सुनहरा बचपन
काव्य साहित्य | कविता मोनिका सिंह1 Oct 2020 (अंक: 166, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
लौटा दो मुझे वो बचपन
जहाँ ख़ुशियों के मायने
बन्द गुलक में खनकती चिल्लर हुआ करती थी।
बचपन,
जहाँ
मैं सिर्फ़ मैं थी,
ना कोई तहज़ीब, न बंदिशों की जकड़न हुआ करती थी।
बचपन
जहाँ
बस्ते में पड़ी किताबों के बोझ से
काँधे झुकें लेकिन,
चेहरे पर मुस्कान टिका करती थी।
बचपन
जहाँ, अमीरी के पैमाने,
जेब मे पड़े कंचों की आवाज़ हुआ करती थी।
बचपन
जहाँ, खुल कर हँसने और रोने पर
औरों की सोच की नुमाईश ना हुआ करती थी।
बस,
वही कूदता, फाँदता, उछलता बचपन
लौटा दो, लौट दो।
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