तलाश अपनत्व की
काव्य साहित्य | कविता स्वर्णलता ठन्ना2 Jul 2014
अपनत्व की तलाश में
चलते-चलते जब कभी
पहुँच जाती हूँ मैं
तनहाइयों के जंगल में
तब आमद होती है
वसंत की
किंतु छा जाता है
पतझड़ का मौसम
और रह-रहकर
बिखर जाती है पत्तियाँ
अपने दरख्तों को छोड़
पैरों तले चरमराती
सूखी बेजान लताएँ
खींच ले जाती है मुझे
अवसाद की काली छाया में
गर्द की गुबार
बदल देती है
मेरी शक्लोसूरत
बींध देती है
पत्रविहिन डालियाँ
अपने काँटों से मुझे
मेरे लिए दुनिया रुक जाती है
मौसम ठहर जाते हैं
और मैं
गीली मिट्टी की गंध के सहारे
पहुँच जाती हूँ
क्षीणकाय सरोवर के पास
डुबो देती हूँ
अपने केशों को
धुल जाने के लिए
धूल गुबार
लगाती हूँ
अनगिनत डुबकियाँ
तब जान पाती हूँ
रीता है मेरा हृदय
शुष्क, भावहीन
मेरे अपनों के स्नेह बिना...।
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