अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

द डार्लिंग

द डार्लिंग : अंतोन पी. चेख़व (मूल लेखक)
अनुवादक : बी एम नंदवाना

ओलेंका, कॉलेज के एक रिटायर्ड प्रोफ़ेसर प्लेम्यनिकोव की बेटी, घर के पिछवाड़े सीढ़ियों पर यूँ ही बैठी हुई थी। वहाँ गर्मी थी, मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और परेशान कर रही थीं, और यह सोचना बहुत ही सुखद था कि जल्दी ही शाम हो जायेगी। पूर्व दिशा से काले-गहरे बादल उमड़ रहे थे, रह-रह कर हवा में नमी घोल रहे थे। 

कुकिन जो उसी मकान के विंग के एक कमरे में रहता था, यार्ड में खड़ा आसमान की ओर टकटकी लगाए हुए था। वह एक खुले-थिएटर ‘टिवोली’ का मैनेजर था।

“फिर से,” उसने मायूसी और हताशा से कहा, “फिर से बारिश। बारिश, बारिश, बारिश! हर रोज़ बारिश! जैसे दुर्भावनावश मुझ से बदला ले रही हो? मैं भी अपना सिर फाँसी के फंदे में डाल कर खेल ख़त्म कर दूँगा। यह मुझे बर्बाद कर रही है। हर रोज़ भारी नुक़सान!” उसने अपने हाथों को मसला और ओलेंका से बात जारी रखी: 

“क्या ज़िन्दगी है, ओल्गा सेमियोनोवना! यह सब एक आदमी को रुलाने के लिए काफ़ी है। वह अपना काम करता है, कड़ी मेहनत करता है, जी-जान लगा देता है, ख़ुद को यातना देता है, जागते हुए रातें बिताता है, वह सोचता है, बारम्बार विचार करता है कि किस प्रकार सब कुछ अच्छी तरह से किया जाय। और उसका नतीजा क्या है? वह दर्शकों को सबसे बढ़िया ओपरा देता है, सबसे अच्छे माइम का प्रदर्शन करता है, अच्छे से अच्छे कलाकार। परन्तु, क्या यह सब पब्लिक चाहती है? क्या उसे इसकी थोड़ी-बहुत भी समझ है? पब्लिक एकदम जाहिल है, बिलकुल गँवार। इन्हें तो सर्कस चाहिए, एक ख़ालिस बकवास, एक भरपूर मसाला। और इधर यह ख़राब मौसम। देखो! लगभग हर रोज़ बारिश। यह दस मई से शुरू हुई थी, और अब जून समाप्त होने वाला है। यह सब कितना भयावह है। ऐसे में मैं दर्शक कहाँ से जुटाऊँ, और क्या मुझे किराया नहीं देना है? क्या मुझे कलाकारों को पैसा नहीं देना है?”

अगले दिन शाम को फिर आसमान में बादल घिर आये, और कुकिन ने उन्माद से हँसते हुए कहा: 

“ओह, मुझे चिंता नहीं है, इसे बुरे से बुरा करने दो, इसे सारा थिएटर डुबोने दो, और साथ में मुझे भी। ठीक है, सफलता मेरे भाग्य में न इस जन्म में है और न अगले जन्म में, कलाकारों को मेरे विरुद्ध मुकद्दमा करने दो और मुझे कोर्ट में घसीटने दो। कोर्ट ही क्यों? हाड़तोड़ मज़दूरी के लिए साइबेरिया क्यों नहीं या भले ही फाँसी के तख़्ते तक? हा हा हा!”

