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सूरज और बादल

एक दिवस सूरज यों बोला -
भर घमंड में ऐंठा सा।
"मैं जग को प्रकाश से भरता,
जगमग बड़ा सुनहरा सा॥

बादल तेरी हस्ती क्या है?
नीला काला दिखता है।
यहाँ वहाँ तू भागा फिरता,
और हवा से डरता है॥

दुनिया मुझको सदा पूजती,
मैं ही करता हूँ दिन-रात।
हाँ, सूर्योदय- सूर्यास्त भी,
केवल मेरे वश की बात॥

सर्दी-गर्मी मुझ पर निर्भर,
चाँद चमकता मुझसे ही।
है अनाज भी मुझसे पकता,
पेट भरे जो सबका ही॥

कभी कभी तू बरस बरस कर,
धरती गीली करता है।
नहीं काम तू कुछ भी करता,
आवारा सा फिरता है॥"

बादल हँसा, न बोला कुछ भी,
आया बनकर घटा तभी।
सूरज को ढँक लिया मेघ ने,
जिससे सूरज छिपा तभी॥

बार बार कोशिश कर हारा,
बाहर आने की सूरज।
पर उसकी न एक चली,
खो बैठा अपना धीरज॥

बादल की तब शक्ति देखकर,
सूरज मन में शर्माया।
गर्व छोड़कर, शीश झुकाकर,
क्षमा माँगने तब आया॥

बादल बोला -

"मैं बरसूँ न अगर तो देखो,
फ़सलें बढ़ती हैं कैसे?
धरा सूखती, फूल न खिलते,
फिर मानव जीता कैसे?

इसीलिये तुम गर्व न करना,
हम दोनों मिल साथ चलें।
मिलजुल कर ही काम करें हम,
जगती का सब दु:ख हर लें॥"

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