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सूर काव्य में राम-सीता की प्रेमाभिव्यक्ति का स्वरूप

सूरदास प्रणीत "सूरसागर" वास्तव में रस निधि है। इसमें मानव हृदय की गहराइयों में छिपे नाना मनोभावों का जिस कौशल के साथ प्रकटीकरण हुआ है वह अद्भुत है। और जब प्रसंग प्रेम निरूपण का हो तब ऐसा लगता है मानों सूर की लेखनी को प्रेम की स्याही में डुबा दिया गया हो। सूरदास ने जहाँ एक ओर राधा-कृष्ण और गोपियों के चंचल प्रेम का सहज-स्वाभाविक चित्रण किया है तो दूसरी ओर "सूरसागर" के नवम् स्कन्ध में राम कथा के प्रसंग में राम और सीता के प्रेम का मानवीय धरातल पर आदर्श रूप प्रस्तुत किया है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम अवश्य हैं लेकिन प्रेम की पुलक और पीर दोनों ही एक साधारण मानव की तरह उन्हें भी अनुभव होती है और व्याकुल करती है। सूरदास ने अपने राम काव्य में प्रेम के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का हृदय स्पर्शी चित्रण किया है।

राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र यज्ञ की रक्षार्थ अपने साथ ले जाते हैं। वहाँ राम ताड़का का वध कर यज्ञ पूर्ण कराते हैं। धनुष-यज्ञ में भाग लेने के निमित्त विश्वामित्र दोनों भाइयों को मिथिला लेकर जाते हैं। सीता जी जब राम का दर्शन करती हैं तो उनके हृदय में प्रेमभाव उत्पन्न हो जाता है। उनकी आँखें पुनः श्रीराम का रूप निहारना चाहती हैं। सीता जी उनके मुख की ओर देखकर भगवान से प्रार्थना करती हैं-

चितै रघुनाथ बदन की ओर।
रघुपति सौं अब नेम हमारौ विधि सौं करति निहोर।1

सीताजी मन ही मन पिता की प्रतिज्ञा को कठिन जानकर व्याकुल हो रही हैं-

तात कठिन प्रन जानि जानकी आनति नहिं उर धीर।
पानिग्रहन रघुबर बर कीन्हौ जनकसुता सुख दीन।2

नर-नारी से सम्बन्धित रति-भाव ही "श्रृंगार रस" को निष्पन्न करता है। यही मनुष्य जीवन की प्रमुख भावना है और ये भावना इतनी बलबती होती है कि सहज ही अपने में आबद्ध कर लेती है। रामधारी सिंह "दिनकर" ने उर्वशी में ठीक ही लिखा है-

इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है,
सिंह से बांहें मिलाकर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरुपाय हो जाता।
बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।

सूरदास ने प्रणय की इस भावना का बड़ा विस्तृत चित्रण किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, "प्रेम नाम की मनोवृत्ति का जैसा विस्तृत और पूर्ण परिज्ञान सूर को था वैसा और किसी कवि को नहीं।•••••• प्रेम तत्व की पुष्टि में ही सूर की वाणी मुख्यतः प्रयुक्त जान पड़ती है। रति भाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप भगवद्विषयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति-सूर ने लिए है।"3 परस्पर प्रणय भाव ही स्त्री-पुरुष को शारीरिक और मानसिक स्तर पर एकता के सूत्र में बाँधता है। सूरदास ने कंकण मोचन के अवसर पर सीता और राम की शृंगारिक भावना का बड़ा स्वाभाविक चित्रण किया है। प्रिया के प्रथम स्पर्श से राम के मन में सात्विक अनुभाव जाग्रत हो जाता है और उनके हाथ काँपने लगते हैं-

कर कंपै कंकन नहिं छूटै।
राम सिया कर परस मगन भए कौतुक निरखि सखी सुख लूटैं।4

पति-पत्नी सुख-दुःख के सच्चे साथी होते हैं। परस्पर त्याग, समर्पण और सहयोग दाम्पत्य का मूलाधार है। इसीलिए जब राम चौदह वर्षों के लिए वन जाते है, तो सीता भी उनकी अनुगामिनी होने के कारण उनके साथ जाना चाहती हैं। परन्तु राम वन के कष्टों को देखते हुए उन्हें जनकपुर जाने की सलाह देते हैं-

