अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

तथाकथित विकास से पिसते निम्न मध्यम वर्ग को दिखाता उपन्यास : मास्टर प्लान

पुस्तक का नाम : मास्टर प्लान 
लेखिका : आरिफा एविस 
प्रकाशक - डायमंड पॉकेट बुक्स 
मूल्य : 150 रु०
पृष्ठ : 136

डायमंड बुक्स से प्रकाशित युवा लेखिका आरिफा एविस का उपन्यास "मास्टर प्लान" दिल्ली को टोकियो में बदलने के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार पर पड़ते प्रभाव को दिखाता है। दिल्ली टोकियो तो नहीं बन पाता है, लेकिन इससे हज़ारों परिवारों का जीवन अंधकारमय बन जाता है। लेखिका ने कथानक में एक मुस्लिम परिवार को चुना है, जो दर्जी के पुश्तैनी धंधे से जुड़ा है और तरक्क़ी के लिए कानपुर से दिल्ली आता है। तरक्क़ी करता भी है, लेकिन कभी कुदरत की मार तो कभी सरकार की मार उसे फिर पुरानी स्थिति में ले जाती है। कुदरत की मार तो परिवार झेल जाता है, लेकिन सरकार का पहला झटका इस घर के बड़े लड़के को पागल बना जाता है तथा दूसरा झटका दूसरे लड़के को भीतर तक हिला जाता है, नायिका की माँ स्वर्ग सिधार जाती है और नई पीढ़ी के युवक से उसकी पढ़ाई छुड़वा लेती है। यह उपन्यास एक और झटके की ख़बर के साथ समाप्त होता है, जो निश्चित रूप से इस परिवार को प्रभावित करेगा ।

उपन्यास के केंद्र में मुस्लिम परिवार है और इसके माध्यम से लेखिका ने मुस्लिम परिवार की कुरीतियों को दिखाया है। साम्प्रदायिक सौहार्द दिखाना भी लेखिका का प्रमुख उद्देश्य है। मुस्लिम परिवार को हिन्दू परिवारों से मदद मिलती है, हालाँकि बदलते परिवेश की ओर भी इंगित किया गया है। तथाकथित नेता लड़कों के सामान्य झगड़े को सांप्रदायिक रंग देना चाहता है, लेकिन राम लाल की समझदारी उसे ऐसा करने से रोक देती है। यह उपन्यास गाय को लेकर फैली दहशत को दिखाता है, साथ ही उन परिस्थितियों का भी वर्णन करता है, जहाँ मिल-जुलकर रहने वाले हिन्दू-मुस्लिम परिवार भी एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर जो दंगे होते हैं, उनके प्रभाव को दिखाया गया। हुसैन कहता है -

"बेगम, दंगों में भी ग़रीब ही पिसा, उन्हीं का रोज़गार छूटा।"

और यह स्पष्ट किया गया है कि यह सब राजनीति का विषय है -

"मैंने तो अंजुम से न जाने कितनी बार कहा है, हिन्दू से नफ़रत या हिंदुओं का मुसलमानों से नफ़रत करना ये सब सियासी मसले हैं। तुमने देखा नहीं था राम बाबू को सियासी लोगों ने कितना भड़काया था।"

दंगे की दहशत के कारण अंजुम नहीं चाहती कि उसका पति दिल्ली जाए -

"देखिए, अब आप दिल्ली काम पर न जाओ। आप तो दिल्ली चले जाओगे पर यहाँ रहकर मेरा दिल घबराता रहेगा। वहाँ जाने के बाद आपकी न कोई चिट्ठी, न ही कोई खोज ख़बर बताने वाला। वक़्त का क्या भरोसा आगे भी कोई दंगा फसाद हो गया तो फिर क्या होगा? मुझे सोचकर ही घबराहट होती है।"

दंगे के बाद घबराहट का माहौल सामान्य बात है। दंगे भले हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर होते हैं, लेकिन सामान्यतः सब मिलकर रहते हैं। हुसैन कहते हैं -

