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 सूर के रामकाव्य में वात्सल्य वर्णन

सूरदास के रामकाव्य का मूलाधार श्रीमद्भागवत् है। भागवत् के नवम् स्कन्ध में दसवें तथा ग्यारहवें अध्याय में रामकथा का उल्लेख हुआ है। रामकथा लोक प्रसिद्ध रही है, इसलिए भागवत्कार ने बहुत विस्तार से रामकथा का वर्णन न करके मात्र 92 छन्दों में सम्पूर्ण कथा वर्णित की है। वस्तुतः संस्कृत साहित्य में राम-काव्य प्रचुर मात्रा में मिला है। रामकथा पर आधारित वाल्मीकिकृत "रामायण" आदि महाकाव्य है। यद्यपि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि रामकथा गाथा के रूप में वाल्मीकि के पूर्व ही प्रचलित हो चुकी थी तथा गाथा रूप में प्रचलित उसी रामकथा ने बौद्ध जातक तथा जैन पुराणों के स्रोतों को भी प्रभावित किया। भले ही रामकथा वाल्मीकि से पूर्व प्रचलित क्यों न हो परन्तु वाल्मीकि की प्रतिभा ने उसे सर्वथा मौलिक स्वरूप प्रदान किया। इसमें राम के लोककल्याणकारी चरित्र का वर्णन बड़ा ही मार्मिक है। रामायण के राम का चरित्र उत्तरोत्तर विकास पाता चला गया। हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, भागवत् पुराण, अध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण, अद्भुत रामायण, भुशुण्डि रामायण, रघुवंश, प्रतिमानाटकम्, उत्तररामचरित, हनुमन्नाटक आदि में राम का चरित्र रोचक ढंग से व्याख्यायित हुआ है।

हिन्दी साहित्य भी समृद्ध रामकथा साहित्य से पूर्णरूपेण प्रभावित हुआ। हिन्दी में राम-काव्य का सर्वप्रथम प्रणयन चन्दबरदाई ने किया। इन्होंने पृथ्वीराजरासो महाकाव्य में भगवान के दस अवतारों का वर्णन किया है, उसी में रामकथा सम्बन्धी प्रमुख प्रसंगों का संक्षिप्त वर्णन है। हिन्दी की राम-काव्य परम्परा में रामानन्द जी का प्रमुख स्थान है। वास्तविक रामकाव्य परम्परा की शुरूआत इन्हीं से मानी जाती है। रामानन्द जी द्वारा लिखे दो संस्कृत ग्रन्थ "वैष्णवमताब्ज भास्कर" और "श्री रामार्चन पद्धति" मिलते हैं। रामानन्द जी ने विष्णु के विभिन्न रूपों में "रामरूप" को ही लोक के लिए अधिक कल्याणकारी मानकर स्वीकार किया। यद्यपि तुलसीदास राम-काव्य-परम्परा के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं तथापि कृष्णभक्ति धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि सूरदास का भी राम-काव्य परम्परा में प्रमुख स्थान है। इन्होंने सूरसागर के नवम् स्कन्ध में राम-कथा के मार्मिक प्रसंगों पर सुन्दर पद रचना की है। सूरदास का उद्देश्य सम्पूर्ण रामकथा को पूर्वापर प्रसंग के साथ वर्णित करना नहीं था अपितु मार्मिक स्थलों को अभिव्यक्त करना था। मात्र 158 पदों में उन्होंने रामकथा के प्रमुख स्थलों की मार्मिक अभिव्यंजना की है।

सूर ने संक्षेप में ही पारिवारिक जीवन के सफल एवं आत्मीयता पूर्ण चित्र खींचे हैं। पारिवारिक जीवन के प्रसंगों में वात्सल्य प्रसंग अति महत्वपूर्ण है क्योंकि वात्सल्य से ही दाम्पत्य पूर्णता पाता है। बिना वात्सल्य दाम्पत्य पुष्प विहीन पौधे की तरह होता है। जिस प्रकार पौधे में पुष्प आ जाने पर उसकी सुन्दरता अगणित हो जाती है, वृक्ष में फल आ जाने पर धरती पर उसका अंकुरित होना सार्थक हो जाता है, ठीक उसी प्रकार वात्सल्य से दाम्पत्य गौरवान्वित होता है। सन्तान के जन्म का अवसर माता-पिता तथा पूरे परिवार के लिए कितना आनन्द और उल्लासमय होता है, इसका सजीव अंकन सूरदास ने किया है। यद्यपि सूरसागर में श्री राम जन्म सम्बन्धी मात्र तीन पद हैं, परन्तु इतना ही संक्षिप्त वर्णन सम्पूर्ण भाव को प्रकट करने में समर्थ है। राजा दशरथ के यहाँ पुत्र जन्म का समाचार सुनकर भीड़ एकत्र हो जाती है। अयोध्या के लोग ख़ुशी से भर उठे हैं, उनकी आँखों से आनन्द के आँसू बह रहे हैं। श्री राम के जन्म लेते ही बधाई बजने लगती है। महिलाएँ मंगलगीत गाने लगती हैं। दशरथ के आँगन में वैदिक ध्वनियाँ गूँजने लगती हैं-