तीसरे दिन भी मौसम वैसा ही बना रहा। 

ओलेंका चुपचाप गंभीरता से कुकिन की बातें सुनती। कभी-कभी उसकी आँखों में आँसू उमड़ आते। आख़िरकार कुकिन पर आई विपत्ति ने उसके हृदय को भीतर तक छू लिया। वह कुकिन से प्रेम करने लगी। वह छोटे क़द का था, दुबला-पतला और पीले चहरे वाला, और घुँघराले बाल ललाट से पीछे की ओर कंघी किये हुए, और लड़कियों जैसी पतली आवाज़। जब वह बोलता तो उसका चेहरा सिकुड़ जाता। निराशा उसके चहरे पर हमेशा छाई रहती। लेकिन उसने ओलेंका के अन्दर एक सच्ची, गहरी सहानुभूति जगा दी थी। 

वह सदैव किसी न किसी को प्यार करती थी। वह किसी को प्यार किये बिना रह नहीं सकती थी। उसने अपने बीमार पिता को प्यार किया था, जो अँधेरे कमरे में आराम-कुर्सी पर सारा दिन बैठे रहते थे, बोझिल साँस लेते हुए। उसने अपनी भुआ को प्यार किया था जो साल में एक-दो बार ब्रिआंसका से उनसे मिलने आती थी। और उससे पहले जब वह स्कूल में थी, उसने अपनी फ़्रांसीसी टीचर से प्यार किया। वह शांत, सहृदय, दयालु लड़की थी, कोमल और सौम्य व्यवहार वाली। कुल मिलाकर उसका व्यक्तित्व एक विशिष्ट छाप छोड़ता था। उसके भरे-भरे गुलाबी गालों को, उसकी कोमल सफ़ेद गर्दन और उस पर काले तिल को देखकर, लुभावनी भोली-भाली मुस्कान को देखकर, जो हर समय उसके चेहरे पर रहती, लोग यही सोचते, “इतनी बुरी भी नहीं,” और साथ ही मुस्करा भी देते; और मुलाक़ाती-महिलाएँ, उससे बात करते-करते, आनंद से भाव-विभोर हो, अकस्मात् उसका हाथ पकड़ लेती और कह उठतीं, “वाह डार्लिंग!”

उसका पैतृक मकान, जहाँ वह जन्म से ही रह रही थी, शहर के बाहरी इलाक़ों में जिप्सी रोड पर था, टिवोली थिएटर से ज़्यादा दूर नहीं। शाम से लेकर देर रात तक वह थिएटर का संगीत और आतिशबाज़ी के धमाकों को सुनती रहती; और उसे लगता कि कुकिन दहाड़ रहा है और अपने भाग्य से लड़ाई लड़ रहा है, और अपनी ख़ास दुश्मन, निरुत्सुक जनता पर प्रहार कर रहा है। उसका हृदय कोमलता के साथ धीरे-धीरे पसीजता। उसकी सोने की इच्छा नहीं थी, और जब सुबह होते-होते कुकिन वापस घर आता, वह अपनी खिड़की के शीशे पर थपकी देती, और वह परदे के पीछे उसका चेहरा और एक कंधा और उसकी संवेदनशील मुस्कान देखता…

उसने उसे प्रोपोज़ किया, और दोनों की शादी हो गयी। और जब उसने उसकी गर्दन और उसके भरे-पूरे हट्टे-कट्टे कन्धों को अच्छी तरह से देखा, उसने ताली बजाई और कहा: “वाह डार्लिंग!”

वह ख़ुश था। लेकिन उनकी शादी के दिन बारिश हुई और निराशा के भाव ने उसके चेहरे को कभी नहीं छोड़ा। 

दोनों की आपस में खूब निभ रही थी। वह केशियर के बॉक्स में बैठती, थिएटर को व्यवस्थित रखती, ख़र्चों का हिसाब रखती, और तनख़्वाह का भुगतान करती। उसके गुलाबी गाल, उसकी कमसिन उदार मुस्कान, उसके चेहरे की चारों ओर फैले प्रभामंडल की तरह, कभी केशियर की खिड़की पर, कभी दृश्यों के पीछे, और कभी कैफ़े के अन्दर देखी जा सकती थी। उसने अपने मित्रों को कहना शुरू कर दिया था कि “थिएटर सबसे महान, बहुत ही महत्वपूर्ण, और संसार की बहुत ही आवश्यक चीज़ है, कि वह स्वस्थ मनोरंजन और मानवीय गुणों को विकसित करने और शिक्षित होने का एक मात्र स्थान है।” 

