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स्त्री पाठ : दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता

शोध- सारांश

मानव सभ्यता का विकास प्रकृति के कोख से हुआ है। चाहे वह नर हो या फिर मादा दोनों का रख-रखाव प्रकृति एक समान रूप से करती है और उनका पालन -पोषण भी एक समान ही करती है। नर और मादा में अंतर तो बुद्धिजीवी मानव के विकसित होने पर होने लगा। जब से यह अंतर मानव प्रवृत्ति में घुसा तभी से मादा पर अत्याचार होने लगा। दुनिया की कोई भी सभ्यता एवं संस्कृति स्त्री के बिना विकसित नहीं हो सकती। सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के विकसित होने में स्त्री का बहुत ही योगदान रहा है। इसके योगदान को किसी परिसीमन में बाँधा या सराहा नहीं जा सकता। इतिहास इस बात का गवाह है कि जब सभ्यताएँ एवं संस्कृति विकसित नहीं हुई थी तब भी एक मादा शिशु को जन्म देती है, और प्रसवपीड़ा का दर्द सहती रही। स्त्री- पाठ का सम्बन्ध मानवीय सभ्यताओं से जुड़ा हुआ है। स्त्री- पाठ का इतिहास दुनिया की किसी भी सभ्यता के इतिहास से भी पुराना है। हाँ यह अलग बात है कि समय-समय पर दुनिया में अलग-अलग हिस्सों में सभ्यताएँ और संस्कृतियों का विकास हुआ और उनका अलग-अलग स्त्री-पाठ विकसित हुआ। स्त्रियों के बिना इन्सानी सृष्टि नहीं चल सकती। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर भूरेलाल का मानना है कि, "स्त्री के बिना मानवीय जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती।" स्त्री मानवीय भंगिमाओं को भी धारण करती है। 

बीज- शब्द :  

इन्सानी, सभ्यताएँ, जातिवाद, भ्रूण-हत्या, अनचाहे गर्भ, सम्वेदनशीलता, भयवाह, हक़ीक़त, आदि। 

परिकल्पना :

प्रकृति के मुहाने से इन्सानी सभ्यता के बहाने स्त्री के बचाने के साथ- साथ पूरी कायनात को बचाने की बात। 

आमुख –

मनुष्य का जीवन प्रकृति की गोद में विकसित हुआ, अतः प्रकृति को चलाने के लिए स्त्री का होना बेहद ज़रूरी है। बिना स्त्री के प्रकृति का  नियति-चक्र नहीं चल सकता। स्त्री के ख़त्म होते ही संपूर्ण मानवता ख़त्म हो जाएगी। प्रकृति अपनी धुरी पर रुक जाएगी। इस दुनिया में चारों तरफ पानी, पहाड़, जंगल, उबड़-खाबड़ ज़मीन शेष रह जाएगी। इस चिंता को व्यक्त करते हुए छायावादी  महान कवि 'जयशंकर प्रसाद' 'कामायनी'  में करते हैं –

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँव। 
एक पुरुष भीगे नैनों से देख रहा था प्रलय-प्रवाह॥
अपने में सब कुछ भर कैसे– व्यक्ति विकास करेगा। 
यह एकांत स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा ॥

कामायनी के मनु की तरह 'पंकज सुबीर', अपनी कहानी 'दो एकांत' में  इस भीषण विध्वंसकारी, प्रलयकारी स्थिति की चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि, "पता नहीं कि ऐसा होगा अथवा नहीं होगा, तो कब होगा, लेकिन कई बार ऐसा स्वप्न आता है कि सचमुच ऐसा हो गया है। चूँकि उन सब में स्वयं को पाता हूँ, इसलिए कह नहीं सकता कि ये काफ़ी समय बाद होगा। इसलिए जब इसे लिखने का मन में आया तो ऐसा लगा कि आज ही हो रहा है। सो लिखते समय वर्तमान को ही कालखंड मान लिया है। सारे पात्र आज के ही हैं। आज मतलब, आज। कहीं ये कहने की कोशिश की है कि 2050 में होगा, या उसके बाद के किसी समय में होगा। बस ऐसा लगा कि ये हो गया है और जब लगा कि ऐसा हो गया है तो बस कहानी का होना तय हो गया है। ये अंत से पहले का अंत है। वो अन्त जो आख़िरी अन्त से भी ज़्यादा भयावह होगा।"( दो एकांत,पृष्ठ संख्या-१४०)  