तुम जानकी जनकपुर जाहु।
कहाँ आनि हम संग भरमिहौ गहबर वन दुख सिंधु अथाहु।
तजि वह जनकराज भोजन सुख कत तृन तलप विपिन फल खैहो।
ग्रीषम कमल बदन कुम्हिलैहै तजि सर निकट दूरि कित न्हैहौ।
• • • • • •
सूर सत्य जो पतिव्रत राखौ संग चलौ जनि उतहीं जाहु।5

राम जहाँ सीता को कष्टों में नहीं डालना चाहते हैं वहीं सीताजी भी अपना पतिव्रत धर्म निभाते हुए कहती हैं, ऐसे सुखों से क्या लाभ जिसमें पति का साथ न हो। मेरा सच्चा सुख तो आपके चरण कमलों में है। पति के सुख-दुःख में साथ निभाने वाली पत्नी ही सच्चे अर्थो में अर्द्धांगिनी होती है। अतः आपसे दूर रहकर मैं कहाँ सुख पा सकूँगी-

ऐसो जिय न धरौ रघुराइ।
तुम सौ प्रभु तजि मो सी दासी अनत न कहूँ समाइ।
तुमरौ रूप अनूप भानु ज्यौं जब नैननि भरि देखौं।
ता छिन हृदय कमल परफुल्लित जनम सफल करि लेखौं।6

महलों में रहने वाले राजीव लोचन श्री राम अपनी सुकोमल पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को लेकर वन-वन घूमते फिरते हैं, इससे अधिक मार्मिक दृश्य और क्या हो सकता है? सूरदास ने भी इस मार्मिक दृश्य का भावपूर्ण अंकन किया है। जिस प्रकार "रामचरित मानस" के अयोध्याकाण्ड में श्री राम, सीता और लक्ष्मण वन-पथ पर जा रहे हैं, गाँव की वधुएँ सीताजी से श्रीराम के बारे में पूछती हैं-

कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सकुची सिय मन महुँ मुसुकानी।

ठीक इसी प्रकार सूरदास ने भी ग्राम वधुओं का सन्निवेश किया है। ग्रामीण स्त्रियाँ सकुचाती हुई सीताजी से पूछती हैं-

सखी री कौन तिहारे जात।
राजिव नैन धनुष कर लीन्हैं बदन मनोहर गात।7

ग्राम-वधुएँ बहुत ही मधुर वाणी में सीताजी से हँसकर पूछती हैं कि कौन तुम्हारे स्वामी और कौन देवर हैं-

कौन बरन तुम देवर सखिरी कौन तिहारौ नाथ।
कटि तट पट पीतांबर काछे धारे धनु तूनीर।
गौर बरन मेरे देवर सखि पिय मम स्याम सरीर।8

दाम्पत्य सम्बन्धों में वियोग का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है। जब प्रिय दूर होता है, तभी प्रेम की गहराई और प्रिय की महत्ता का सही पता चल पाता है। विरह प्रेम को प्रगाढ़ करता है। सीताहरण के पश्चात् रामविलाप से प्रकट होता है कि प्रिय से विछोह की पीड़ा क्या होती है।

राम स्वर्ण-मृग रूपी मारीच को मारने उसके पीछे चले गये। मारीच तो मारा गया परन्तु उसने मरते-मरते राम की आवाज़ बनाकर "हा लक्ष्मण" क्रन्दन किया। सीता ने आशंकावश लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। सीता को अकेला पाकर रावण ने छलपूर्वक उनका हरण कर लिया-

मृग स्वरूप मारीच धरयौ तब फेरि चल्यौ मारग जो दिखाई।
श्री रघुनाथ धनुष कर लीन्हौ लागत बान देव गति पाई।
हा लछिमन सुनि टेर जानकी बिकल भई आतुर उठिधाई।
• • • • • • •
हरि सीता लै चल्यौ डरत जिय मानौ रंक महानिधि पाई।9

मर्यादा पुरुषोत्तम धीर-वीर-गम्भीर श्री राम सीता के विरह में करुण विलाप करते हैं। भाव - विह्वल सूरदास का करुणार्द्र हृदय कह उठता है-