“लेकिन, क्या तुम मानते हो कि जनता इसे महत्त्व देती है?" उसने पूछा। “जनता और कुछ नहीं, बस सर्कस चाहती है। कल मैंने और वनिच्का ने फॉस्ट बरलेस्क का प्रदर्शन किया, आधे से ऊपर बॉक्स ख़ाली थे। अगर हम कुछ बेवकूफ़ी भरा उटपटांग दिखाते, तो मैं तुम्हें विश्वास के साथ कहती हूँ थिएटर खचाखच भरा होता। कल हम ओर्फयूस इन हाडेज़ रखेंगे। तुम ज़रूर आना।” 

कुकिन थिएटर और कलाकारों के बारे में जो कुछ कहता, वह दोहराती। वह जनता का तिरस्कार करते हुए, कला के प्रति जनता की बेरुख़ी और उसके गँवारूपन के बारे में कुकिन की भाषा ही बोलती। वह रिहर्सल के बीच हस्तक्षेप करती, कलाकारों को निर्देश देती, संगीतकारों को साज बजाते ध्यान से देखती, और जब अख़बार में अप्रिय आलोचना छपती तो रो पड़ती और सम्पादक के पास जाकर ज़िरह करती।

कलाकार उसे पसंद करते थे और उसे “वनिच्का और मैं” और “वाह डार्लिंग” कहते। वह उनके लिए दुखी और चिंतित रहती, और उन्हें छोटी रकम उधार देती, और उनके नहीं लौटाने पर अपने पति से कभी शिकायत नहीं करती; ज़्यादा से ज़्यादा कुछ आँसू बहा लेती।

सर्दियों में भी, उनका काम अच्छी तरह चलता रहा। उन्होंने पूरी सर्दियों के लिए एक थिएटर लीज़ पर लिया, और उसे थोड़े-थोड़े समय के लिए एक छोटी रूसी थिएटर कंपनी को, एक जादूगर को, और लोकल कलाकारों को किराए पर दिया।

ओलेंका गोल-मटोल हो गई और उसका चेहरा हर समय आत्म-संतुष्टि के भाव से दमकता रहता; जब कि कुकिन और दुबला गया, पीला पड़ गया और अपने भयंकर नुक़सान की शिकायत करता रहता, हालाँकि उन सर्दियों में उसका काम काफ़ी अच्छा रहा। रात को वो खाँसता और वह उसे रसभरी का जूस और निम्बू-पानी देती, यू-डी-कोलोन से उसकी मालिश करती, उसे मुलायम गरम कम्बल ओढ़ाती।

“तुम मेरे प्रियतम हो,” उसके बालों को सहलाते हुए, बहुत ही संजीदगी से कहती, “तुम बहुत ही प्यारे हो।” 

ईस्टर के पहले, ‘लेंट’ के दिनों में वह अपनी कंपनी के काम से मास्को गया, और, उन दिनों उसके बिना, ओलेंका सो नहीं पाई। वह सारी रात खिड़की पर बैठी तारों पर टकटकी लगाए रहती। कुकिन को मास्को में रुकना पड़ा। उसने लिखा कि वह ईस्टर वाले सप्ताह में ही आ पायेगा, और अपने पत्रों में उन इंतज़ामों के बारे में भी बताया जो उसने टिवोली के लिए किये थे। परन्तु ईस्टर से पहले सोमवार को देर रात अपशकुनी खड़खड़ाहट पिछले गेट पर हुई। वह एक तरह से ढोल को पीटने जैसी थी – ढम, ढम, ढम! उनींदा रसोईया नंगे पाँव, बरसाती पोखर पर से उछलता हुआ दरवाज़ा खोलने के लिए भागा।

“कृपया, दरवाज़ा खोलिए,” किसी ने खोखली मंद आवाज़ में कहा, “आपके के लिए टेलीग्राम है।"

