सुनो प्रह्लाद
काव्य साहित्य | कविता डॉ. सुशील कुमार शर्मा5 Mar 2016
सुनो प्रह्लाद कैसे लगाऊँ
तुम्हें रंग अबीर
घिरे हो तुम
असंख्य होलिकाओं से
क्या जला सकोगे इन्हें
अपनी बुआ की तरह
राजनीति में षड्यंत्र को होली को
शिक्षा को सरे-बाज़ार बेचती होली को
गाँवों को उजाड़ शमशान बनाती होली को
शहरों को कांक्रीट जंगल बनाती होली को
पेड़ों पर आरी चलाती होली को
नदियों को रेगिस्तान बनाती होली को
किसान को मौत से मिलाती होली को
बेटियों को क़त्ल कराती होली को
टीवी चैनलों पर चीखती-चिल्लाती होली को
अपनी विचारधाराओं को दूसरे पर थोपती होली को
रोटिओं के लिए बचपन को तड़पाती होली को
अमीरों को सरताज, ग़रीबों को रौंदती होली को
प्रतिभाओं को पीछे धकेलती होली को
मिसाइलों ,परमाणु बमों से खेलती होली को
खुशियों को बाज़ारों में बेचती होली को
देश द्रोह के नारे लगवाती होली को
सुनो प्रह्लाद इन होलिकाओं से कैसे मुक्ति पाओगे
कैसे मारोगे देश के अंदर सुलगते दरिंदों को?
कैसे बचाओगे पंखों पर लटकते छात्रों को?
कैसे सहलाओगे भूख से बिलबिलाई आँखों को?
कैसे रोकोगे सीमा पार के आतंकों को?
कैसे रोक पाओगे पर्वतों पर पिघलती बर्फ़ को?
कैसे सह पाओगे सर्द सहमी रातों को?
क्या रोक पाओगे स्याह अँधेरे में लुटती अस्मतों को?
क्या रोक पाओगे तुम रेत के लुटते किनारों को?
क्या रोक पाओगे सलीबों पर लटकते किसानों को?
क्या रोक सकोगे संसद में राजनीति के हंगामें को?
मुझे मालूम है तुम
इन होलिकाओं से घिरे हो अभिमन्यु की तरह
फिर कोशिश करेंगी यह होलिकाएँ तुम्हें जलाने की
अनंत वर्षों से तुम इन से बचते आ रहे हो
क्या इस वर्ष भी बच पाओगे?
अगर इन से बच सको तो आना मेरे पास
ले आना प्रेम का गुलाल
हम खेलेंगे फगुनिया होली
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