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सिर्फ़ तेरे लिए लिखता हूँ मैं

अच्छा लिखता हूँ या ख़राब लिखता हूँ मैं
एक तेरे हुस्न को शराब लिखता हूँ मैं।
 
लिखने का होश भी अब तो रहा नहीं 
सिर्फ़ तेरे लिए मेरे जनाब लिखता हूँ मैं।
 
ख़ुद को छिपा के रखी तू सदा नक़ाबों
ग़ज़लों में तुझको बेनक़ाब लिखता हूँ मैं।
 
चाँद का टुकड़ा,मल्लिका-ए-हुस्न भी 
ना जाने देकर कितने ख़िताब लिखता हूँ मैं।
 
ख़ुद को छोटी क़लम समझता हूँ सदा
सिर्फ़ तेरे लिए बनके नवाब लिखता हूँ मैं।
 
क़तई ज़हर तो कभी अमृत लगती है तू 
शोला,शबनम कभी आफ़ताब लिखता हूँ मैं।
 
अनसुलझा सा सवाल रही तू मेरे ख़ातिर
तेरे हर सवालों का जवाब लिखता हूँ मैं।
 
रिश्ते का तुमने मज़ाक बनाया था कभी 
उन्हीं मज़ाकों पे पूरी किताब लिखता हूँ मैं।

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