पहले भी ओलेंका के पास अपने पति के टेलीग्राम आये थे; परन्तु इस बार, पता नहीं क्यों, वह किसी अज्ञात भय से सुन्न रह गयी। उसने काँपते हाथों से टेलीग्राम खोला और पढ़ा:

“इवान पेत्रोविच की आज अचानक मृत्यु हो गयी। मंगलवार को वुनेरल के लिए प्रोप्ट के आदेश की प्रतीक्षा है।"

टेलीग्राम इसी तरह लिखा गया था। - “वुनेरल” – और दूसरा अबोधगम्य शब्द था “प्रोप्ट"। टेलीग्राम पर एक ओपरा कंपनी के मेनेजर के दस्तखत थे।

“मेरे प्रियतम!” ओलेंका सिसक-सिसक कर रो पड़ी, “वनिच्का, मेरे प्रियतम, मेरे प्रेमी। मैं तुमसे पहले मिली ही क्यों? क्यों हमारी जान-पहचान हुई और मैंने तुमसे प्यार किया? तुम्हारी बेचारी ओलेंका को, तुम्हारी बेचारी, दुखी ओलेंका को किसके भरोसे छोड़ दिया?

कुकिन को मंगलवार को मास्को में वागनकोव की सिमेंट्री में दफ़ना दिया गया। ओलेंका बुधवार को घर लौटी; और जैसे ही वह अपने घर में दाख़िल हुई, उसने ख़ुद को बिस्तर पर फेंक दिया और सुबक-सुबक कर इतना ज़ोर से रोई कि उसकी दहाड़ सड़क और बाहर आस-पास के यार्ड्स तक सुनी जा सकती थी।

“डार्लिंग!” क्रॉस का निशान बनाते हुए पड़ोसियों ने कहा, “ओल्गा सेमियोनोवना, बेचारी डार्लिंग पति के शोक में कितनी व्यथित है?

तीन महीने के बाद ओलेंका प्रार्थना-सभा से घर लौट रही थी, उदास और गहरे शोक में डूबी हुई। उसके साथ-साथ एक व्यक्ति चल रहा था, वह भी चर्च से लौट रहा था, वेसीली पुस्तोवालोव, बाबाकेयेव के काठगोदाम का मेनेजर। उसने पनामा हैट, सफ़ेद पोशाक के साथ सोने की चेन पहन रखी थी, और एक व्यापारी से ज़्यादा एक जमींदार लग रहा था।

“सबकी अपनी एक नियत गति होती है, ओल्गा सेमियोनोवना,” उसने गंभीर स्वर में कहा, आवाज़ में गहरी सहानुभूति थी; “और जब कोई अपना बेहद क़रीबी और अज़ीज़ मरता है, तो इसका मतलब है कि भगवान् की यही इच्छा थी और इसे याद रखते हुए, उसका आदेश समझकर हमें सब-कुछ सहन करना चाहिए।"

वह उसे छोटे दरवाज़े तक छोड़ने आया, अलविदा कहा और चला गया। उसके बाद उसका शांत और गंभीर स्वर दिन भर उसके कानों में गूँजता रहा; और अपनी आँखों को बंद करने पर उसे तुरंत उसकी काली दाढ़ी नज़र आई। उसने उसके प्रति आदरभाव महसूस किया। और स्पष्टरूप से वह भी उससे प्रभावित था; क्योंकि थोड़ी देर बाद ही एक जान-पहचान वाली बुज़ुर्ग महिला, उससे मिलने आई। जैसे ही वह टेबल के पास कॉफ़ी पीने बैठी, उसने पुस्तोवालोव के बारे में बताना शुरू किया – वह बहुत अच्छा है, बहुत ही धीर-गंभीर व्यक्ति है, और कोई भी महिला उसे पति के रूप में पाकर ख़ुश होगी। चौथे दिन पुस्तोवालोव ख़ुद उससे मिलने उसके घर आया। वह क़रीब दस मिनिट ही रुका, और बहुत कम बोला, परन्तु ओलेंका को उससे प्यार हो गया, और वह भी इतना कि वह सारी रात सो नहीं पाई और ताप में जलती रही, जैसे उसे बुखार हो। सुबह होते ही उसने उस बुज़ुर्ग महिला को बुलवाया। जल्दी ही ओलेंका और पुस्तोवालोव की सगाई हो गयी, और फिर शादी।

