10
3. राग दरबारी, पृ.सं.-135
4. राग दरबारी, पृ.सं.-6
5. राग दरबारी, पृ.सं.-157
6. राग दरबारी, पृ.सं.-157
7. राग दरबारी, पृ.सं.-100
8. राग दरबारी, पृ.सं.-166
9. राग दरबारी, पृ.सं.-30
10. राग दरबारी, पृ.सं.-99
11. राग दरबारी, पृ.सं.-285
12. पहला पड़ाव, पृ.सं.-124
13. पहला पड़ाव, पृ.सं.-125
14. राग दरबारी, पृ.सं.-145
15. पहला पड़ाव, पृ.सं.-206
16. पहला पड़ाव, पृ.सं.-119
17. राग दरबारी, पृ.सं.-76
18. राग दरबारी, पृ.सं.-76
19. राग दरबारी, पृ.सं.-29
20. राग दरबारी, पृ.सं.-15
21. राग दरबारी, पृ.सं.-264
22. राग दरबारी, पृ.सं.-264
23. पहला पड़ाव, पृ.सं.-168
24. बिस्रामपुर का संत, पृ.सं.-90
25. सूनी घाटी का सूरज, पृ.सं.-87
26. राग दरबारी, पृ.सं.-29
27. श्रीलाल शुक्ल की दुनिया, अखिलेश, पृ.सं.-147

डॉ. छोटे लाल गुप्ता,
भारतीय वायुसेना (कार्यरत तकनीकी विभाग),
तेजपुर (आसाम)
मो.-9085210132

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