स्वयं को न छलो आराध्य
काव्य साहित्य | कविता संजय कवि ’श्री श्री’1 Feb 2021
मेरे आराध्य!
परित्याग से पहले
मुझे कह सकते थे,
या सह सकते थे;
लोगों की झूठ फैलाई
मेरी कलंक कथा,
या पूछ सकते थे मुझसे मेरी व्यथा;
किन्तु ये स्वांग रचाना,
एक ओजहीन अहं को बचाना;
शोभा नहीं देता।
जब गूँज करेगा
निश्छल वात्सल्य मेरा,
होगा शिथिल सवेरा;
हृद में उठती हूक को
निःशब्द बने मूक
रोकोगे कैसे,
अविरल अश्रुधारा को टोकोगे कैसे;
कैसे कह सकोगे
समाज के दबाव में,
ओजहीन अहं के प्रभाव में;
अभी भी
तुम मुझे त्याग नहीं सके,
स्नेहिल पुकार से भाग नहीं सके;
स्वयं को न छलो आराध्य!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
"पहर को “पिघलना” नहीं सिखाया तुमने
कविता | पूनम चन्द्रा ’मनु’सदियों से एक करवट ही बैठा है ... बस बर्फ…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अमावस्या की निशा
- इतना ही तुमसे कहना है
- कलुषित हो, मानुष किस ओर चला है. . .?
- कोशिश करते हैं इन्हें पढ़ने की
- कोशिश है
- चहुँ ओर शिखंडी बैठे हैं
- तुम अनीति से नहीं डरे थे
- तुम प्रेम कैसे करोगे?
- निःसंदेह अजेय हो तुम
- निःसंदेह पवित्र हो, तुम मेरे मित्र हो
- प्रिये तुम पूरी कशिश हो
- प्रेम
- भारत कण कण में जाग उठा
- मुझे आत्मा शरीर समझाने लगा
- मेरे प्रेम का तिरस्कार, मुझे सहर्ष है स्वीकार
- मैं तुम्हारा हृदय, तुम मेरे स्पंदन कहलाओगे
- वो मैं ही हूँ
- शकुनि को जीवन से निकाल दीजिये
- शरीर पार्थिव हो गया
- सब कुछ ख़त्म हो गया
- सागर तट पर
- स्वयं को न छलो आराध्य
- हम कितने ग़लत थे
- हर घड़ी मृत्यु को जिया
- हर जंग बेवज़ह थी
- हर हर महादेव
- हिस्से में था अपमान मिला, विस्मृत करके देखो समक्ष
- हे अमोघ! हे ब्रह्मबाण! अरि के प्राणों को हरो हरो
- हे मनुष्य! विध्वंस के स्वामी रुक जाओ
कविता - क्षणिका
नज़्म
खण्डकाव्य
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
{{user_name}} {{date_added}}
{{comment}}