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काव्य साहित्य | कविता डॉ. प्रभा मुजुमदार21 Mar 2009
फिर होगा राजतिलक
नये राजा का
ढोल, नगाड़ों और
शहनाइयों के साथ,
बंदनवार
सजे हैं द्वारों पर
सिंहासन और
मुकुट की चमक से
चौंधिया गई हैं आँखें,
लंबे जुलूस
स्वागत गान
फूलों की बरसात...
कुचल गये हैं
कुछ असहमति के स्वर
हाथियों के जुलूस तले
कितनों ने की है आज
भूख की वजह से
आत्म हत्या
बेघर कर दिये गये हैं
इस दौरान
रास्ते में पड़ने वाले
घरों के लोग
हर वक़्त मिली
नाकामयाबियों ने
कितनों का
आत्मविश्वास
कुंठा में बदल दिया है
प्रशासन के
डंडे से आहत
उस बेकसूर नौजवान ने
बेवजह होते हुए
अपमान का प्रतिशोध
लेने के लिये
उठा ली हैं बंदूकें
बार बार रोते
मचलते बच्चों को
डरा धमका कर
अभी अभी सुलाया है
उनकी माँओं ने
इस बंद गली की
बदबू और घुटन को
ढँक दो
फूलों के तोरण से
राजा की रथयात्रा
आ सकती है इधर
कभी भी।
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