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स्त्री सरोकारों से जुड़ा हिंदी सिनेमा

सिनेमा का प्रारंभिक प्रयोजन मनोरंजन था, लेकिन धीरे-धीरे सिनेमा ने अपने इस प्रयोजन को व्यापकता प्रदान की और भारतीय समाज में यह इस तरह घुल-मिल गया कि सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से अधिक से अधिक लोगों को जोड़ने के लिए इसका इस्तेमाल किया जाने लगा। मनोरंजन का यह जन-माध्यम जब सामाजिक विषयों को लेकर चला तो इसने न केवल सामाजिक रूढ़ियों के ख़िलाफ़ देश को खड़ा किया बल्कि गुलामी की बेड़ियों से देश को आज़ाद कराने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही धर्म, जाति, लिंग और क्षेत्र की विषमता को भी मिटाने का प्रयास किया।

हिंदी सिनेमा या कहें पूरा भारतीय सिनेमा नायक प्रधान रहा है। वह हमेशा ऐसे नायक की तलाश में रहा है जो सबकी बात करे, सबके लिए लड़े। परंतु समय के साथ-साथ सिनेमा के प्रतिमान भी बदले। बदलते समय के साथ नायिकाएँ भी उतनी ही प्रमुख होती चली गईं। हिंदी सिनेमा अपने प्रारंभ से ही समाज में स्त्री की स्थिति और समय के साथ उसकी बदलती भूमिका, उसकी चुनौतियों को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत करता रहा है। अपने प्रारंभ में ऐतिहासिक, पौराणिक और धार्मिक फिल्मों के अनुरूप ही स्त्री पात्र उन्हीं पारंपरिक भूमिकाओं में रही। इस विषय में सबसे पहले परिवर्तन हमें 1935 में दिखाई देता है, जब दादासाहब फाल्के ने ‘हंटरवाली’ फिल्म का निर्माण किया। ‘हंटरवाली’ फिल्म का विचार उनके दिमाग में तब आया जब उन्होंने ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ फिल्म देखी। इसी फिल्म को देखते हुए उन्हें विचार सूझा कि क्या स्त्री की ऐसी छवि भारतीय समाज में स्वीकृत होगी जहाँ स्त्री मरदानी पोशाक में दर्शकों के सामने अवतरित हो और जो अपनी सोच और विचारों में पूरी तरह से आधुनिक हो। ‘हंटरवाली’ के रूप में उन्होंने एक नया प्रयोग किया और उनका यह प्रयोग पूरी तरह सफल ही नहीं हुआ अपितु जनता ने इस फिल्म को हाथों-हाथ लिया। इस फिल्म की नायिका आस्ट्रेलिया की रहने वाली नाडिया थी। इस फिल्म में नायिका की परम्परागत छवि को तोड़कर उसे आधुनिक चुस्त कपड़ों तथा गम बूट में प्रस्तुत किया गया। ‘हंटरवाली’ में ऐसी महिला की छवि को प्रस्तुत किया गया जैसी अब तक पश्चिम की फिल्मों में भी नहीं दिखाई गई थी। डी. डब्ल्यू ग्रिफिथ की नायिकाएँ परित्यक्ताएँ थीं तथा उन्होंने नायिकाओं का प्रयोग करुणा जागृत करने के लिए किया। इसके विपरीत नाडिया एक निर्भीक महिला की भूमिका में उतरी जो शोषण करने वाले पुरुषों को सज़ा देने के प्रतीक हंटर को लेकर रात को घूमा करती थी। पूरे दृश्यों में वही उपस्थित रहती थी, जो कि उसकी शक्ति को प्रदर्शित करता था।

भारतीय सिनेमा समाज के परिवर्तनशील यथार्थ के साथ कदमताल करता दिखाई देता है। स्वतंत्रता के पश्चात के शुरूआती वर्षों में पुनः ‘पतिता’, ‘एक ही रास्ता’ तथा ‘साधना’ आदि फिल्मों में स्त्री की कशमकश, उसकी शुचिता तथा पुरुष प्रधान समाज की वर्चस्ववादी व्यवस्था में उसकी स्थिति का अंकन किया गया। लेकिन बाद के वर्षों में बनी फिल्मों में उसका बदला रूप सामने आता है।

पचास, साठ तथा सत्तर के दशकों में नायिकाएँ प्रेमिका, माँ, बहन की सशक्त भूमिकाओं में दिखाई देतीं हैं। राजकपूर की फिल्मों की नायिकाएँ एक नए अवतार में नज़र आती हैं। वे ख़ूबसरत, बोल्ड तथा विद्रोही नायिकाएँ हैं। ‘प्रेम रोग’ की नायिका विधवा होने पर समस्त भारतीय जड़वाद के ख़िलाफ़ विद्रोह करती है। प्रेम करती है और अंत में उसका उसके प्रेमी के साथ विवाह दिखाया गया है। यह बदलते हुए समाज और उसके परिवेश का समाधान था, जिसे फिल्म निर्माताओं ने बख़ूबी समझा और उसकी क्रियान्विति अपनी फिल्मों में दिखाई। समाज तेज़ी से बदल रहा था, पश्चिमी सभ्यता भी अपना प्रभाव डाल रही थी, पारिवारिक समीकरण बदल रहे थे। साथ ही बदल रहा था फिल्मों का केंद्र। कथावस्तु नायिका प्रधान हो रही थी। साथ-साथ नायक प्रधान फिल्में भी थीं जो जनमानस को प्रभावित कर रही थीं किंतु नायिका प्रधान फिल्में अपने नए कलेवर में नए अंदाज़ में दर्शकों को लुभा रही थीं। ‘शोले’ नायक प्रधान फिल्म थी परंतु उसकी बसंती नई भाषा, नए अंदाज़, अपने चपल व्यवहार और विशेष रूप से अपने तांगा चलाने के कारण आज भी अलग पहचान रखती है। पुरुषों द्वारा चलाए जाने वाले तांगे की लगाम को 1975 के भारत में एक नायिका को पकड़ाना एक शुरूआत थी कि अब हिंदी फिल्मों की कथा की बागडोर भी अब नायिका ही सँभालेगी

1985 में निर्माता व निर्देशक जे. ओमप्रकाश की फिल्म ‘आखिर क्यों’ एक मिथ को तोड़ती है। भारतीय समाज में स्त्री का अवलम्ब विवाह से पूर्व उसका पिता, भाई और विवाह के बाद उसका पति होता है। पति के चाहे अन्य स्त्री से संबंध हों, परंतु स्त्री सब कुछ जानते-समझते हुए भी चुप रहे और उसी पति के साथ अपना जीवन यापन करे। पर इस फिल्म की नायिका स्मिता पाटिल अपने आत्मसम्मान की रक्षा हेतु अपनी गरिमा को बनाए रखने के लिए ऐसे पति का त्याग कर देती है और प्रकारांतर से एक संवेदनशील लेखिका के रूप में उभरती है। उसकी सारी पीड़ा उसकी लेखनी में छलक पड़ती है। वह समाज में अपने लेखन के माध्यम से अपनी पहचान बनाती है जहाँ उसे किसी पुरुष के अवलम्ब की आवश्यकता नहीं है। फिल्म में अवश्य राजेश खन्ना के रूप में उसका पुरुष मित्र है परंतु उनकी मित्रता विवाह में परिणत नहीं होती। फिल्म तमाचा है ऐसे पुरुष प्रधान समाज पर जहाँ पुरुष ही नारी का भर्ता माना जाता है, जहाँ नारी की पहचान ही पुरुष के माध्यम से होती है।

2012 में गौरी शिंदे द्वारा निर्द्रेशित ‘इंग्लिश-विंगलिश’ अपने अंग्रेज़ी के अल्पज्ञान के कारण हीन भावना से ग्रस्त नायिका की कहानी है। परिवार का प्रत्येक सदस्य यहाँ तक कि उसके बच्चे भी उसे समय-समय पर यह अहसास करवाते हैं कि वह अंग्रेज़ी नहीं जानती है, जिसके कारण सब जगह उनका मज़ाक बनाया जाएगा। पति को भी लगता है कि एक पत्नी के रूप में उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह लड्डू अच्छे बनाती है। असली समस्या यहाँ भाषा का न जानना तो है ही अपितु साथ ही उसके अस्तित्व की, उसके मैं की सिद्धता का प्रश्न भी है। अंग्रेज़ी भाषा की कोंचिंग के ज़रिए वह उसी मैं को खोजती है। उसके चरित्र की विशेषता उसके अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान नहीं है। वह एक माँ एक पत्नी के रूप में अंग्रेज़ी न जानते हुए भी परिवार का गर्व साबित होती है।