"बेशक देश में हिन्दू-मुस्लिम के दंगे हुए थे, लेकिन ग़रीब जनता धार्मिक पचड़ों में नहीं पड़ती, जिन्हें रोज़ी रोटी का जुगाड़ नहीं वो धार्मिक मामलों में क्या सुध लेंगे। ये हिन्दू-मुस्लिम तो लोगों को आपस में बाँटने के लिए हैं। क़ुरआन छपती है, उनकी बाइंडिंग कोई हिन्दू कारीगर भी करता है।"

धर्म के विषय में लेखिका ने विस्तार से लिखा है। अंजुम बहुत ज़्यादा कट्टर है। हिंदुओं द्वारा दिया खाना वह नहीं खाती। वह कहती है -

"मदद अपनी जगह है और खाना पीना अपनी जगह।"

कावड़ियों के वस्त्र तैयार करने में उसे परेशानी होती है, लेकिन वह गाय को हिन्दू मानने को तैयार नहीं है और इसे पालने की ज़िद करती है। इस्त्मे जाने के बाद उसका कट्टरपन बढ़ा है। वह बहू के साड़ी पहनने को पसंद नहीं करती। 

"मुसलमान घरों की औरतें साड़ी नहीं बाँधती पर शबीना बाँधती है।"

जब-जब विपत्ति आती है, परिवार अंधविश्वास की तरफ झुकता है, धर्म से ज़्यादा जुड़ता है। परिवार में आशा आधुनिक ख़्यालों वाली है। उसकी पढ़ाई उसके विरोध की धार को तेज़ करती है। रफी भी शुरू में विरोधी है, वह संगीत को लेकर सवाल करता है -

"पर अब्बू, मोहम्मद रफी भी तो गाते हैं, साहिर लुधियानवी गीत लिखते हैं और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान शहनाई बजाते हैं और…"

रफी पढ़ नहीं पाता, शायद इसी कारण उसकी विरोधी प्रवृति धीरे-धीरे कुंद होती जाती है। वह धार्मिक लोगों के चंगुल में फँसता है, उन्हें पैसे देता है। आशा बताती है -

"कुछ मोमिन भाइयों ने जो मस्जिद की तरफ से सुबह सुबह गश्त के लिए ले जाने के नाम पर आते थे। वो दीन के नाम पैसा लिया, साथ ही उन्होंने अपने ख़ुद के ख़र्च के लिए एक लाख के क़रीब पैसा ले रखा था।"

धर्म को लेकर एक समस्या इसके धर्म ग्रन्थों की भाषा है, जो आमजन की समझ से बाहर है। परिणामतः लोग इसकी व्याख्या के लिए धर्म के ठेकेदारों पर निर्भर करते हैं। इस उपन्यास में भी इस समस्या को उठाया गया है -

"दीनी तालीम अरबी में हम पढ़ तो सकते हैं, लेकिन समझ नहीं सकते।"

लेकिन आम आदमी धर्म के खोखलेपन से अनभिज्ञ हो ऐसा नहीं। कारखाने का दृश्य इसे साबित करता है -

"सिर पर टोपी हो न हो पर हाथ में कपड़ा था जिसको सिलना था, पेट के लिए यही धर्म और ईमान था।"

जब रफी संगीत सुनने की बात करता है तो कारीगर कहता है -

"अगर गाना नहीं सुनेंगे तो कोई काम नहीं कर पायेगा। मनहूसियत में कोई कितने घण्टे काम कर सकेगा। जब भूख लगेगी न ये सब दीन की बातें भूल जाओगे।"

स्पष्ट है, ग़रीब के लिए रोज़गार पहले है, धर्म बाद में।

उपन्यास का मुख्य विषय सरकार की नीतियों से परिवार की बर्बादी को दिखाना है। सरकार की मंशा पर रफी शुरू में ही सवाल उठाता है -

"मुझे जानना है कि मास्टर प्लान में दिहाड़ी मजदूर, सिलाई मजदूर या रेडी-पटरी, खोमचे वालों के लिए भी कोई योजना है क्या?"

