सो नहीं मैं पाता हूँ
शायरी | ग़ज़ल तेजेन्द्र शर्मा3 May 2012
डरा डरा सा मैं रातों को जाग जाता हूँ
नींद आती है मगर सो नहीं मैं पाता हूँ।
सवाल ये नहीं ये शहर क्यों डराता है
सवाल ये है कि मैं क्यों भटक सा जाता हूँ।
ये शहर मेरा है समझो ना इसे बेगाना
मगर मैं क्यों यहां का शहरी ना बन पाता हूँ।
जो लोग गांव की मिट्टी को यहां लाए हैं
बदन में उनके अपनेपन की महक पाता हूँ।
जनम जहां हुआ क्या देश वही होता है
करम की बात को मैं क्यों समझ ना पाता हूँ।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
नज़्म
कविता
ग़ज़ल
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं