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सुबह अभी हुई नहीं थी 

सुबह अभी हुई नहीं थी। सूरज निकलने में अभी कुछ वक़्त और था। रात के कालेपन और सुबह के उजालेपन के बीच जो धूसर होता है वह अपने चरम पर चमक रहा था। चारों तरफ़ एक सर्द ख़ामोशी छाई थी। 

इस मुर्दा सी खामोशी का हनन तब हुआ जब मीनल एकाएक हड़बड़ा कर उठ बैठी। वह कुछ इस तरह काँप रही थी जैसे उसके शरीर के भीतर कोई बिजली कौंधी हो। उसकी साँसें लगभग दौड़ रहीं थीं।

अपने आसपास देखकर उसे कुछ राहत हुई और उसने तसल्ली जैसी किसी चीज़ की ठंडी आह भरी। एक बुरा सपना . . .?

उसे अपने सपने पर खीज हो आई।

ज़्यादा खीज शायद इस बाबत की आज भी कोई बुरा सपना आने पर वह बच्चों सी सहम जाती है।

उसने घड़ी की ओर देखा तो एक नई निराशा ने उसे घेर लिया। वह घंटों का जोड़–भाग ही करती कि इस से पहले, औचक ही उसे याद हो आया कि कमरे में वो अकेली नहीं है। उसे हैरत हुई कि जो कुछ सामने हो उसे कितनी आसानी से भूला जा सकता है। 

वह धीमे क़दमों से हाल की तरफ़ बढ़ी। उसे यह देख राहत हुई कि उसकी हलचल से रजत की नींद में कोई ख़लल नहीं पड़ा था। 

वह अपना सपना भूल एकटक रजत को निहारने लगी। जिसे आप प्रेम करते हों उसे चैन से सोते हुए देखना भी अपने-आप में एक बहुत बड़ा सुख होता है। 

कुछ एक सदी बाद वह खड़ी हुई और धीमे क़दमों से, पूरी सावधानी बरतते हुए कि कोई शोर न हो, कमरे में टहलने लगी। अनायास ही काँच की लंबी खिड़की के सामने आ के उसके क़दम ठिठक गए। 

उसकी नज़र काँच की लंबी खिड़की से बाहर पड़ी तो उसकी आँखों में जादू भर आया। 

ख़ूब घने पाइन और देवदार के पेड़। हर जगह बर्फ़ और धीमी पड़ती होती हुई बर्फ़बारी। दूर शून्य में दिखती हुई पहाड़ों की एक धुँधली सी परछाई। उसे ऐसा लग रहा था जैसे यह लैंडस्केप वास्तविकता में न होकर, किसी महान चित्रकार की उसके सामने की गई कोई पेंटिंग हो। ये नायाब नज़ारा धीरे-धीरे उसके भीतर उतरने लगा। 

अब उसके और इस अद्भुत नज़ारे के बीच बस काँच का एक टुकड़ा था – जैसे वो अपनी पूरी ताक़त लगा बाहर की दुनिया के खुलेपन को मीनल के भीतर के बंद से मैला होने से बचाने की ज़द्दोजेहद में हो|

मीनल को लगा जैसे उसकी अपनी इस दुनिया से केवल दो क़दम दूर कोई दूसरी, बहुत ही ख़ूबसूरत दुनिया बसती है – जैसे पहली बार उसकी अपनी दुनिया और वह जिस दुनिया में होना चाहती है, उनके बीच एक ऐसा फ़ासला है जिसे वह सचमुच तय कर सकती है। उसने मन ही मन कुछ निश्चय किया और शायद वही कुछ एक चिट में लिख शीशे पर चिपका दिया। ठंड के मुताबिक़ कपड़े पहन वह अपने कमरे से बाहर आ गई। 

मीनल को इस वक़्त कोई जल्दी नहीं थी, वह बर्फ़ की फिसलन से बचते हुए, धीमे और सधे क़दमों से आगे बढ़ने लगी। उसका बस चलता तो वह वक़्त की धार को रोक इसी पल में सिमट जाती। शायद वह ख़ुद को पूरा सोख लेना चाहती थी।

चलते-चलते उसे लगा यह वही समय है जब सब कुछ बहुत दूर नज़र आता है, हमारी पहुँच से बिल्कुल बाहर। रह जाते हैं केवल हम, और बच जाता है हमारा नितांत अकेलापन या मीठा एकांत। वही समय है जो हमें परत दर परत खोलते हुए ख़ुद ही के सामने उघाड़ के रख देता है। हम अपने भीतर झाँकते हैं – साहस से या किसी मजबूरीवश – और ख़ुद को आरपार देखते हैं। 

पहले घड़ी देखने के बाद जो घंटों का हिसाब करना रह गया था, वह अब सालों के हिसाब का रूप ले चुका था। शायद सच ही है—जो कुछ भी हम सोचते हैं, करते हैं, वह हम तक वापस लौटता है—इसी जीवन में। 

चलते-चलते मीनल बहुत दूर जा पहुँची थी और अब आसपास ही कोई जगह देखने लगी थी। 

जिस जगह वह बैठी वहाँ से दूर की पहाड़ियाँ भी एकदम साफ़ दिख रहीं थीं। शायद इसलिए ही उसने यह जगह चुनी। उसे पहाड़ों से एक लगाव हमेशा से रहा था।

दूर पहाड़ियों की चोटियों पर पड़ी बर्फ़ की सफ़ेद चादर उसे इस क़दर आकर्षित करने लगी कि उसने वह बर्फ़ नज़दीक से देखने की जगह अगले जन्म बर्फ़ की चादर हो जाने की कामना की। होने को तो जिस पगडण्डी पर चलकर वह इस जगह तक आयी थी, ढेर सारी बर्फ़ वहाँ भी जमी थी, लेकिन उसकी सतह से वह साफ़ सफ़ेद होने की जगह धूल से मटमैली हो दाग़दार सी प्रतीत होती थी। यही कारण रहा होगा जिस की वज़ह से इस बर्फ़ ने उसे इस क़दर प्रभावित नहीं किया। न ही उसने इस बर्फ़ के गोले बना हाथों से कुछ खेल किया, न ही इसकी छुअन के ठंडेपन को महसूस तक किया। वह उसके होने को जैसे नकार कर – बिना कोई दिलचस्पी दिखाए आगे बढ़ती गई थी। उसे अपने दोगलेपन पर पहले खिन्नता महसूस हुई और फिर हँसी आई। 

शायद जब हम किसी चीज़ को दूर से देखते हैं तो उस अनजान के झुरमुट में भी कुछ सुखद होने की आशा ही हमें विस्मित करती है। जब तक हम उस अनजान को नहीं जानते और उस के पास नहीं पहुँच जाते हमारा यह भ्रम बना रहता है। जैसे ही हम उस अनजान के नज़दीक पहुँचते हैं हमारा यह भ्रम कुछ यूँ बिखरता है मानो भीतर बहुत कुछ टूट गया हो– ऐसी टूट जो किसी की नज़र में आने की मोहताज नहीं होती – जिस टूट को केवल को हम देख सकते हैं, जिसकी पीड़ा केवल और केवल हम ख़ुद महसूस कर सकते हैं।

पहाड़ों के सौंदर्य और सुनहले पुराने दिनों के बीच ज़रूर कोई अदृश्य लेकिन घनिष्ठ रिश्ता होता है, ऐसा रिश्ता जिसमें कभी गाँठें नहीं पड़तीं। मीनल को भी पहाड़ों की गोद में बैठ बीते क़िस्से याद हो आये। 

जीवन भले ही गंदे पानी के तलाब की तरह ही क्यूँ न रहा हो, उस गंदे से गंदे कीचड़ के बीच भी कुछ हसीन यादें दिलकश कमल की तरह उग आती हैं – और यादें भी वो बातें जिनके गुज़रते वक़्त हम अनुमान भी नहीं लगा सकते की यह हमारे ज़ेहन का हिस्सा बन हमारे अंत तक साथ रहेंगी और – जिन से लिपट के ही हम अपना सारा जीवन गुज़ार देना चाहेंगे । 

याद आए क़िस्से अमूमन किसी बीते हुए प्रेम के होने चाहिए थे . . . किसी प्रेमी के होने चाहिए थे। 

लेकिन बादलों में मीनल को जो आकृति दिखाई दी वो बड़की दीदी की थी।

उसने एक गहरी साँस अंदर खींची और कसकर आँखें भींच लीं, लेकिन इसके बाद भी पलकों के घने अँधेरेपन में जब बड़की दीदी नज़र आयी तो वह कुछ काँप गयी। उसने कुछ धीरे से आँखें खोलीं।

यूँ बड़की दीदी को याद करने की कोई ख़ास वज़ह नहीं थी। और इस वक़्त तो बिलकुल भी नहीं। 

पर शायद हमारी ज़िन्दगी के कुछ चुनिंदा ख़ास लोग हमें इसी तरह याद आते हैं - बेवज़ह और बेवक़्त । 

बड़की दीदी से उसकी एक अरसे से मुलाक़ात नहीं हुई है। उसे अचरज हुआ की इतना समय बीत जाने पर भी उनकी छोड़ी छाप अमिट थी। 

बीते हुए दिन और ज़्यादा पुरज़ोर तरीक़े से उसके सामने तैरने लगे थे। अतीत और वर्तमान के बीच की रेखा मद्धिम होती हुयी एकदम धुँधली पड़ चुकी थी। 

वह बड़की दीदी को घर की कोई बात बता रही थी। ज़रूर कोई ऐसी बात रही होगी जिसके लिए माँ ने उसे कहा होगा यह किसी को मत कहना। हर परिवार के अपने कुछ राज़ होते हैं। लेकिन बड़की दीदी भी तो उसके परिवार में शामिल थी; ख़ून से नहीं पर मन से। बड़की दीदी को वह बात कहते हुए उसकी आवाज़ में कोई संकोच नहीं था और न ही कोई लाग लपेट थी। वह बेधड़क हो धड़ल्ले से बोल रही थी। बड़की दीदी एकमात्र इंसान थी जिनके सामने वो अपनी हर बात रख सकती थी। जिनके सामने वो खुल कर रो सकती थी। और ज़िंदगी में किसी ऐसे इंसान का होना जिसके सामने आप खुल कर रो सकें, किसी वरदान से कम नहीं हुआ करता।

एक बार उसने बड़की दीदी से कहा था– काश इंसान ने कोई ऐसी वाशिंग मशीन भी बनाई होती जिसमें मैले हुए रिश्तों को चमकाया जा सकता, उसके सारे दाग़-धब्बे साफ़ किए जा सकते और सारी गिरहें खोली जा सकतीं। बड़की दीदी उस से सहमत नहीं थी। उन्होंने कहा था बिना गिरहों का रिश्ता कभी मुकम्मल नहीं होता। जब तक दो लोग उन गिरहों को खोलने का ख़ुद तकल्लुफ़ न उठाएँ या उन गिरहों के साथ भी अपने रिश्तों को न सहेज पाएँ वह रिश्ता मुकम्मल कैसे होगा। 

कई बार मीनल ने सोचा था – बड़की दीदी उनके रिश्ते की गिरहें खोलने का प्रयास क्यूँ नहीं करती। पर उनके रिश्ते में दूरियाँ किस दिन या किस बाबत आईं इस पर ठीक-ठीक उँगली रखना मुमकिन नहीं हैं। कई बार रिश्तों में किसी की कोई ग़लती नहीं होती, और गाढ़े से गाढ़ा रिश्ता भी धीरे-धीरे स्वयं खोखल हो जाता है या समय की बलि चढ़ जाता है। 

वह सोचने लगी कि क्या प्रयास कर एक मरे हुए रिश्ते को ज़िंदा किया जा सकता है? 

नहीं! 

मीनल ने ख़ुद को झँझोड़ा। “बड़की दीदी कहाँ सोचती होंगी मेरे बारे में – कहाँ मुझे याद करती होंगी? इतने सालों में एक फोन नहीं – एक मैसेज नहीं। क्या उन्हें कभी मेरी कमी महसूस नहीं हुई? क्या कभी मैं कैसी हूँ यह जानने की इच्छा नहीं हुई? इतनी खट्टी–मीठी स्मृतियाँ, साथ बिताए साल – क्या सब कुछ धूमिल हो गया?” सवाल ख़ुद से था, तो जवाब भी ख़ुद ही देना था – “लेकिन मैंने भी कहाँ किया उनसे संपर्क? शायद उन्होंने भी कई दफ़ा सोचा हो पर न कर सकी हों - अक़्सर रोज़मर्रा की ज़िम्मेदारियाँ पुराने रिश्तों पर हावी हो जाया करती हैं।“ उसने ख़ुद ही को समझाने के लिए दलीलें दीं। 

वह यह सब सोचते हुए बर्फ़ में ही लेट गई। 

सुबह का सूरज अब चढ़ आया था और अपनी मद्धिम रोशनी से सफ़ेद बर्फ़ को स्वर्ण किरणों में रंग रहा था – पूरा वातावरण यूँ जगमगा रहा था कि उसकी सुंदरता देखते ही बनती थी।

मीनल ने अपने फोन में वह मैसेज खोला जो वह लिख कर कई मर्तबा पढ़ चुकी है। वह मैसेज जो उसने बड़की दीदी को लिखा तो था लेकिन कभी भेज नहीं सकी। 

फिर अचानक लगा कि . . .

वह कुछ निश्चय करती इतने मे उसे रजत की आवाज़ क़रीब आती सुनाई दी। 

“मीनल यह क्या तुम्हारी सफेद जैकिट धूल में सन गई है। चलो अब जल्दी इसे बदल लो फिर घूमने भी जाना है।”

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टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2021/09/16 11:51 AM

बेहद भावुक करने वाली कहानी

कृपया टिप्पणी दें

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