स्वप्नप्रिया
काव्य साहित्य | कविता कवि भरत त्रिपाठी18 Jan 2018
हे प्रिये! स्वप्न में छवि तुम्हारी
लगी रति की परछाई...
मन मदन हुआ विचलित होकर
तन उठी अजब सी तरुणाई..
1) नीरज की नव पाँखों जैसे
ओष्ठ तुम्हारे पुलकित हैं...
सावन के बहते समीर से
केश अति आह्लादित हैं...
शशि सम मुख की शोभा गढ़ते
नयन युगल अति प्यारे हैं...
उपवन के सुंदर सुमनों सम
प्रिय कपोल द्वय न्यारे हैं...
हे प्रिये! स्वप्न में छवि तुम्हारी
लगी दामिनी मचलाई...
मन गगन हुआ विस्तृत होकर
तन श्यामल गात घटा छाई...
2) रजनीगन्धा सा महके तन
मन मृदु भावों का स्पंदन है...
ऊसर जीवन में तवागमन
ज्यों मेघदलों से सिंचन है...
अहसासों की नदी उफनती
तट खण्डन को आतुर है...
है रत्नाकर का आमंत्रण
तटिनी बंधन को आतुर है...
हे प्रिये! स्वप्न में छवि तुम्हारी
लगी स्नेह की पुरवाई...
तन विटप हुआ विह्वल होकर
मन शाखा-शाखा लहराई...
3) लट लहराती लम्पट काली
तव मुखमण्डल पर बलखाए...
पदचापों से स्वर्णिम घुँघरू
मधुरम गाए मन हर्षाए...
कोमल कटि पर कनक कणकती
करे कामिनी अठखेली...
है दिवस सुनहरा मित्र तुम्हारा
रजनी है प्यारी हेली...
हे प्रिये! स्वप्न में छवि तुम्हारी
लगी चाँदनी मुस्काई...
मन शशि हुआ निर्मल होकर
तन धवल चाँदनी फैलाई...
हे प्रिये! स्वप्न में.....
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