अजोध्या बाजति आजु बधाई।
गर्भ मुच्यौ कौसिल्या माता रामचंद्र निधि आई।
गावैं सखी परस्पर मंगल रिषि अभिषेक कराई।
भीर भई दसरथ कै आँगन सामबेद धुनि छाई।

राजा दशरथ के यहाँ आनन्दोत्सव मनाया जा रहा है। रघुकुल में राम प्रकट हुए हैं। देश-देश से उपहार आ रहे हैं। मंगलगीत गाये जा रहे हैं। सभी पुरवासी आनन्द में मग्न होकर नवजात शिशु को आशीर्वाद दे रहे हैं-

देत असीस सूर चिरजीवौ रामचंद्र रनधीर।

राम का बाल रूप मन मुग्ध कर देने वाला है। राम के हाथ में नन्हा-सा धनुष सुशोभित हो रहा है। छोटे-छोटे पैरों में लाल पनहियाँ पहने हुए हैं। राम सहित चारों भाई ऐसे प्रतीत होते हैं मानों देह धारण कर चार हंस सरोवर में आ बैठे हों-

करतल सोभित बान धनुहियाँ।
खेलत फिरत कनकमय आँगन पहिरे लाल पनहियाँ।
दसरथ कौसिल्या के आगे लसत सुमन की छहियाँ।
मानौ चारि हंस सरबर तै बैठे आइ सदेहियाँ।

इसी प्रकार-

धनुही बान लए कर डोलत।
चारौं बीर संग इक सोभित वचन मनोहर बोलत।

उनकी बाल-लीलाओं को देखकर राजा दशरथ और माता कौशल्या हर्ष-मग्न हो जाते हैं। सूरदास ने बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं का सहज-स्वाभाविक चित्रण किया है। डॉ. मुन्शीराम शर्मा के अनुसार, "सूर की यह अनुपम विशेषता है कि वह स्वाभाविक बालदशाओं के चित्रण द्वारा सहज ही पाठकों के मन में रसोद्रेक कर देते हैं।"

सूरदास ने रामकाव्य के अन्तर्गत वात्सल्य के वियोग पक्ष का बड़ा कारुणिक चित्रण किया है। श्रीराम के विवाह के पश्चात् दशरथ मन में विचार करते हैं कि राम को राज्य देकर स्वयं वानप्रस्थ ले लें। परन्तु कैकेयी वात्सल्य प्रेम के आधिक्यवश अपने पुत्र भरत को राज्य देने का हठ करती हैं-

महाराज दसरथ मन धारी।
अवधपुरी को राज राम दै लीजै ब्रत बनचारी।
यह सुनि बोली नारि कैकई अपनौ बचन सँभारौ।
चौदह वर्ष रहैं बन राघव छत्र भरत सिर धारौ।
यह सुनि नृपति भयौ अति व्याकुल कहत कछु नहिं आई।
सूर रहे समुझाइ बहुत पै कैकई हठ नहिं जाई।

जिसके पुत्र को राजसी सुखों का परित्याग कर चौदह वर्षो तक वनवासियों की तरह कठिन जीवन-यापन की सज़ा दी जा रही हो उस पिता पर क्या बीतेगी? दशरथ भी कैकयी की बात सुनकर गहरे शोक में डूब गये। राम के वन गमन की कल्पना मात्र ही उन्हें व्याकुल कर देती है। अपने प्रिय पुत्र से बिछोह का समाचार सुनकर कौशल्या अत्यन्त दीन होकर नेत्रों से आँसू बहाने लगती हैं। वे समझ नहीं पाती हैं कि ये सब प्रत्यक्ष है अथवा स्वप्न-