ओलेंका और पुस्तोवालोव हँसी-ख़ुशी जीवन व्यतीत कर रहे थे। वह प्रायः डिनर तक काठ-गोदाम में रहता और फिर व्यापार-सम्बन्धी काम से बाहर चला जाता। उसकी ग़ैर मौजूदगी में ओलेंका ऑफ़िस सँभालती और शाम तक रहती, हिसाब-किताब और आर्डर का काम निपटाती।

“लट्ठे (इमारती लकड़ी) का भाव इन दिनों क़रीब बीस प्रतिशत सालाना बढ़ रहा है।" वह ग्राहकों और मिलने वालों को बताती। “पहले हम जंगलों से लकड़ी लाया करते थे। अब वसिच्का को लकड़ी लेने के लिए हर साल मोगिलेव राज्य जाना पड़ता है। और टैक्स! ख़ौफ़ से अपने गालों को दोनों हाथों से ढकते हुए, भावावेश में चिल्लाती। “कितना टैक्स!”

उसे लगता कि लट्ठे का व्यापार वह पिछले कई वर्षों से कर रही है, कि जीवन में सबसे आवश्यक और महत्वपूर्ण लट्ठा ही है। जिस तरह से वह “बीम”, “जोइस्ट”, “तख्ता”, “डंडा”, “पट्टी”, ‘क्लैंप” शब्दों का उच्चारण करती, वह दिल को छूने वाला और बहुत ही प्रीतिकर था। वह रात को सपनों में पटरों और तख्तों के पहाड़ों को देखती, मालगाड़ी के वैगन की लम्बी अंतहीन कतारों को लट्ठों को शहर से कहीं दूर, बहुत दूर ले जाते हुए देखती। वह सपना देखती कि 36 फीट x 5 इंच के बीम की एक पूरी रेजिमेंट खड़ी-अवस्था में काठ-गोदाम से युद्ध करने के लिए आगे बढ़ रही है..। ओलेंका नींद में चिल्लाई, और पुस्तोवालोव ने उससे धीरे से कहा:

“ओलेंका माय डिअर, क्या बात है?, क्या कोई बुरा सपना देखा?"

उसके पति के विचार ही उसके विचार थे। अगर उसके पति को कमरा बहुत गरम लगता, तो उसे को भी वैसा ही लगता। अगर पति की राय में व्यापार मंदा था, तो उसकी राय में भी व्यापार मंदा था। पुस्तोवालोव को आमोद-प्रमोद पसंद नहीं था, छुट्टियों के दिनों में वह घर पर ही रहता था; वह भी वैसा ही करती। 

“तुम हमेशा या तो घर पर रहती हो या ऑफ़िस में,” उसके दोस्त कहते।

“डार्लिंग, तुम थिएटर या सर्कस देखने क्यों नहीं जाती हो।"

“वसिच्का और मैं थिएटर नहीं जाते,” कहते हुए उसका स्वर गंभीर होता। “हमें हमारे काम से फ़ुर्सत ही नहीं मिलती है। हमारे पास बेतुकी चीज़ों के लिए वक़्त नहीं है। थिएटर जाने से किसी को मिलता क्या है?” 