रघुपति कहि प्रिय नाम पुकारत।
हाथ धनुष लै मुक्त मृगहिं किए चकृत भए दिशि विदिशि निहारत।
निरखत सून भवन जड़ है रहे खिन लोटत धर बपु न सँभारत।
हा सीता सीता कहि सियपति उमगि नयन जल भरि भरि ढारत।10

सीता-हरण से राम का दुःख के सागर में डूब जाना स्वाभाविक ही है। तुलसी ने राम की विरह वेदना को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है-

हे खग हे मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम देखी सीता मृगनयनी।

सूर भी कहते हैं-

फिरत प्रभु पूछत बन द्रुम बेली।
अहो बंधु काहू अवलोकी इहिं मग वधू अकेली।
अहो बिहंग अहो पन्नगनृप या कंदर के राई।
अब की बार मम विपति मिटावौ जानकि देहु बताइ।11

राम सीता के वियोग में एक साधारण मानव की तरह विलाप करते हैं। ये उनके परस्पर प्रगाढ़ प्रेम का प्रतीक है। रामनिरंजन पाण्डेय के अनुसार, "राम में भी सीता के हरण के पश्चात्, उनके वियोग की गुरूता कम नहीं। स्वयं सूर वियोग की उस गुरूता को देखकर असमंजस में पड़ जाते हैं और कहने लगते हैं, जगत् गुरू राम की गति अद्भुत है। विचार अपनी सीमा के भीतर उस गति को बाँध नहीं सकता, अनन्त राम भी कामवश होकर करुणा से इस प्रकार पीड़ित हो सकते हैं, यह बात कल्पना में भी नहीं आ सकती, पर राम में देखी अवश्य जाती है।"12

सूर की सीता मनवच क्रम से रावण के सन्मुख भी दृढ़ रहती हैं। सीता का राम के प्रति अटूट प्रेम है। वे त्रिजटा से कहती हैं कि भले ही सुमेरू पर्वत डोल जाये, धरती को धारण करने वाले शेष नाग के फन काँपने लगें, सूर्य पश्चिम दिशा से उदित हो जाये फिर भी राम के प्रति मेरा प्रेम नहीं छूट सकता-

मैं तो राम चरन चित दीन्हौं।
मनसा वाचा और कर्मना बहुरि मिलन को आगम कीन्हौं।
डुलै सुमेरू सेष सिर कंपै पच्छिम उदै करै बासरपति।
सुनि त्रिजटा तौहूँ नहिं छाड़ौं मधुर मूर्ति रघुनाथ गात रति।13

सीता का प्रेम केवल राम तक ही सीमित नहीं है बल्कि प्रिय का प्रिय होने के कारण पूरा परिवार उनके लिए प्रिय है। परस्पर एक-दूसरे के परिवार का सम्मान दाम्पत्य सम्बन्धों को और अधिक मज़बूत और मधुर बनाता है। दुःख की इस घड़ी में सीता परिवारी जनों का स्मरण करती हैं-

सो दिन त्रिजटा कहि कब ऐहै।
जा दिन चरन कमल रघुपति के हरषि जानकी हृदय लगैहे।
कबहुँक लछिमन पाइ सुमित्रा माइ माइ कहि मोहि सुनैहै।
कबहुँक कृपावंत कौसिल्या वधू-वधू कहि मोहि बुलैहै।14

सूर सहृदय कवि हैं, गोपियों की विरह व्यथा से पहले ही उनका हृदय विदीर्ण था सीता के कष्टों को देखकर तो उनका हृदय धैर्य की सीमा ही छोड़ देता है। गोपियों ने केवल कृष्ण का विरह झेला। सीता प्रिय का वियोग भी सहती हैं और परपुरुष के वश में रहकर तरह-तरह के कष्ट सहकर भी पातिव्रत्य की रक्षा करती हैं। विरह में कभी-कभी प्रेमी अपने प्रिय को उलाहना भी देता है। ये उलाहना पीड़ादायी नहीं बल्कि प्रेरणादायी होता है ताकि विरह व्यथा का अनुमान करके प्रिय उससे मिलने का उपक्रम कर सके। इसी लिए गोपियाँ कृष्ण के प्रति कहती हैं-

हरि सों भलो सो पति सीता को।
बन-बन खोजत फिरत बंधु संग, कियो सिंधु बीतो को।
रावन मार्यो, लंका जारी, मुख देख्यो सीता को।