महाराज दशरथ यौं सोचत।
हा रघुनाथ लछन वैदेही सुमिरि नीर दृग मोचत।
× × ×
कौसिल्या सुनि परम दीन ह्वै नैन नीर ढरकाए।
विह्वल तन मन चकृत भई सो यह प्रतच्छ सुपनाए।

राजा दशरथ ने अनेक युक्ति-उपाय तथा तपस्या के बाद प्रौढ़ावस्था में पुत्र-रत्न प्राप्त किए। इसलिए उनका अत्यधिक मोह स्वाभाविक है। राम को वन जाते देख उनका हृदय व्याकुल हो उठता है। वे चाहते हैं राम कम से कम एक दिन तो और रूक जायें ताकि कुछ समय और उनके मीठे वचन सुन लें। वन जाने के पश्चात् तो उनके दर्शन और वचन दोनों ही दुर्लभ हो जायेंगे-

रघुनाथ पियारे आजु रहौ हो।
चारि जाम बिस्राम हमारे छिन छिन मीठे वचन कहौ हो।
वृथा होहु वर वचन हमारौ कैकई जीव कलेस सहौ हो।
आतुर ह्वै अब छांडि कुसलपुर प्रान जिवन कित चलन कहौ हो।
बिछुरत प्रान पयान करैंगे रहौ आजु पुनि पंथ गहौ हो।

पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर राम वन की ओर चल पड़ते हैं। राजा दशरथ को बहुत अधिक पश्चाताप होता है। वे पुनः इसी बात की चर्चा चलाते हैं-

फिरि फिरि नृपति चलावत बात।
कहु री सुमति कहा तोही पलटी प्रान जिवन कैसे बन जात।

राम जब वन की ओर प्रस्थान करते हैं तो महाराज दशरथ ऊँचे भवन पर चढ़कर नेत्र भरकर पुत्र के मुख को देख लेना चाहते हैं। राम को जाते देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आते हैं और वे हा बेटा, हा बेटा कहकर बेसुध हो जाते हैं-

आजु रघुनाथ पयानो देत।
विह्वल भए स्रवन सुनि पुरजन पुत्र पिता कौ हेत।
ऊँचे चढ़ि दशरथ लोचन भरि सुत मुख देखै लेत।
× × ×
तात तात कहि बैन उचारत ह्वै गए भूप अचेत।

कैकयी के वर माँगने पर राजा दशरथ के साथ ही सम्पूर्ण अयोध्या में विषाद का वातावरण छा गया। वनवास का वरदान माँगने की सूचना जैसे ही राम को पहुँचती है, उन्होंने माता-पिता की आज्ञा पालन अपना सौभाग्य समझा और वन की ओर प्रस्थान किया। उन्हें वापस लाने के लिए सुमंत्र रथ लेकर गये। किन्तु राम ने उन्हें लौटा दिया। पुत्र वियोग के ताप से तप्त शरीर को दशरथ ने तत्काल त्याग दिया। सन्तान का वियोग माता-पिता के लिए असहनीय होता है-

तात वचन रघुनाथ माथ धरि जब बन गौन कियौ।
मन्त्री गयौ फिरावन रथ लै रघुबर फेरि दियौ।
भुजा छुड़ाई तोरि तृन ज्यों हित करि प्रभु निठुर हियौ।
यह सुनि तात तुरत तनु त्याग्यौ बिछुरन ताप तयौ।

कौशल्या के हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति सूरदास ने की है। कौशल्या विलाप करती हुई कहती है कि राम को भरत के आने तक तो रोक लो-

रामहिं राखौ कोउ जाइ।
जब लौं भरत अजोध्या आवैं कहत कौसल्या माई।

सुमित्रा का हृदय भी वात्सल्य भाव से पूर्ण है। उनके मन में राम के प्रति भी उतना ही स्नेह और ममत्व है जितना लक्ष्मण के प्रति। लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने पर वे व्याकुल तो हो जाती हैं, परन्तु ये भी कहती हैं कि जो राम के काम आये ऐसे पुत्र को जन्म देकर मैं धन्य हो गयी-

धनि जननी जौ सुभटहिं जावै।
भीर परैं रिपु कौ दल दलि मलि कौतुक करि दिखरावै।
कौसिल्या सौं कहति सुमित्रा जनि स्वामिनि दुख पावै।
लछिमन जनि हौं भई सपूती रामकाज जो आवै।