मास्टर प्लान की बात उपन्यास के दूसरे अध्याय में की गई। चुनाव के दौरान नेता इसकी घोषणा करते हैं। बारहवें अध्याय से इसका असर दिखता है। पहले सीलिंग के नाम से लोगों को उजाड़ा जाता है, फिर नोटबन्दी से लोगों को परेशान किया जाता है और अंत में जी एस टी लागू हो जाती है। लेखिका ने सीलिंग का अर्थ भी स्पष्ट किया है -

"रहने लायक जगह को रोजगार यानी व्यापार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। अब उस जगह का व्यापारिक कामों में इस्तेमाल करना गैरकानूनी है। इसी वजह से पता नहीं कब किसका मकान सीलिंग की जद में आ जाये, सब घबराए हुए हैं।"

कानून और तकनीकी बातों को भी विस्तार से बताया है। सीलिंग के बारे में उनका मत है -

"सीलिंग विलिंग, कुछ नहीं है बस विकास के नाम पर गरीब बस्तियों को उजाड़ने का एक हथियार है।"

नोटबन्दी के बाद की दशा का चित्रण किया है -

"जितना आसान मैं नोट बदलने की प्रक्रिया समझ रहा था वैसा नहीं है। यहाँ लोगों का जन सैलाब चींटियों की मानिंद खड़ा है।"

सरकार अपनी नीतियों के लिए आम जनता को अन्य मुद्दों में उलझाए रखती है-

"सीलिंग, नोटबन्दी की वजह से लोगों के घर तबाह हो रहे हैं पर इस पर घरों में कोई बात नहीं होती। किसी की लड़की कब कहाँ क्यों जाती है, इस पर खूब बात होती है। यह सब सरकारी एजेंडे के तहत हो रहा है कि लोग पारिवारिक मामलों में उलझे रहें और सरकार अपनी नीतियों को लागू करती रहे।"

सरकार का विरोध करने के लिए यूँ तो यूनियन बनी हुई हैं, लेकिन यूनियन में भी सरकार का हस्तक्षेप रहता है -

"बिटिया, यूनियन वुनियन सब नाम की है। यूनियन में भी आधे लोग उन्हीं की पार्टी के हैं।"

इन दो मुद्दों के अलावा सरकार और राजनीति को लेकर भी इस उपन्यास में बहुत कुछ कहा गया है। सरकार को भगवान से भी ताकतवर कहा गया है -

"अल्लाह आग लगाए तो भी हम बच सकते हैं पर सरकार आग लगाएगी तो कोई नहीं बुझा पाएगा।"

सरकारी योजनाएँ जब आम आदमी तक नहीं पहुँचती तो जनता दुखी भी होती है और सरकार को दोषी भी मानती है, इसी का नमूना है -

"कुछ नहीं करती है यह सरकार वरकार, वोट लेने हैं तो खूब वादे करती है, झूठे शिगूफे दिखाकर निकल लेती है पांच साल के लिए। तुम्हारे अब्बू की एक वृद्ध पेंशन तक बंध नहीं सकी। पेंशन के लिए गए तो तमाम पचड़ों में फंसा दिया। कभी कहते हैं विधायक से लिखाकर लाओ कि तुम गरीब हो। अरे उन्हें शक्ल देखकर नहीं पता चलता कि सामने वाला बन्दा बुजुर्ग और गरीब है। रोज रोज अच्छे दिन का हवाला दे रहे थे, आज तक हमारे अच्छे दिन नहीं आये।"

विकास के दावे किए जाते हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति इससे भिन्न है -

"विकास तो दिख रहा था पर ऊपरी तौर पर। सड़कें तो बनी थी पर साथ में गड्ढे भी बने थे। सड़क किनारे शहर को साफ रखने के नारे भी उकेरे थे पर नारे तो थे शहर साफ नहीं था।"