श्री राम के चरणों में रत सीता का कोमल हृदय विरह वेदना से व्याकुल हो उठा है। राम बिन एक-एक पल, एक-एक क्षण व्यतीत नहीं होता। जिनकी छत्रछाया में रहकर वन के कंटक और आपदाएँ भी उन्हें सुखकारी प्रतीत हो रहे थे। आज उन्हीं स्वामी से दूर होना सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात है। राम अतिशीघ्र रावण को मारकर उन्हें यहाँ से मुक्त करायें इसी आकांक्षा से वे हुनमान से उलाहना देती हुई कहती हैं-

सुनु कपि वै रघुनाथ नहीं।
जिन रघुनाथ पिनाक पिता गृह तोरयौ निमिष महीं।
जिन रघुनाथ फेरि भृगुपति गति डारी काटि तहीं।
जिन रघुनाथ हाथ खर दूषन प्रान हरे सरहीं।
कै रघुनाथ तज्यौ प्रन अपनौ जोगिनि दसा गही।
• • • • • • •
सूरदास स्वामी सौं कहियौ अब बिरमाहिं नहीं।15

सीता अपने दुःख निवारण हेतु राम से विनय करती हैं-

कहियौ कपि रघुनाथ राज सौं सादर यह इक बिनती मेरी।
नाहीं सही परति मोपै अब दारुन त्रास निसाचर केरी।
• • • • • •
सूर सनेह जानि करूनामय लेहु छुड़ाइ जानकी चेरी।16

इस प्रकार सूरदास ने संक्षेप में ही सही राम-सीता के प्रेम की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की है। जिस प्रकार सोना आग में तपकर शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार कष्टों और बाधाओं को मिलकर सहने से प्रेम सम्बन्ध प्रगाढ़ हो जाते हैं। शरीर का स्थान गौड़ होता जाता है, सुख-दुःखानुभूति के लिए मन मिलकर एक हो जाते हैं। सूरदास ने प्रणय सम्बन्धों में मिलन और विरह दोनों का सजीव चित्रण किया है। डॉ. मुन्शी राम के अनुसार "••••••एक ओर जीवन के सौन्दर्य एवं माधुर्य प्रधान अंश का चित्रण करके खिन्न हृदयों को सान्त्वना तथा जीवन से उदासीन और विरक्त व्यक्तियों को आशा प्रदान की है तो दूसरी ओर अन्तर्हृदय के चित्रण में वियोग-व्यथा का व्यापक वर्णन करके एकनिष्ठ प्रेम द्वारा मानव को जीवन की जटिल पहेलियों को सुलझाने का मार्ग भी प्रशस्त किया है।"17

वास्तव में सूर ने कृष्णकाव्य की भांति रामकाव्य में भी सफलता पूर्वक प्रेम निरूपण किया है।

सन्दर्भ सूची-

1. सूरसागर, पृ.सं.-250, पद सं. 23
2. उपरोक्त, पद सं. 252, पद सं. 26
3. सूरदास पृ. सं. 4 तथा 18, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
4. सूरसागर, पृ.सं. 250, पद सं. 25
5. उपरोक्त, पृ.सं. 254, पद सं. 34
6. उपरोक्त, पृ.सं. 254, पद सं. 35
7. उपरोक्त, पृ.सं. 258, पद सं. 44
8. उपरोक्त, पृ.सं. 258, पद सं. 45
9. उपरोक्त, पृ.सं. 264, पद सं. 59
10. उपरोक्त, पृ.सं. 266, पद सं. 63
11. उपरोक्त, पृ.सं. 266, पद सं. 65
12. रामभक्ति शाखा- पृ. 405, रामनिरंजन पाण्डेय
13. सूरसागर, पृ. 276, पद सं. 83
14. उपरोक्त, पृ. 276, पद सं. 82
15. उपरोक्त, पृ.सं. 284, पद सं. 92
16. उपरोक्त, पृ.सं. 284, पद सं. 92
17. सूर सौरभ भाग 2, खण्ड 2, पृ. सं. 128-डॉ. मुन्शी राम शर्मा

डॉ. सुरंगमा यादव
असि. प्रो. हिन्दी
महामाया राजकीय महाविद्यालय महोना,
लखनऊ (उ.प्र.)

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