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शुभ-सौन्दर्य

ध्वनि शंख-सी
आँखें मोर -पंख -सी
एक छवि की!
कल्पना हो कवि की,
शुभ-सौन्दर्य
मूक चित्रकार का।
आकार लिये,
उस निराकार का।
सुशोभित हो
पीत-परिधान में
मुस्कान मानो
मोती भरा-कटोरा
फैला ब्राह्माण्ड
चहुँ ओर उजले
गीता का ज्ञान
तेरी- बाँसुरी स्वर!
या शंख-नाद
है समीर समेटे
आज भी कही
एक गोपी ढूँढ़ती
वह विटप
जिसके तले कान्हा
गैया के पास
आज भी अधलेटे
सुने जो सुर
अनादि-वंशी-तान
असीम-भाग्यवान

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