ताज़ा हवा
काव्य साहित्य | कविता डॉ. गुलाम मुर्त्तज़ा शरीफ़23 May 2017
दूर रह कर भी उसको भुला न सका,
उसकी यादें मेरी ज़िन्दगी बन गई,
रेखाओं से रेखाएँ मिलाता रहा,
हाथ रुका तो उसकी छबी बन गई
मैंने गोकुल में ढूँढा, गरुकुल में ढूँढा,
ना राधा मिली, ना मीरा मिली,
आँख झपकी तो उसने पुकारा मुझे,
आँख खोला तो, ताज़ा हवा बन गई
लोग आते रहे, लोग जाते रहे
हम भी शामिल थे उसकी रुसवाई में
जो होना था, वह तो हो ही गया
दिल की धड़कन मेरी आरज़ू बन गई
मैं भटकता रहा बादलों की तरह
कभी गरजता, तो कभी बरसता रहा
सिसकियों से उतारा, लहद में उसे
मुँह से पर्दा हटा, रौशनी हो गई
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