स्वचालित / ऑटोमैटिक
काव्य साहित्य | कविता शकुन्तला बहादुर1 Aug 2021 (अंक: 186, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
इस वैज्ञानिक युग में भाई,
आविष्कार नये होते हैं।
ऑटोमैटिक बनी मशीनें,
हम भी तो ख़ुश होते हैं॥
कभी नहीं सोचा ये हमने,
जग ये कैसे चलता है?
जब से है ये सृष्टि बनी,
सब अपने से ही होता है॥
आए जाए साँस स्वत: ही,
दिल भी धड़के स्वयं सदा।
भोजन ऑटोमैटिक पचता,
शक्ति हमें नित दे जाता॥
रक्त प्रवाहित होता रहता,
कौन प्रवाहित करता इसको।
ऑटोमैटिक सब होता है,
धन्यवाद है उस सृष्टा को॥
सूरज स्वयं उदित होता है,
स्वयं अस्त हो जाता है।
चन्द्र स्वयं नभ में आता है,
तारों संग क्रीड़ा करता है॥
हवा स्वयं चलती रहती है,
बादल बरसा करता है।
नदी सदा बहती रहती है ,
सागर भरता रहता है॥
जड़ी-बूटियाँ उगतीं कैसे,
रोग सभी का हर लेतीं ।
धरा अन्न उपजाती कैसे,
उदर सभी का भर देती॥
सारी सृष्टि स्वचालित है ये,
यही करिश्मा है प्रभु का।
ऑटोमैटिक नया नहीं है,
मानो आभार नियन्त्रण का॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कविता
कविता
स्मृति लेख
सामाजिक आलेख
ललित निबन्ध
लोक गीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं