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श्श्श्श्. . . किसी से कहना नहीं! 

"नौ साल की थी मैं, वो इंपोर्टेड चॉकलेट लाते थे. . . मेरे अंकल। मुझे गोद में बिठाकर प्यार करते थे, और अकेले में. . बाथरूम के अंदर. . फिर गोद में बिठाते थे, प्यार करते थे. . . चीखती थी मैं. . . मगर वो मेरा मुँह दोनों हाथों से बंद कर देते थे. . . . ऐसे (दोनों हाथों से मुँह बंद करते हुए). . . बहुत. . . बहुत दर्द होता था. . . श्श्श्श्श. . . बस. . बस हो गया, मेरी गुड़िया. . . बेस्ट लड़की है तू दुनिया की, सबसे ब्यूटीफ़ुल. . .! फिर आते थे. . . बार - बार आते थे, अंदर चीखती थी मैं. . . श्श्श्श्. . . किसी से कहना नहीं. . . ठीक है।"

टेलीविज़न पर चल रहे इस दृश्य ने माया के रोंगटे खड़े कर दिए थे। वह शून्य सी हो गयी थी, जैसे किसी गाड़ी ने धक्का मार कर, उसे वापस एक साल पुरानी यादों की दुनिया में पहुँचा दिया हो।

"दीदी मैंने कुछ न किया है,  विश्वास करो. . . मैंने कुछ न किया है। वो तो साब रोज़ करते हैं. . . वो. . . वो. . . मैंने कुछ न किया दीदी. . भरोसा करो दीदी। मैंने कोई चोरी न की, बस आपसे साब का सच बता दिया, तो साब मुझपर ये इल्ज़ाम लगा रहे। दीदी मैंने कुछ न किया है, मुझे बचा लो दीदी. . . बचा लो. . .!"

“झूठ बोलता है साला, मेरे घर का खाता है, मेरे घर में ही चोरी करता है फिर चोरी से बचने के लिए मुझ पर ही इल्ज़ाम लगाता है,” राजीव के लात-घूँसों की बारिश में उस मासूम के सच की चीख दब चुकी थी।

आवाक् सी खड़ी माया उस दृश्य को देखती रह गई थी। उस मासूम पर विश्वास करना चाहती थी, तो पतिव्रता होने का धर्म सामने आ खड़ा होता था, और पत्नी का धर्म निभाती, तो उस मासूम पर हुआ अत्याचार, उसका हृदय बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था।

परंतु पति के सत्य के सम्मुख उसके हृदय की भावनाएँ अत्यंत हीन प्रतीत होती थीं। अतः पत्नी-धर्म की सीमा-रेखा में जा खड़ी हुई थी वह।

एक स्त्री के हृदय की ममता से हारकर, वह दूसरे दिन अस्पताल में  गोलू से मिलने गयी थी। अस्पताल में गोलू की चिकित्सा का सारा ख़र्चा माया ने ही उठाया था।

“डरो मत गोलू, मैं तुम्हारी माया दीदी. . . तुम्हारी मदद करने आई हूँ. . . मेरे पास आओ।”

“न. . . न. . न. . जाओ. . जाओ. . जाओ. . .” चीखता हुआ गोलू डॉक्टर श्वेता के पीछे स्वयं को समेटता जा रहा था।

“इसे क्या हुआ है डॉक्टर?. . . ये इतना डर क्यूँ रहा है?”

“आप कृपया मेरे केबिन में इंतज़ार करें. . . मैं आती हूँ ,” डॉक्टर श्वेता ने कहा और गोलू को समझाने का प्रयास करने लगीं।

“गोलू, शांत हो जाओ. . . शांत हो जाओ. . . डरो मत, कुछ नहीं होगा तुम्हें, मैं हूँ न. . . कोई कुछ नहीं करेगा,” डॉक्टर श्वेता की सांत्वना ने गोलू को काफ़ी हद तक राहत दे दी। अस्पताल के सफ़ेद चादर के उस बिस्तर पर वह अब लेट गया था।

”गोलू ऐसे क्यूँ बर्ताव कर रहा है, क्या हुआ है उसे,” डॉक्टर श्वेता के केबिन में घुसते ही माया घबराती आवाज़ में पूछने लगी।

"पीडोफ़िलिया!"

”पीडोफ़िलिया. . . मैं समझी नहीं डॉक्टर।”

“गोलू अभी दस साल का है, और दस साल के बच्चे के साथ किसी वयस्क द्वारा उस बच्चे का यौन शोषण करना. . पीडोफ़िलिया कहलाता है।'

“आपका मतलब है कि उस दस साल के मासूम का यौन शोषण हुआ है. . . जिसके कारण वह मुझसे भी इतना डरने लगा है!”  माया ने आश्चर्य से पूछा।

“मुझे नहीं पता कि गोलू के साथ ज़्यादती आपके घर में हुई है या बाहर. . . परंतु हुई अवश्य है, जिसके प्रमाण उसके शरीर के व्यक्तिगत अंगों के वो ज़ख़्म हैं, जिसकी पीड़ा सह पाना किसी दस साल के बच्चे के लिए असहनीय है।

“उसके शरीर पर कई निशान मार-पीट के भी हैं, क्या आपको इस बारे में कुछ पता है?”