हिंदी साहित्य में आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक स्त्री को, सिद्धों ने स्त्री का संसर्ग अनिवार्य माना, माहामुद्रा के रूप, माया, अबला तुम्हारी हाय यही कहानी, नारी केवल तुम श्रद्धा हो, ही के रूप में देखा गया है। उसे सृष्टि की इंसानी सभ्यता के रूप में कभी भी नहीं देखा गया। मानव समाज में स्त्री के अस्तित्व को मिटाने की कोशिश बड़े सहजता से की जाती रही है। स्त्री को देवी, कालरात्रि, डायन, आदि से संबोधित करके एक स्त्री को मिटाने की कोशिश की जाती रही है। 

"प्राचीन काल में अरब में, और भारत में भी, बहुधा लोग, लड़कियों को अपने सिर नीचा कराने वाली समझकर मार डालते थे, उन्हें माताओं की ज़रूरत ही ना हो, या यह समझते हों कि केवल पुरुषों से सृष्टि कायम रह सकती है।"  "जहाँ तक  प्रकृति बाधक ना हो स्त्री और पुरुषों के अधिकार समान होना ही न्याय और मनुष्यता है।" "मनुष्य पशुता से उन्नत होकर मनुष्यता तक पहुँचता है। पशुओं में लिंग भेद के कारण नर-मादा को छोटा नहीं समझता, न मादा नर से निर्बल ही होती है।" "सच तो यह है की नारियाँ आज ग़ुलामों की ग़ुलाम दासानुदास हैं। प्रकृति के इतिहास में खोजने वाले दूरदर्शी विद्वान कहते हैं कि मनुष्य की आदिम अवस्था में स्त्रियाँ दासी नहीं थीं।"  

'थमेगा नहीं विद्रोह' की चावली का कथन है कि "गुर्जर, जाट, चमार,. . . . बाभन, नाई, चूहे सब साले एक जैसे ही हैं। पाप स्वयं  करते हैं, बेटियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। मर्दों द्वारा तय शर्तों और किलेबंदी से औरत तनिक भी इधर-उधर हुई कि इनकी मूँछों पर खतरा टूट पड़ता है फिर चाहे वह औरत इनकी माँ ही क्यों ना हो उसकी गर्दन उड़ाने में भी यह मर्द एक क्षण के लिए हिचकता नहीं है, स्वयं चाहे जहाँ मुँह मारता फिरे, जिस चाहे घाट का पानी पीता फिरे, इनकी इज्जत पर कोई आंच नहीं आती है।"

स्त्रियों को अपनी संपत्ति मात्र समझना, वर्तमान समय में जातिवाद के साथ-साथ लिंगानुपात भी तेज़ी से बढ़ रहा है। ग़रीबी के चलते ग़रीब मज़दूर व्यक्ति को अपनी घर के औरतों का भी सौदा करना पड़ता है, या बेचना पड़ता है। तथाकथित हिन्दुओं के द्वारा यह कार्य कराए जाते हैं। अजंता, एलोरा, खजुराहो, कोणार्क मंदिरों में स्थापत्य और मूर्ति-कला में पशुओं के समान मैथुन रत माँसल मानव तनों को बेशर्मी  से दर्शाया गया है। कोणार्क एवं खजुराहो में वस्त्र विहीन नारी तन का चित्रण किया गया है। यह चित्रण किसी सभ्यता एवं संस्कृति की पहचान पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। 

"इस हरामी पाठक जी आर्य ने मुझे आरिया समाज के मंदिर में ही अपनी इज्जत गवां कर . . . भंगी होकर भी बेटी, बहन की लाज उतनी ही अमूल्य होती है जितनी बाभन, बनियों, राजपूतों की होती है।"  "मेरी सौत लाकर भी जो अब तक यह मेरा खसम पिता नहीं बन पाया है सो इसलिए कि कमी उसी में है, न कमी मेरे में थी, और न ही कमी मेरे सौत में है। मर्द लेकिन इसे स्वीकारते डरते हैं तथा और एक प्रयोग के चक्कर में, और एक स्त्री का जीवन बर्बाद करते हैं, लेकिन  अपनी कमी स्वीकार तब भी नहीं करते हैं। लगभग अस्सी प्रतिशत मामलों में होता है तो मर्द बाँझ, लेकिन पूरा समाज बाँझ की गाली देता है औरत को।"

पृथ्वी से लड़कियाँ अचानक नहीं मिट गयीं उन्हें मिटाने में पुरुष सत्ता की एक पूरी कायनात लगी हुई थी। जिससे एक स्त्री ही अपने जन्म देने वाली बच्ची को बचाने में विफल रही है। "इमोशन से जुड़ी हुई मुख्य शै तो समाप्त हो चुकी है, या शायद समाप्त होने वाली है। और ये जो समाप्त होना है, ये रातों-रात नहीं हुआ है, बल्कि कई बरसों से धीरे-धीरे करके किया गया है। जब यह किया जा रहा था, तब किसी ने भी नहीं सोचा था कि सारा ही समाप्त हो जाएगा। हर कोई तो ये सोच रहा था कि मैं तो केवल अपने हिस्से का ही समाप्त कर रहा हूँ, लेकिन जरूरत पड़ने पर दूसरों के पास तो ये उपलब्ध होगा ही। यही सब ने सोचा और पता तब चला, जब ये शै पूरी तरह से ही ख़त्म होने पर आ गई है।"( दो एकांत, पृष्ठ-संख्या- १४१) 

कथाकार पंकज सुबीर ने अपनी इस कहानी के माध्यम से मनुष्य को आगाह करते हुए कहते हैं, "ये तो बरसों से किए जा रहे कर्मों का नतीजा था, इसमें हमने क्या किया और हमारे बापों ने क्या किया? इसकी बहस करने से कोई मतलब नहीं है। जो होना था, हो चुका। अब तो यह सोचना है कि आगे क्या होगा। बार-बार एक ही बात का रोना रोने से कुछ नहीं होने वाला। हमारी पीढ़ी ने बंदूकें और तोपें लेकर ख़त्म नहीं किया है, जाने कितने बरसों से धीरे-धीरे होता रहा आखिर में ये हो गया।" (दो एकांत, पृष्ठ संख्या-१४३) यहाँ कथाकार के दूर दृष्टि का भी परिचय होता है। ये सब एक- दो वर्ष में नहीं हुआ, इसे ख़त्म करने के लिए कई पीढ़ियाँ लगी थीं।  

इस पूरी कहानी में बुज़ुर्ग की बातों से यह अनुमान लगाया जा सकता कि वह कितने संत्रास में है। बुज़ुर्ग के एक- एक शब्द में गहरी वेदना को महसूस किया जा सकता है जो अपने पोते को बताने के लिए हिम्मत जुटा रहा है। "कह दिया न कि आज बता दूँगा, जो भी पूछोगे, मगर अभी नहीं बताऊँगा, रात को बताऊँगा। अभी तुम जाओ कामकाज देखो, आराम से रात को बातें करेंगे। बात इतनी छोटी नहीं है कि इतनी जल्दी हो जाए। अभी तुम जानते ही क्या हो।"( दो एकांत, पृष्ठ संख्या-१४८) 

"नहीं रही, यही कहा था मैंने? वह झूठ था। सच यही है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था, बल्कि मुझे तो यह भी नहीं पता कि वो है कहाँ, और मुझे ही क्या किसी को भी नहीं पता कि ये जो तस्वीर में तुम्हारे पिता के साथ बैठी है और जो तुम्हारी माँ है, ये कहाँ है।"( दो एकांत,पृष्ठ संख्या-१५०) बुज़ुर्ग के इस कथन से मालूम होता है कि स्त्री के बिना पृथ्वी ख़ाली नज़र आती है। एक स्त्री ही पृथ्वी को हरा-भरा कर सकती है। वर्तमान समय में सरकार के द्वारा विकास के नाम पर जिस तेज़ी से पेड़-पौधों को काटा जा रहा है। एक दिन आयेगा कि मनुष्य जीवन जीने के लिए मोहताज़ हो जाएगा। इसी तरह स्त्रियों को भी धीरे- धीरे करके पुरुषों के द्वारा ख़त्म कर दिया गया या किया जा रहा है।

"ये रातों-रात नहीं हुआ था। बहुत समय से धीरे-धीरे हो रहा था। बहुत सालों से। धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता। कोई नहीं जानता था कि यह जो धीरे-धीरे हो रहा है, ये कभी एकदम यहाँ तक भी पहुँचा देगा। सैकड़ों बरस लग गए इसको होने में, लेकिन यह हो कर रहा।"( दो एकांत, पृष्ठ संख्या-१५०) 

स्त्री को अर्धांगिनी कहा जाता है, लेकिन उसी अर्धांगिनी को किसी की पत्नी, बेटी,बहू,माता बनने से पहले ख़त्म कर दिया जाता है। स्त्री को आधे देश की आबादी माना जाता है, लेकिन उसी आधी आबादी को इतने बड़े भू-भाग रहने ही नहीं दिया जाता। बल्कि उसके अस्तित्व को मिटाने की जद्दोजेहद लगी हुई थी। यहाँ कथाकार पंकज सुबीर वर्तालाप शैली में बूढ़े और युवक के बीच बात-चीत में महसूस किया जा सकता है- "मेरे पिताजी की जब शादी हुई तो उसके लिए क्या-क्या करना पड़ा था मेरे दादाजी को। उस समय ये सब दिखने लगा था कि अब कुछ समय बाद ये सब होने वाला है। हमारे गाँव और आस-पास के पचासों गाँव में कोई लड़की थी ही नहीं किसी के घर में। सबके घरों में केवल लड़के थे। बस लड़के। मुरझाए हुए, सवालों की तरह घर में घूमते-फिरते नज़र आते लड़के। लड़के, जो कब आदमियों में बदल जाते थे, पता ही नहीं चलता था। यूँ ही बदल जाते थे, बस। कहीं कुछ भी नहीं था उनके लिए, धीरे-धीरे आहिस्ता आहिस्ता सब लड़कियाँ ख़त्म हो गई थी। ख़त्म हो गई थी या कर दी गई थीं। वो आबादी, जो आधी आबादी कहलाती थी, उसे ख़त्म कर दिया गया था। चली गई थीं सारी लड़कियाँ जाने कहाँ, जाने कौन देश...... "( दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १५०-५१) 

एक स्त्री अपना जीवन जीने के लिए अभिशप्त है। लड़कियाँ जन्म लेते या जन्मते ही मौत के भेंट चढ़ा दी जातीं हैं। प्राचीन समय और आधुनिक समय में कोई विशेष बदलाव देखने को नहीं मिलता। या ऐसा भी कहा जा सकता है कि प्राचीन और आधुनिक समय में सिर्फ़ समय आगे बढ़ा हैं। बाक़ी सब वैसे ही जैसे प्राचीन समय में होता रहा है। हाँ कार्य करने की प्रवृत्ति थोड़ी बदली है। दादा,परदादाओं के समय में अगर यह मालूम हो गया है कि महिला के गर्भ में बच्ची है तो उसको गर्भ में ही मार दिया जाता है और अगर ऐसा नहीं हो सका तो उसके पैदा होते ही दूध में डुबो कर मार दिया जाता है, अथवा गाँव के बाहर झोले में भर कर किसी पेड़ में लटका दिया जाता है, या फिर मटकी में भर कर किसी तालाब में डुबो दिया जाता है। लेकिन आधुनिक समय में इससे भी भयावह कर्म किया जाता है। एक स्त्री का पहले जबरन बलात्कार किया जाता है और फिर उसको मार दिया जाता है। शिशु अवस्था में तो बच्ची अपने ऊपर हुए अत्याचार के आभास से सम्वेदनशील नहीं होती लेकिन वर्तमान समय में तो लड़की अपने ऊपर हुए अत्याचार से सम्वेदित होतीं हैं। पुरुषों की संवेदनशीलता मर गई है। भारतीय समाज की बड़ी हक़ीक़तों में से एक दिल दहलाने वाली घटनाएँ हमारे पितृसत्तात्मक में होती रही हैं। एक स्त्री के मनचाहे गर्भ के अधिकार को उससे छीन लिया गया है, उसके गर्भ में उसका ही कोई अधिकार नहीं रहा गया। स्त्री को सिर्फ़ और सिर्फ़ बच्चा पैदा करने की मशीन के रूप में देखा जाता है। वर्तमान में संवैधानिक तौर पर स्त्रियों की स्वतंत्रता और पढ़ने-लिखने, खेलने आदि अधिकार की बात की जा रही है, लेकिन समस्या इस बात की है पहले हमें स्त्रियों को बचाना होगा, और स्त्री और पुरुष के लिंगानुपात में समानता लानी होगी, फिर उसके बाद हम उनके अधिकारों की बात कर पाएँगे। "कहीं नहीं गई, हमने ख़त्म कर दी हमने। हमने, हम, जो दूसरे हर रूप में स्त्री को पसंद करते थे, लेकिन बेटी के रूप में से देखते ही हमें जाने क्या हो जाता था। पहले कई सालों तक तो यह होता रहा कि पैदा होने के बाद उसे ख़त्म किया जाता था। उस समय पैदा होने से पहले ही ख़त्म करना पड़ता था, क्योंकि तब पैदा होने के पहले पता नहीं चलता था कि पैदा होने वाली संतान नर है या मादा, मगर ख़त्म तब भी कर दिया जाता था। कभी पैदा होते ही खाट के पाए से दबाकर, तो कभी किसी औरत के स्तनों पर नीला तूतिया लगा कर उसका दूध पिला कर। बाहर ख़बर आती थी कि मरी हुई लड़की हुई है। समझने वाले समझ जाते थे कि लड़की पैदा होकर मरी है। कोई कुछ नहीं बोलता था, सबको यही करना होता था। एक मादा, एक और मादा को पैदा करती थी और फिर कई सारी मादाएँ मिलकर उस को ख़त्म कर देती थीं। बाहर खाट पर बैठे पुरुष इंतज़ार करते थे, दोनों में से किसी एक ख़बर के आने का। या तो ये ख़बर की बेटा हुआ है बधाई हो, या ये की लड़की हुई है मरी हुई।"( दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १५१-१५२) 

“सदियों से समाज ने आर्थिक स्वार्थ में नवजात बालिका के पैदा होते ही ख़त्म करना अच्छा सोचा। लेकिन यह नहीं सोचा कि यह समस्या अपने आप ही समस्या बन जाएगी।"  "सदियों से इस असीम सृष्टि के बीच प्रश्नचिन्ह- सा  खड़ा मानव का लघु आकार अपने अस्तित्व की पहचान को टटोलता रहा है। मैं कौन हूँ? क्यों हूँ? इस चराचर सृष्टि में मेरी क्या जगह है? मेरा उद्गम और अंत क्या है?"१०  

"खबर सुनते ही वे पुरुष उठकर खड़े हो जाते थे, नर पैदा होने पर बोतल खोलने की तैयारियाँ करने के लिए और मादा पैदा होने पर उसे दफ़नाने की तैयारियाँ करने के लिए। कमरे में पड़ी वह मादा तब तक माँ नहीं बनती थी जब तक कि वह नर नहीं जनती थी" (दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १५२) 

वर्तमान समय में सरकार लड़कियों को बचाने के लिए चिकित्सालयों में डीएनए टेस्ट पर रोक लगा रखी है और टेस्ट करने और करवाने वाले के ऊपर कारवाई भी। लेकिन फिर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला, अब तो बच्चियों को गर्भ के बाहर उसके वजूद से खेल कर ख़त्म करने का नया तरीका अपनाया जाता है। "ये सब बहुत पहले की बातें हैं। बाद में काफी बदलाव आ गया था, अब लड़की को मारने के लिए उसके पैदा होने का इंतजार नहीं करना पड़ता था। वो तो तुमको पता ही है पेट में ही पता लगने लगा था कि जो बन रहा है, वह नर है कि मादा।" ( दो एकांत, पृष्ठ संख्या-१५२) 

स्त्री के स्पर्श करने की अनुभूति अर्थात फ़ीलिंग को भी कुरेदा गया है, कि एक स्त्री क्या सोचती है अथवा क्या नहीं सोचती है। 'दो एकांत' कहानी पंकज सुबीर के 'महुआ घटवारी तथा अन्य कहानियाँ' में संकलित है। पंकज सुबीर की कहानी 'दो एकांत' के कलेवर को 'ए नेशन विदाउट वूमेन' फ़िल्म से जोड़ कर देखा जा सकता है। इस फ़िल्म में और इस कहानी में अंतर केवल यह है कि यहाँ एक औरत को हर वर्ष एक बच्चा पैदा करने के लिए उसके बाप के द्वारा बेच दिया जाता है लेकिन इस फ़िल्म में भी एक पिता के द्वारा एक लड़की को पैसे के लालच में चार लड़कों के लिए या ऐसा भी कहा जा सकता है कि पूरे गाँव के लिए बेच दिया जाता है। जिसमें उस स्त्री की फीलिंग को दरकिनार कर दिया गया है कि स्त्री किससे प्रेम करती है और क्या चाहती है। इस को ध्यान नहीं दिया गया है। फ़िल्म और कहानी में अंतर यह है कि फ़िल्म सुखांत है और कहानी दुखांत। स्त्री की थोड़ी सी ग़लती के लिए उसके जीवन को नरक कर दिया गया है, जिसमें मनुष्यता को भी खो दिया गया है और उस स्त्री को  गौशाला में गायों के बीच जंजीर से बाँध दिया गया है। उस स्त्री का प्रयोग पूरे गाँव का पुरुष वर्ग करता है। उसके शरीर को भोगने के लिए रोज़ाना एक नया आदमी आता है। आज के समाज में पुरुष उस स्त्री पर पशुवत व्यवहार करता है। आज के हमारे पितृसत्तात्मक समाज में यह विडंबना है कि भारतीय समाज में स्त्रियों का इतिहास पुरुषों के द्वारा लिखा गया है जो कभी एक स्त्री के दर्द को नहीं जान सके। भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि स्त्रियों का जितना ज़्यादा महिमामंडन किया गया है उतना ही बेरहमी से कुचला भी गया है। "नहीं हुई, तब तक हालत और बदतर हो गई थी। अब लड़कियाँ कहीं नहीं थी। सारे रंग बुझ गए थे। अब हर तरफ़ एक ही रंग था, स्याह रंग। मेरी शादी किसी लड़की से नहीं हुई, बल्कि एक औरत से हुई थी, औरत, जो मुझसे काफी बड़ी थी। शादी भी क्या हुई थी, बस वो आकर रहने लगी थी घर में। बदले में उसके पति को उस बच्ची हुई ज़मीन में से काफी कुछ देना पड़ा था। उसका पति भी उसको ऐसे ही लाया था। तो वह औरत मेरे पास आ गई और उससे ही पैदा हुआ था इसका बाप।"(दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १५३) "इसका बाप जब बड़ा हुआ जवान हुआ, तब तक सब ख़त्म हो चुका था। कुछ नहीं था। शादी जैसा तो कुछ सोचा भी नहीं जा सकता था। सोचते भी कैसे, और किससे। इसको पैदा करने के लिए इसकी माँ को किराए पर लिया था मैंने।" ( दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १५४-५५) 

 "और फिर यह पैदा हो गया। औरत के आने से दस महीने बाद। औरत साल भर के लिए आई थी। अगर ये नहीं आता तो भी साल भर ही रुकती। बीच में छह महीने बाद उसका बाप आकर फिर से पैसा ले गया था। बाकी आधे का आधा। बीज इसके बाप का था, इसलिए यह उसका बेटा है और कोख उस औरत की थी, इसलिए वह इसकी माँ थी, बस। बस, मगर उसको तो जाना था। अब कहीं और, किसी और को पैदा करने। यही तो उसका काम था। उसका या शायद उसके बाप का। बिना रुके चलते जाना।"(दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १५६) 

वर्तमान समय में सरकार बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का अभियान चला रही है। लेकिन सरकार को शायद यह नहीं मालूम की जब तक व्यक्ति अपनी गंदी मानसिकता को नहीं छोड़ेगा तब तक कितना भी योजनाएँ चलाई जाएँ कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। इससे तो पुरुषों को और फ़ायदा होगा। उन्हें एक बच्चा पैदा करने वाली मशीन मिल जाएगी। कारख़ानों की मशीनों को भी ख़राब होने की डर से समय- समय पर रेस्ट दिया जाता है, लेकिन यहाँ एक स्त्री को मशीन से भी ज़्यादा गई गुज़री समझा जाता है। मनुष्य के जीवन का सफ़र बहुत ही लम्बा है। जीवन को काटने के लिए किसी की आश्रय की ज़रूरत पड़ती है। 
"वैसे ही जैसे इसके बाप ने किया था। वैसे ही जैसे ये हुआ था। तरीक़ा तो वही है, अब उसके अलावा और है ही क्या। अब ये ज़रूर है कि दाम और बढ़ गए, लेकिन ज़रूरत भी कभी दाम देखती हैं। ज़रूरत है तो दाम है।" ( दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १५९) 

अब इससे ज़्यादा त्रासदी और क्या होगी। सौ-पचास गाँवों में  ढूँढ़ने पर भी कोई औरत नहीं मिल रही। मेरा मानना है कि ये त्रासदी वास्तव में कामायनी से ज़्यादा ही भयावह है। जब हमारे बाप दादाओं को यह मालूम था कि एक स्त्री का पुरुष के जीवन में क्या महत्व है, तो थोड़े से लालच के बतौर उसको ख़त्म करना शुरू कर दिया।  "है कोई। गाँव का बटियादार बता रहा था कि दूर कहीं कोई औरत है उसकी रिश्तेदारी में। अभी पिछले महीने उसका फोन आया था तो बता रहा था,..... कहता था कि पैसा ज़्यादा लगेगा। इस विशाल अवसाद को बूढ़े के अन्तिम वाक्य में महसूस किया जा सकता है कि एक स्त्री के बिना पुरुष का जीवन कैसा होता है "(दो एकांत,पृष्ठ संख्या- १५९-१६०)  बूढ़े ने दूसरे युवक के हाथ पर कुछ दबाव बढ़ा दिया और उसी टूटे स्वर में बोला, "वो....आखरी औरत भी पिछले हफ्ते मर गई। "(दो एकांत, पृष्ठ संख्या- १६३) 

मकान के दो सिरे होते हैं और दोनों के ही दो एकांत', इसी तरह व्यक्ति के जीवन में भी एक पीढ़ी दूसरी से पीढ़ी जुड़ा होता है। और दोनों सिरों का अपना-अपना सिरा होता है। और वो दोनों सिरों के दो एकांत' को जोड़ता है। कथाकार पंकज सुबीर इस कहानी में यह दिखाने की कोशिश करते हैं अगर हम अभी भी नहीं सँभले तो जिस तरह इस कहानी में युवा और बुज़ुर्ग के बीच ’दो एकांत' का जीवन रहा। तो उसी तरह बहुत ही जल्द वह समय हमारे सामने भी होगा।

