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स्त्री जीवन के भोगे हुए यथार्थ की कहानी : 'नदी'

पुस्तक : 'नदी' (उपन्यास)
लेखिका : उषा प्रियम्वदा
प्रकाशन : 2014, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 170
मूल्य : 350/-

समकालीन हिंदी साहित्य की सुविख्यात कथा-लेखिका उषा प्रियम्वदा द्वारा रचित अद्यतन उपन्यास 'नदी' है। इससे पूर्व लेखिका ने 'पचपन खंभे लाल दीवारें (1961), रुकोगी नहीं राधिका (1966), शेष यात्रा (1984), अंतर-वशी (2000) और भया कबीर उदास (2007) ' उपन्यासों की रचना करके उद्देश्यपूर्ण स्त्री-वादी लेखन में अपनी अलग पहचान बनाई। इसी क्रम में 'नदी' लेखिका सद्य: प्रकाशित उपन्यास है जो विदेशी परिवेश में स्त्री जीवन के आत्मसंघर्ष का सशक्त नेरेटिव है। वैयक्तिक तथा सामाजिक, दोनों मोर्चों पर स्त्री अपने अस्तित्व की रक्षा और स्वाभिमानपूर्ण जीवन के अधिकार की लड़ाई लड़ती है। स्त्री के संघर्ष का एक मोर्चा अहंकारी पुरुष के अन्यायपूर्ण उत्पीड़न के ख़िलाफ़ है। 'नदी' स्त्री के उस उत्पीड़ित जीवन प्रवाह का प्रतीक है जो आत्मसंघर्ष, उत्पीड़न, रूढ़ियों, अभावों और अविश्वासों के पथरीले उतार-चढ़ावों से होकर गुजरती है।

'बस- बहने दो जीवन सरिता को कहीं कहीं- जल्दी या देरी से- कोई-न-कोई हल तो निकलेगा ही।' यही सूत्र है 'नदी' उपन्यास का। हिंदी कथा साहित्य में अविस्मरणीय ख्याति प्रात कर चुकीं उषा प्रियम्वदा का यह नया उपन्यास स्त्री विमर्श की नई ऊँचाइयों को छूता है। नियति, अबूझ जीवन और प्रारब्ध 'नदी' की नायिका आकाशगंगा को जाने किस-किस रूप में कहाँ-कहाँ से विस्थापित करता है।

विदेश (अमेरिका) में निवास करती आकाशगंगा, पुत्र 'भविष्य' की कैंसर से मृत्यु के लिए इस सीमा तक अपने पति द्वारा उत्तरदायी मानी जाती है कि वह परिवार से अन्यायपूर्ण तरीके से विच्छिन्न कर दी जाती है। पति गगनेन्द्र अपने बेटे 'भविष्य' की बीमारी के लिए उसे दोषी ठहराकर विदेश में अकेली छोड़कर, उसे बेघर और बेसहारा करके, बिना बताए, अपनी दो बेटियों को साथ लेकर भारत आ जाता है। ऐसी स्थिति में विदेश में गंगा अकेली अपने जीने की राह तलाशती है। यहीं से एकाकी आकाशगंगा का संघर्ष आरंभ होता है। उसके पास अमेरिका में रहने के लिए आवश्यक वीज़ा (पासपोर्ट) के कागज़ात, डॉलर, कुछ भी नहीं बचते। उनका मकान गगनेद्र, अर्जुन सिंह नामक भारतीय को बेचकर चला जाता है। आकाशगंगा को अर्जुन सिंह ही आश्रय देता है। गंगा, अर्जुन सिंह के शरण में सुरक्षा तलाशती हुई उसके प्रेम को स्वीकारती है। अर्जुन सिंह के बाद वह डॉक्टर एरिक के संपर्क में आती है। एरिक की सहायता से वह भारत लौटकर सास-ससुर और बेटियों की आत्मीयता में घिरने लगती है कि एक अप्रत्याशित स्थिति उसे पुन: अमेरिका पहुँचा देती है।

प्रवीण दंपति के साथ रहकर गंगा जीवन का नया अध्याय शुरू करती है। एरिक के साहचर्य से उत्पन्न उसका पुत्र 'स्तव्य' (स्टीवेन) उसके जीवन के एक निर्णायक मोड़ पर आ खड़ा होता है। आकाशगंगा अपने जीवन प्रवाह में जिन ऊँचाइयों, गहराइयों, मैदानों, घाटियों, संकीर्ण पथों, प्रशस्त पाटों से गुज़रती है उन्हें उषा प्रियम्वदा ने जीवंत कर दिया है।