“नहीं. . नहीं डॉक्टर. . गोलू तो मेरे बेटे जैसा है, दीदी बोलता है मुझे। वह मेरे परिवार के सदस्य की तरह है; भला हम उसे चोट क्यूँ पहुँचाएँगे?”

अस्पताल के लिए निकलते समय राजीव से किए वादे ने, माया को अनचाही सफ़ाई देने पर मजबूर कर दिया था।

“फिर हो सकता है, ये निशान तब के हों, जब गोलू ने स्वयं को उस मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति से बचाने का प्रयास किया हो,” डॉक्टर श्वेता ने कहा।

“डॉक्टर, वह ठीक तो हो जाएगा न!”

“हाँ! बिल्कुल, परंतु इस नकारात्मक व्यवहार, अवसाद और भय से भरी दुनिया से उसे निकालने में वक़्त लगेगा।”

“कुछ भी करिए डॉक्टर, पर प्लीज़ उसे ठीक कर दीजिए,” माया ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।

“जी, ज़रूर! मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगी।”

“धन्यवाद! डॉक्टर।”

माया ने डॉक्टर श्वेता का धन्यवाद किया और घर चली आई।
जैसे-तैसे करवटें बदल कर रात काटी और अगली सुबह गोलू से मिलने अस्पताल पहुँच गयी।

“कौन सी बुआ? आज तक तो गोलू का कोई रिश्तेदार नहीं था। सड़क पर भीख माँगता था, जब मैं उसे घर लाई थी। आज कौन सी बुआ उसे आ कर ले गई?” माया, डॉक्टर श्वेता और अस्पताल के सभी कर्मचारियों पर चिल्लाए जा रही थी।

“मैम, उस औरत ने कहा, कि वो गोलू की दूर की बुआ लगती है,” गोलू की देखभाल के लिए लगाई गयी नर्स रीमा ने सिर झुकाते हुए उत्तर दिया।

“किसी ने पहचान की थी उस औरत की?”

“बिना किसी के पहचान किए, एक दस साल के मासूम बच्चे को किसी अनजान के साथ कैसे भेज सकते हैं आप सब?”  कोई जवाब न मिलता देख, माया एक बार फिर सभी पर चीख सी पड़ी थी।

“मैम!. . . वो. . . वो. . मिस्टर राजीव ने उस औरत की पहचान. . . .” डॉक्टर श्वेता ने हिचकिचाते हुए आधा-अधूरा सा मगर पूरा उत्तर दिया।

“राजीव!. . . राजीव ने कहा?” माया ने आश्चर्य से पूछा।

"जी मैम! इस अस्पताल के वित्तीय सहायक और मालिक - आपके पति श्रीमान राजीव सर ने। 

जवाब किसने दिया, इस बात से बेख़बर माया, पास में पड़ी बेंच पर धम्‍म से बैठ गई।

वह सब कुछ समझ चुकी थी, उसके हृदय में आग जल उठी थी। वह उस फ़िल्म के अंतिम दृश्य में उस अभिनेत्री की तरह ज्वालामुखी सी फूटना चाहती थी।

वह चीखना चाहती थी. . . सबको चीख - चीख कर सच बताना चाहती थी। परंतु उसने ऐसा नहीं किया। लेकिन वह ख़ुद को कमज़ोर होता भी नहीं देखना चाहती थी।

पलकों से आँसू बहकर गालों तक आते, उससे पहले उनका अस्तित्व मिटाकर उठ खड़ी हुई थी वह।

सीधे ऑफ़िस पहुँची, अपने अख़बार के एडिटर को काग़ज़ों से भरा एक लिफ़ाफ़ा दिया और घर चली आई।

दूसरे दिन सुबह. .

“मुझे तुमसे ऐसी उम्मीद नहीं थी माया, तुम मेरी पत्नी होकर ऐसा कैसे कर सकती हो?”  पुलिस की गाड़ी में जेल के लिए रवाना होते हुए राजीव चिल्ला रहा था।

आज फिर माया ख़ामोशी से पुलिस की गाड़ी को जाते हुए देखती रही। फिर चाय का कप और उस दिन का अख़बार लेकर बालकनी की कुर्सी पर बैठ गयी। आत्मविश्वास और स्वाभिमान से भरी संतुष्टि की रेखा उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी।

चाय की चुस्कियों के साथ मुख्य पृष्ठ पर छपे अपने लेख का शीर्षक पढ़ा - "श्श्श्श्. . . किसी से कहना नहीं!"

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टिप्पणियाँ

Subhash Chandra Lakhera 2019/12/19 06:29 AM

समाज में जो कुछ हो रहा है, लेखक / लेखिका का दिलोदिमाग उससे विचलित न हो, यह संभव नहीं। इस हिसाब से कथाकार ने अपनी बात / अपनी चिंता जाहिर करते हुए इस कथा का जो ताना - बाना बुना है, वह गौर करने लायक है और लोगों को सावधान भी करता है। बहरहाल, कहानी के अंत में  ' चाय की चुस्कियां ' शब्द मुझे कुछ अटपटा लगा। पति को जेल भेजने के बाद कोई महिला चाय तो पी सकती है लेकिन चुस्कियां नहीं ले सकती।   

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