कौशल्या भी अपने ही पुत्र के लिए व्याकुल नहीं है। परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति उनके मन में उतना ही स्नेह है, जितना राम के प्रति। हनुमान से लक्ष्मण के मूर्च्छित होने का समाचार सुनकर वे अत्यन्त दुखी हो जाती हैं। और हनुमान के द्वारा राम को संदेश कहलाती हैं कि राम लक्ष्मण के साथ ही अयोध्या लौटें अन्यथा स्वयं को भी लक्ष्मण पर वार दें-

सुनौ कपि कौसिल्या की बात।
इहिं पुर जनि आवहु मम वत्सल बिनु लछिमन लघु भ्रात।
× ×
लछिमन सहित कुसल वैदेही आनि राजपुर कीजै।
नातरू सूर सुमित्रा सुत पर वारि अपुनपौ दीजै।

ये वात्सल्य प्रेम की उदात्त स्थिति है। जहाँ "मैं" और "पर" का भाव समाप्त होकर "जग सुत" "स्व सुत" से लगने लगते हैं। यही एकता का भाव संयुक्त परिवारों की सफलता का आधार भी था। जहाँ केवल अपना नहीं सबका हित देखा जाता था। यही कारण है कि सुमित्रा रामकाज हित बलिदान हो जाने में ही लक्ष्मण का जीवन सफल समझती हैं। तो दूसरी और कौशल्या चाहती हैं कि राम लक्ष्मण के साथ ही घर आयें। यह सम्बन्धों की आदर्श स्थिति है, जहाँ त्याग, उत्सर्ग और प्रेम ही प्रधान होता है। उदात्त वात्सल्य प्रेम का ऐसा अनोखा दृश्य अन्यत्र दुर्लभ है।

कौशल्या राम और लक्ष्मण के लिए कौए से शगुन विचारती हैं। एक भारतीय माँ का पूर्ण रूप यहाँ प्रकट होता है जो किसी भी स्थिति में कैसे भी अपनी सन्तान का हित चाहती है-

बैठी जननि करति सगुनौती।
लछिमन राम मिलैं अब मोकौ दोउ अमोलक मोती।
इतनी कहत सुकाग उहां तैं हरी डार उड़ि बैठयौ।
अंचल गाँठि दई दुख भाज्यौ सुख जु आनि उर पैठयौ।
× × ×
सूरदास सोने कैं पानी मढ़ौं चोंच अरू पाँखें।

कौशल्या अपने दोनों पुत्रों के लिए उतनी ही व्याकुल है। परन्तु वे पहले लक्ष्मण का ही नाम लेती हैं "लछिमन राम मिलैं अब मोकौ" ये उनके उदात्त वात्सल्य रूप का ही परिचायक है। राम-लक्ष्मण के अयोध्या आगमन का समाचार सुनकर कौशल्या और सुमित्रा का मन उनसे मिलने के लिए उसी प्रकार व्याकुल हो उठता है, जिस प्रकार गाय दिन भर अपने बछड़े से दूर रहती है और शाम होते ही वात्सल्य के आधिक्य के कारण स्वतः उसके थनों से पय धार बहने लगती है। वैसे ही उन दोनों माताओं के हृदय में पुत्र प्रेम की धारा उमड़ पड़ती है-

अति सुख कौसिल्या उठि धाई।
उदित बदन मन मुदित सदन तै आरति साजि सुमित्रा ल्याई।
जनु सुरभी बन बसति बच्छ बिनु परबस पसुपति की बहराइ।
चली साँझ समुहाइ स्रवत थन उमगि मिलन जननी दोउ आई।

महाकवि सूरदास मानव-मन के ज्ञाता थे। पुरुष होते हुए भी माँ के मन की कोमलता और भावुकता से सम्पन्न थे, तभी तो मातृ हृदय का सजीव अंकन करने में सफल हो सके। सूर ने वात्सल्य रस का जैसा हृदय स्पर्शी चित्रण किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उनकी भावाभिव्यक्ति अनूठी है।उनके वाग्वैदग्ध्य को लक्ष्य करके ही कहा गया है कि-

किंधौं सूर को सर लग्यौ, किंधौं सूर की पीर।
किंधौं सूर को पद लग्यो, तन मन धुनत सरीर।।

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