इन्हीं हालातों से तंग आकर कुछ लोग गलत कदम उठा लेते हैं, जैसे रफी कहता है -

"कभी कभी दिल करता है कि कोई बंदूक दे दे और इन नेताओं को उड़ा दूँ।"

लेखिका ने चुनावी माहौल में रैलियों के सच को भी दिखाया है -

"हमने जुम्मन और बलबीर को तीन रैलियों का पेमेंट पहले ही कर दिया है।"

उपन्यास का फलक बहुत बड़ा होता है, इसलिए इसमें जीवन के टीम विषयों पर चर्चा सहज ही हो जाती है, यह उपन्यास भी इससे अछूता नहीं। नारी समाज का महत्त्वपूर्ण अंग है, लेकिन नारी की स्थिति अच्छी नहीं, इसका चित्रण भी इस उपन्यास में किया गया है। नारी पर अनेक बंदिशें हमारा समाज लगाता है। मुस्लिम समाज में यह स्थिति और अधिक दयनीय है। बुर्के पर आशा कहती है -

"सारा पर्दा औरतों के लिए ही है, मर्द लोग बुरका क्यों नहीं पहनते।"

लड़कियों को पढ़ाने की परंपरा नहीं-

"ये तो मेरे कहने पर तुमको पढ़ा रहे हैं वरना तुम भी अपनी खानदान की लड़कियों की तरह अनपढ़ रहती।"

मुसलमान घरों की स्थिति स्पष्ट की गई है -

"मेरी बच्ची! तुम्हें कैसे समझाऊँ कि मुसलमान घरों की औरतें दीनी तालीम ज्यादा और स्कूली तालीम कम हासिल करती हैं।"

उपन्यास के अंतिम अध्याय में जब आशा लड़कियों से पूछती है कि वे उसके बारे में क्या जानती हैं तो लड़कियों का उत्तर है -

"ये पूछो आपके बारे में क्या नहीं पता। एक आवारा लड़की जो घर नहीं रहती। शादी नहीं कर रही। घर से भाग गई है। किसी से शादी कर ली है। खानदान की नाक काट दी है। जुबान चलाती है।"

ये सब बातें बताती हैं कि लड़की का पढ़-लिखकर नौकरी करने लगना कितना बुरा समझा गया है, हालाँकि बदलाव हो रहा है। आशा जब लड़कियों से उनकी पढ़ाई की बात पूछती है तो कोई एम.ए. बता रही है, कोई एल.एल.बी. यानी आशा एक आदर्श के रूप में भी स्थापित हो रही है। रफी भी अपनी पत्नी से कहता है -

"इसीलिए कहते हैं घर में पढ़ी लिखी बहू का होना ज़रूरी है, तुम्हारी सूरत देख के ब्याह लिया, आज पछतावा हो रहा है।"

नारी पर अनेक तरह के अत्याचार होते हैं, जिनमें घरेलू हिंसा भी है, शारीरिक उत्पीड़न भी। घरेलू हिंसा की झलकियाँ इस उपन्यास में भी हैं। शारीरिक उत्पीड़न सिर्फ घर से बाहर निकलने पर हो ऐसा नहीं। आशा कहती है -

"अब्बू जो लड़कियाँ घरों में रहती हैं क्या उनके साथ छेड़खानी, बलात्कार नहीं होते? घर में कौन सुरक्षित है? अपने ही जीजा, चचेरे, ममेरे भाई घर में लड़कियों के साथ ग़लत काम कर जाते हैं और घर में भनक भी नहीं पड़ती।"

नारी के प्रति समाज का नज़रिया जो भी रहे, ये सच है कि नारी स्वभाव से भी मेहनती है और मेहनत उसकी मजबूरी भी बना दी गई है- 

"मुझे तो इतना समझ में आता है कि औरत के लिए भी न रात होती है न दिन। घड़ी की तरह बिना रुके काम किये जाना उसकी नियति हो गई है। जिस तरह घड़ी का रुकना ठीक नहीं उसी तरह औरत का रुकना भी ठीक नहीं माना जाता।"