निष्कर्ष :

पंकज सुबीर की कहानी 'दो एकांत' का रचना शिल्प विधान फ्लैशबैक शैली पर की गई है। पितृसत्तात्मक समाज का पुरुष यह भूल जाता है कि एक स्त्री के अपने सपने होते हैं। उसका भी अपना जीवन है। पितृसत्ता की सोच सिर्फ़ संतानेच्छा ही रही है। जिसके ऐतिहासिक और सामाजिक अनेक प्रमाण है। स्त्री-पाठ दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता है। स्त्री-पाठ का  इतिहास बहुत ही पुराना है। 'दो एकांत' कहानी की कथा अपने संरचनात्मक विशिष्टता में अतीत के परिवेश में वर्तमान को भी समाहित कर लेती है। इस कहानी की थीम को जयशंकर प्रसाद की रचना कामायनी से मिलाकर देखा जा सकता है। इस कहानी में मातृसत्तात्मक तथा पितृसत्तात्मक समाज की झलक देखी जा सकती है और आदिम सभ्यता से लेकर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान एवं मशीनीकरण के विकास को सूक्ष्म सांस्कृतिक स्थितियाँ भी परिलक्षित हो रही हैं। स्त्री सृष्टि की अधिष्ठात्री रही है। मनुष्य के जीवन में सुख- सहवास का कारण स्त्री ही रही है। मानव जीवन की अंतिम स्त्री या पहली स्त्री कौन है? मानव जीवन में स्त्री के लिए क्या जगह है? स्त्री के सृष्टि की नियति चक्र है। स्त्री का सृष्टि को चलाने में  महत्वपूर्ण भूमिका है। समकालीन सुप्रसिद्ध कथाकार पंकज सुबीर की कहानी बड़ी बख़ूबी से इन सभी बिन्दुओं को रेखांकित करती है और यह भी आगाह करती है कि पुरुष के जीवन में एक स्त्री की भूमिका क्या होती है। 

पंकज सुबीर ’दो एकांत' कहानी के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि, स्त्री के लिए शिक्षा, स्वतंत्रता,अधिकार ये सब बाद की प्रक्रिया है, पहले उसे मनुष्य की तरह जीवित रखना बहुत ज़रूरी है। पहले तो उसे मानव समाज में जीवित रखना बहुत ज़रूरी है, जिससे इस सृष्टि के संचालन में और एक नए सभ्यता के निर्माण में उसका योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण  रहा है और रहेगा।

दिनेश कुमार पाल
(शोध - छात्र) 
हिन्दी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज
मो. 9559547136
ई- मेल:   dineshkumarpal6126@gmail.com
पता - बैरमपुर बैरमपुर, कौशाम्बी, 212214

सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची:
आधार- ग्रन्थ

१-  महुआ घटवारिन और अन्य कहानियाँ, पंकज सुबीर,( दो एकांत) सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2012

सहायक-ग्रन्थ

१-  कामायनी, जयशंकर प्रसाद, श्यामा प्रकाशन संस्थान इलाहाबाद
२-  स्त्रियों की स्वाधीनता, राधा मोहन गोकुल जी, राहुल फाउंडेशन लखनऊ- 2013, पृष्ठ- संख्या- 11,
३-  वहीं- 12
४-  वहीं- 49
५- वहीं -53
६-  थामेगा नहीं विद्रोह, उमराव सिंह जाटव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण-2008, पृष्ठ संख्या- 171
७-  वहीं- 213
८-  वहीं- 229
९-  ए नेशन्स विदाउट वुमेन- फ़िल्म
१०- देह की राजनीति से देश की राजनीति तक,मृणालपाण्डे,राधाकृष्ण प्रकाशन,नई दिल्ली,चौथा संस्करण, 2019,पृष्ठ-13


 

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