2014 में प्रदर्शित फिल्म ‘क्वीन’ दिल्ली के राजौरी गार्डन में रहने वाली रानी की कहानी है। विकास बहल की यह कहानी भारतीय समाज की वर्जनाओं को तोड़ती है। अपने मंगेतर द्वारा शादी से इंकार किए जाने पर वह और उसका परिवार टूट जाता है। परंतु इस सदमे से वह जल्दी ही उबरती है और अकेले ही अपने हनीमून के लिए पेरिस के लिए निकल पड़ती है। पेरिस में वह अकेली एक होटल में तीन अन्य देशीय युवकों के साथ रहती है, अकेली घूमती है, एक फूड फेस्टिवल में भाग लेती है और जीतती है। इस फेस्टिवल में उसके पुरुष मित्र भी उसकी सहायता करते हैं। कहानी पूरी तरह रानी के आस-पास घूमती है। मध्यवर्गीय परिवार में पली बढ़ी लड़की किस तरह टूटती है, सँभलती है और अपने आत्मविश्वास के बल पर अपनी इच्छा को पूरा करती है। परंतु अन्य देश में रहते हुए भी अपने भारतीय संस्कार नहीं भूलती। फिल्म के अंत में दिखाया गया है कि उसका मंगेतर पुनः उससे शादी करना चाहता है क्योंकि अब वह बदल गयी है। आधुनिक कपड़े पहनने लगी है, स्मार्ट हो गई है परंतु अब रानी उसे अपने भविष्य में शामिल नहीं करना चाहती। वह अंत में उसे ‘थैंक यू’ कहती है। उसका यह ‘थैंक यू’ कहना प्रतीक है कि अगर वह उससे शादी कर लेता तो शायद आज रानी के दृष्टिकोण ओैर उसकी मानसिकता में इतना बदलाव न आता। मध्यवर्गीय परिवारों में जहाँ लड़की का विवाह अभिभावकों की चिर संचित इच्छा होती है वहाँ रानी जैसा चरित्र अनुकरणीय है। परंतु परिवार की भूमिका को भी यहाँ नकारा नहीं जा सकता। रानी का पूरा परिवार ऐसी विषम परिस्थिति में उसके साथ खड़ा रहता है। आज हमारे समाज में ये परिवर्तन तेज़ी से आए हैं। अभिभावक अपनी संतान विशेष रूप से लड़की के प्रति अधिक जागरूक और अधिक संवेदनशील हुए हैं। स्त्री मंगेतर द्वारा परित्यक्त होने पर अब अभागा जीवन जीने को मजबूर नहीं है। उसका आत्मविश्वास उसके साथ है और वह तैयार है आने वाली चुनौतियों को सामना करने के लिए। अनुराग कश्यप की यह फिल्म स्त्री की इस छवि को बड़ी मज़बूती से दर्शकों के समक्ष रखती है। ऐसी अनेक फिल्मों के उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं जहाँ नायिकाएँ अपनी भूमिकाओं के द्वारा समाज को चेताने का प्रयास करती हैं। ‘अर्थ’, ‘अस्तित्व’, ‘क्या कहना’, ‘दामिनी’, ‘पिंजर’, ‘लज्जा’ जैसी कई उल्लेखनीय फिल्में हैं जो नायिकाओं के अस्मिता-बोध और प्रतिरोध की परिचायक हैं जो सीधे-सीधे प्रश्न करती हैं, सत्ता को ललकारती हैं।

भारतीय सिनेमा तीन मई 2013 को अपने सौ साल पूरे कर चुका है। इन सौ सालों में उसने कई यात्राएँ की हैं, कई पड़ावों को पार किया है। समाज में जितने आंदोलन, परिवर्तन हुए सभी को हिंदी सिनेमा ने अपने कथ्य का आधार बनाया फिर स्त्री जो कि परिवार,राष्ट्र की धुरी है उसको कैसे अनदेखा कर दिया जाता। सिनेमा ने अपनी ज़िम्मदारी पूरी तरह निभाई है। उसने कभी भी स्त्री और उसके सरोकारों से अपना पल्ला नहीं झाड़ा अपितु वह स्त्री के साथ सजग रहकर खड़ा रहा है।

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