समाज से जुड़े अन्य अनेक मुद्दे बीच-बीच में आए हैं। शादी को लेकर चर्चा होती है।

"बेवजह लोग कहते हैं कि जोड़े ऊपर से बनकर आते हैं , हमारे यहाँ जोड़े शादियों में ही बनते हैं। यानी शादी माँ बाप के लिए लड़का लड़की पसन्द करने का केंद्र है।"

जैसे हिन्दू धर्म में कन्यादान बहुत महत्त्वपूर्ण है, उसी तरह उपन्यास में कहा गया है - 

"बेटी की शादी एक हज की तरह है।"

घरों में बंटवारे के लिए औरत को दोषी ठहराया गया है -

"अलग होने का काम मर्द नहीं करते औरतें करती हैं। सास बहू में तक़रार होगी पर बाप-बेटे में नहीं।"

शिक्षा महँगी है, इसलिए गरीब परिवार उच्च शिक्षा हासिल नहीं कर सकता -

"देखो बेटा, इंसानों का डॉक्टर तो हम बना नहीं सकते। सुना है डॉक्टरी की पढ़ाई में बहुत पैसा लगता है। लोगों के खेत बिक जाते हैं, मैंने तो यहाँ तक सुना है कि इंसान खुद बिक जाता है। हमारी इतनी औकात नहीं।"

गरीब आदमी का कोई महत्त्व नहीं -

"गरीब आदमी की क्या इज्जत और क्या बेइज्जती।"

 रोजगार के लिए किस प्रकार भटकना पड़ता है, इसे दिखाया है - 

"तुम्हीं बताओ क्या रखा है इस कस्बे में? पहले हम गाँव छोड़कर इस कस्बे में आये। किसलिए? सिर्फ रोजी रोटी के लिए ही न? अगर गाँव में गुजारा चल जाता तो कौन अपना घर परिवार छोड़ना चाहेगा?"

माँ-बेटे के प्रसंग से नेता और उनके भक्तों पर तंज किया गया है -

"जब नालायक औलाद की पैरवी माँ करने लगे तो किसी को क्या कहा जाए? ये तो वही बात हुई नेता बलात्कारी है, लेकिन उसके भक्त उसे बेगुनाह साबित करने पर तुले हुए हैं।"

धन और पूंजी के अंतर को बताया है -

"अब पूँजी धन में बदल रही है।"

पात्रों की दृष्टि से यह हुसैन के परिवार के सदस्य ही प्रमुख पात्र हैं। हुसैन की पत्नी अंजुम, दो पुत्र रफी और रहमान, एक पुत्री आशा और पुत्रवधू शबीना। हुसैन दर्जी है, वह ज्यादा बड़े सपने नहीं देखता और भाग्यवादी है -

"अल्लाह ने नसीब में जितना लिखा है, उसे उतना ही मिलता है। नसीब से जो मिल रहा है, उसे अल्लाह की रहमत समझकर हँसी खुशी से कुबूल कर लो।"

संगीत विरोधी है, बेटे से असहमत रहता है। भारत के शासक मुस्लिम थे, उसका उसे गर्व है, तभी वह लाल किले को देखकर कहता है -

"यह हमारे पुरखों की निशानी है।"

हालांकि इसे उसका झूठ दंभ समझा जाना चाहिए। अंजुम इस दंभ को नहीं मानती, हालांकि वह हुसैन से ज्यादा कट्टर है। रफी महत्त्वाकांक्षी युवक है, वह कारखाने का सपना देखता है - 

"क्या फेल आदमी व्यापार नहीं कर सकता? क्या फेल आदमी सफल नहीं हो सकता? एडीसन भी अपने कई प्रयोगों में असफल हुआ था तो क्या उसने प्रयोग करने छोड़ दिये?"

वह दसवीं में फेल हुआ इसके लिए उसे सदा ताने सुनने पड़ते हैं -

"तुम्हारे पास गुरूर और गुस्से के अलावा कुछ नहीं है। बड़ी-बड़ी बातें करवा लो नेताओं की तरह। इतने बड़े ही ख्वाब थे तो पास हो गए होते, यूँ दसवीं फेल न होते।"

पिता का कथन उसके चरित्र को भी उद्घाटित करता है। व्यापार चौपट होने का असर उसके स्वभाव पर भी पड़ता है। हुसैन कहते हैं -

"नवाब अब कारखाने में लड़ाई करने लगे हैं।"

कारखाने पर कुदरत की मार या सरकार की मार पड़ने पर वह अंधविश्वास में पड़ता है।

आशा इस उपन्यास का बेहद महत्त्वपूर्ण पात्र है। वह विद्रोही प्रवृत्ति की है। क़ुरआन में किताब रखकर पढ़ती है। वह सवाल करती है - 

"टीवी -रेडियो देखना सुनना हराम है, तो मस्जिद में माइक क्यों है? मौलाना साहब कलाम क्यूँ पढ़ते हैं? बच्चों को नज़्म पढ़ने के लिए क्यों कहते हैं? वो ख़ुद क़व्वाली क्यों सुनते हैं?"

अम्मी को समझाती है - 

"अम्मी! खाने का कोई मजहब नहीं होता। खाना ख़ुद एक मजहब है।"

उसके भ्रम को तोड़ने की कोशिश करती है - 

"जब बारिश हुई तब क्या उसने मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम का घर देखा? नहीं ना फिर आप.."

लड़के वालों के व्यवहार पर कहती है - 

"लड़की देखने आए थे या सामान खरीदने।"

जीवन को जीने के पक्ष में है -

"गरीब आदमी शौक नहीं शोक करता है। अपने शौक पूरी करना अच्छी बात है। शौक ही नहीं होगा तो आदमी कमाएगा किस लिए।"

उसे खुद पर विश्वास है तभी वह

"हिम्मत ए मर्दा तो मदद ए ख़ुदा" की बजाए 

हिम्मत ए मर्दा तो मदद ए इंसा" कहना उचित समझती है।

उपन्यास में संवाद के माध्यम से पीढ़ीगत अंतर को दिखाया है। समस्याओं को उद्घाटित किया गया है। वातावरण चित्रण में भी लेखिका सफल रही है -

"रात गहरा रही थी। कमरे की छोटी-सी खिड़की पर रखे लैम्प की रोशनी आँगन में ऐसे बिखर रही थी, जैसे वह सुबह का उजाला बनने के लिए तड़प रही हो।"

दिल्ली के इलाकों को चित्रित किया गया है। दिल्ली के बारे में लेखिका लिखती है -

"दिल्ली भी एक नहीं है, दिल्ली के अंदर भी कई दिल्ली हैं।"

लेखिका ने वर्णनात्मक, संवादात्मक शैली को अपनाया है। मनोविज्ञान का प्रयोग हुआ है। जब-जब कारखाने में समस्या आती है, घर में तनाव बढ़ता है, धर्म और अंधविश्वास की तरफ झुकाव होता है। भाषा सरल और मुहावरेदार है। कुछ नमूने -

"चले थे हरी भजन को ओटन लगे कपास। स्कूल मास्टर ने सही पढ़ा था किताब में कि दूर के ढोल सुहावने ही होते हैं।"

"भला डूबते सूरज को कौन सलाम करता है।"

"लौट के बुद्धू घर को आए।"

"न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।"

"अंडे में से मुर्गी निकली नहीं कि चूं-चूं शुरू कर दी।"

हालाँकि वाक्य विन्यास को लेकर अभी थोड़े सुधार की ज़रूरत है। हालाँकि इन थोड़ी से कमियों के कारण इस उपन्यास के महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को नकारा नहीं जा सकता। यह मौजूदा समय का दस्तावेज़ है। उस दौर में जब मीडिया चारण बनता जा रहा है यह सरकार की आलोचना का साहस भरा क़दम है, जिसकी तारीफ की जानी चाहिए।

समीक्षक : दिलबागसिंह विर्क 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

ग़ज़ल

कविता

लघुकथा

नज़्म

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं