स्वतंत्रता सेनानी मरुदु सहोदर
आलेख | ऐतिहासिक प्रो. ललिता15 Aug 2021 (अंक: 187, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
भारत की जनता जब अंग्रेज़ों के घोर दुराचार से पीड़ित थी तब उनकी पीड़ा को हरण करने तथा देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए १७ वीं शाताब्दी में देश में कई वीर सेनानियों का आविर्भाव हुआ। इन में ये दो महत्वपूर्ण हस्तियाँ हैं मरुदु पांडियर सहोदर, पेरिय मरुदु (बड़े भाई) व चिन्न मरुदु (छोटे भाई) तमिलनाडु में विख्यात हैं। उन्होंने अंग्रेज़ों को इस धरती से उखाड़ फेंकने के लिए बचपन में ही शस्त्र उठा लिए थे और उनके विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजा दिया था । इस संघर्ष में उन्होंने भारतीय जनता को संगठित करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया था। उनके इस व्यवहार से अंग्रेज़ अत्यंत क्रोधित हो गए और इन दोनों को 24 अक्तूबर 1801 में तिरुपति में फाँसी के तख़्त पर चढ़ा दिया था। तो आइए इन महान विभूतियों को थोड़ा विस्तार से जानें!
तमिलनाडु में स्थित विरुदुनगर ज़िला जो आज मुक्कुलम् नाम से प्रसिद्ध है वहाँ पलनियप्पन तथा आनंदाई दंपती को सन् 1748 में तथा 1753 पाँच वर्ष के अंतर में दो पुत्र अवतरित हुए वही आगे चलकर अंग्रेज़ों के नींद उड़ानेवाले वीर सेनानी साबित हुए।
शिवगंगा के प्रतिष्ठित राजा मुत्तुवडुगनादर ने इन दोनों की बहादुरी और पराक्रम को देखकर तत्क्षण इन्हें अपनी सेना में शामिल कर लिया था। इस समय पड़ोसी राजा आर्काट नवाब ने कर वसूली में अंग्रेज़ों को समान हिस्सा देने की मंजूरी दे दी थी और जो राजा इस नीति का विरोध करता था, उसके राज्य पर प्रचंड आक्रमण कर दिया जाता था। रामनाथपुरम को जीतने के बाद उनका निशाना बना था शिवगंगा! इस अप्रत्याशित हमले का सामना करते-करते वहाँ के राजा मुत्तुवडुगनादर तथा उनके कुछ अन्य साथियों को मृत्युलोक पहुँचा दिया गया था। उनकी पत्नी रानी वेलुनाच्चियार सहित मरुदु भाई अपनी जान बचाते हुए वहाँ से भागकर दिण्डुकल के पास विरुपाट्ची जंगल में छिप गए थे ।
सन् 1772 से लेकर सन् 1779 तक सात वर्ष का अज्ञातवास मरुदु भाइयों का कठिन संघर्ष काल कहा जा सकता था। एक ओर अंग्रेज़ों की कठिन निगरानी से बचकर निकलना था और साथ ही उनके सामने अपने कंधे पर लिए हुए दायित्व को पूरा करना भी उनका परमोत्कृष्ट धर्म था। ये भाई युगल नये शस्रों को चला कर और नई रणनीतियों से दुष्ट अंग्रेज़ों को पछाड़ कर रणचंडी रूप धारण कर आगे बढ़ रहे थे। सात वर्ष घोर संघर्ष हुआ और फलस्वरूप ग़ुलामी के गहन अंधकार को चीरकर नई आज़ादी की किरण उदित हुई! आर्काट नवाब, तोंडैमान, कुंबिनियार अपनी पूरी सेना के साथ अंग्रेज़ों से मिले हुए राजाओं की निशानी को मिटा देने में कामयाब हो गए। शिवगंगा को जीतकर वेलुनाच्चियार को उनका खोया हुआ मुकुट भेंट स्वरूप वापस करवा दिया गया।
मरुदु सहोदर पराक्रमी मात्र नहीं अपितु करुणानिधान भी थे। अन्य धर्मों के प्रति भी सद्भाव रखते थे। स्वार्थ जीवन को त्यागकर उदारता का पालन करते थे। इतनी महान हस्तियों की कीर्ति जब तक तमिल जगत में रहेगी तब तक यह माटी में गंध के समान महकती रहेगी। जय हिन्द! जय भारत!
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