उषा प्रियम्वदा ने आकाशगंगा के बहाने स्त्री-जीवन के कटु-कठोर यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया है। लेखिका स्वयं अमेरिका में रह चुकी हैं। अमेरिका के प्रवासी भारतीय समाज के प्रति उनकी विशिष्ट विश्लेषणात्मक दृष्टि रही है। इससे पहले भी उन्होंने विदेशी परिवेश में असहाय भारतीय स्त्री के संघर्ष को अपने उपन्यासों का विषय बनाया है। संघर्षशील स्त्री के जीवन में पुरुषों का प्रवेश नैतिकता के सामाजिक मानदंडों को जिस तरह छिन्न-भिन्न करके स्त्री की मानसिकता को कुंठित कर देती है। उन्हें अपनी अस्मिता को स्थापित करने के लिए जिन राहों को तलाशना पड़ता है उसका गत्यात्मक चित्रण इस उपन्यास का केंद्र बिन्दु है। उपन्यास तीन खंडों में विभाजित है। प्रथम और अंतिम खंड में लेखिका ने नायिका आकाशगंगा के अमरीकी जीवन का संवेदनशील चित्रण किया है। दूसरे खंड में आकाशगंगा का पारिवारिक जीवन भारतीय परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। इसमें भारतीय पारिवारिक संवेदनाएँ मुखर हो उठी हैं। पति परित्यक्ता नायिका अपने बेटियों और सास-ससुर के बीच आकर उस सामाजिक अधिकार को पुन: प्राप्त करना चाहती है जिसकी वह विवाहित स्त्री के रूप में हक़दार है। किन्तु पति गगनेद्र दूसरे शहर में अन्य स्त्री के संग जीवन बिताता हुआ, पत्नी आकाशगंगा से प्रतिशोध लेता है। इस प्रतिशोध का कोई सामाजिक और नैतिक आधार नहीं है। वह अपने अहंवादी तेवर से पत्नी (स्त्री) को नष्ट कर देना चाहता है। आकाशगंगा इन स्थितियों में अपने भावी जीवन की एकाकी स्थिति से समझौता करने के लिए बाध्य है। उपन्यास में भारतीय कुटुंब व्यवस्था और विदेशी उन्मुक्त सामाजिकता, जैसे दोनों परिवेशों को भारतीय स्त्री की अस्मिता और जीवन संघर्ष के संदर्भ में चित्रित किया गया है। आकाशागंगा भारतीय पारंपरिक कुटुंब व्यवस्था से स्वयं को अलग कर अपने गर्भ में पल रहे 'एरिक' के शिशु को बचाकर उसे जन्म देने के लिए अमेरिकी परिवेश में लौट जाती है, क्योंकि इस मोड़ पर उसका निर्दिष्ट जीवन विदेशी परिवेश में ही संभव है। यह सामाजिक और पारिवारिक परिवेशगत (भारतीय और विदेशी) विरोधाभास उपन्यास का मूल कथ्य है।

स्त्री जीवन के अँधेरों में छिपे हुए प्रेम प्रसंगों की परिणतियाँ उनके जीवन को तहस-नहस कर देती हैं। आकाशगंगा और प्रवीण दोनों अपने गोपनीय प्रेम संबंधों को एक दूसरे से साझा करते हैं। दोनों का ही जीवन इन स्थितियों में गोपनीय ढंग से ही नया मोड़ ले लेता है। किन्तु पुरुष अपने संबंधों को मुक्त और स्वच्छंद रूप में निर्वाह करने का हक़दार बन जाता है, जब कि यही स्थितियाँ स्त्रियों के जीवन में पहेली बन जाती हैं। उषा प्रियम्वदा इस पहेली को सुलझाने का प्रयास करती हैं।

उपन्यास का तीसरा भाग उस खुले प्रवासी भारतीय समाज के परिवेश को प्रस्तुत करता है जहाँ आकाशगंगा प्रवीण दंपति के संपर्क में आकर जीवन को नई दिशा में मोड़ देती है। वह अपने अस्तित्व को स्वेच्छा और स्वाभिमान से अपना शेष जीवन वहीं बिताने का संकल्प करती है। इस मुक्त जीवन के लिए एरिक के पुत्र को जन्म देने के लिए वह सब कुछ पीछे छोड़ देती है। आकाशगंगा की जीवन धारा परिस्थितियों के प्रवाह में अप्रत्याशित दिशाओं में निरंतर बहती जाती है। स्त्री विमर्श के कई प्रश्न इस उपन्यास में मौजूद हैं जिसकी पड़ताल अपेक्षित है। स्त्री जीवन में पारिवारिक और वैयक्तिक मूल्यों की टकराहट के अंतर्विरोध को सुलझाकर जीवन की स्वाभाविक गति को पकड़ने के प्रयास को ही उषा प्रियम्वदा प्रस्तुत करती हैं।

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