सूरज दादा
बाल साहित्य | बाल साहित्य कविता डॉ. आर.बी. भण्डारकर1 Jan 2021 (अंक: 172, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
सूरज दादा, सूरज दादा
तुम तो मुझे बहुत भाते हो,
मैं तो सोता ही रहता हूँ
ठीक समय तुम आ जाते हो।
मैं तो कभी अचंभित होता
कभी सोचता हूँ यह बात,
अगर कभी तुम आ न पाए
तो कैसे जाएगी रात।
घड़ी कौन सी दादा रखते
कौन अलार्म लगाता है,
सच्ची बात बताओ दादा
यह सब कैसे हो पाता है।
ममा जगाती मुझे रोज़ ही
तब ही मैं उठ पाता हूँ,
ममा तुम्हारी भी अच्छी हैं
मैं तो यही सोच पाता हूँ।
दादा पुण्य आपका आना
जग में जीवन ला देता है,
क्रियाशील सब हो जाते हैं
हर अपनी मंज़िल पाता है।
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