शनिवार के दिन वह और पुस्तोवालोव शाम की प्रार्थना-सभा में जाते और छुट्टी के दिन सुबह के ‘मास’ में। लौटते वक़्त वे साथ-साथ चलते, एक-दूसरे की मोहक ख़ुशबू में खोये हुए, और उसकी रेशमी पोशाक ख़ुशनुमा ढंग से सरसराती। घर पर वे कई तरह के जैम और मिल्क-ब्रेड के साथ चाय पीते। रोज़ दोपहर में गोभी के सूप, भुने हुए मटन या बतख के मांस की और व्रत के दिन मछली की क्षुधावर्धक गंध यार्ड के आस-पास और गेट के बाहर तक फैली रहती। ऑफ़िस-टेबिल पर समोवार (चाय की केतली) हमेशा उबलती रहती और ग्राहकों की आवभगत चाय व बिस्कुट से की जाती। सप्ताह में एक बार शादीशुदा जोड़ा बाथ्स के लिए जाता, और लाल तमतमाते चेहरों के साथ, सटकर चलते हुए, घर लौटता।

“भगवान् का शुक्र है, हमारा जीवन अच्छी तरह से चल रहा है।" ओलेंका अपने दोस्तों से कहती। “वसिच्का और मेरी तरह भगवान् सब को ख़ुश रखे”।

जब पुस्तोवालोव लट्ठा ख़रीदने मोगिलेव प्रांत गया, वह उसके बिना भयंकररूप से उदास रहने लगी। रात-रात भर नहीं सोती, और रोती रहती। कभी-कभी शाम को रेजिमेंट का वेटरनरी सर्जन, नौजवान स्मिरनोव, उससे मिलने आता, वह उसके मकान के विंग में ही रहता था। वह क़िस्से सुनाता, या वे ताश खेलते। इससे उसका ध्यान बँटता। सबसे मज़ेदार क़िस्से वे थे, जो उसके जीवन से जुड़े थे। वह शादीशुदा था और उसके एक बेटा था; परन्तु वह अपनी पत्नी से अलग हो गया था क्योंकि उसने उसे धोखा दिया था, और अब वह उससे घृणा करता था और अपने बेटे के भरण-पोषण के लिए हर महीने चालीस रूबल उसे भेजता था। यह सब सुनकर ओलेंका ने आह भरी, अपना सिर झटका, और बहुत ही दुखी हुई।

“भगवान् तुम्हारी मदद करे,” उसने कहा, जब वह मोमबत्ती की रौशनी में उसे दरवाज़े तक छोड़ने आयी। “तुम मेरे साथ समय बिताने आये, तुम्हारा धन्यवाद। भगवान् तुम्हें स्वस्थ रखे, सुख-शान्ति दे!” उसने बड़ी संजीदगी से, बहुत ही विवेकपूर्ण ढंग से, अपने पति की नक़ल करते हुए कहा। वेटरनरी सर्जन दरवाज़े से बाहर निकल गया था, तब उसने पीछे से ऊंची आवाज़ में पुकारा: “देखो, व्लादिमीर प्लातोनिच, तुम्हें तुम्हारी पत्नी से सुलह कर लेनी चाहिए। उसे माफ़ कर दो, अपने बेटे के ख़ातिर ही सही। बच्चा सब समझता है, तुम सब जानते हो।" 

जब पुस्तोवालोव लौटा, उसने धीमी आवाज़ में वेटरनरी सर्जन और उसके असंतुष्ट पारिवारिक जीवन के बारे में बताया; उन्होंने आहें भरी, अपने सिर हिलाए और उसके बेटे के बारे में बात की, जो इस समय अवश्य ही अपने पिता से दूर बहुत ही उदास होगा। फिर यकायक दैव-संयोग से वे दोनों पवित्र मूर्तियों के सामने रुके, झुककर क्रॉस का चिन्ह बनाया, और भगवान् से, उनके यहाँ भी एक बालक भेजने की प्रार्थना की। 

इस तरह मिस्टर पुस्तोवालोव और मिसेस पुस्तोवालोव पूरे छह वर्ष तक, शान्तिपूर्वक, और प्रेमभाव और सामंजस्य के साथ रहे। परन्तु, सर्दियों में, एक दिन वेसीली आंद्रेइच, गर्म चाय पीने के बाद, सिर पर टोपी लगाए बिना, काठ-गोदाम चला गया, ठण्ड लगी और बीमार पड़ गया। अच्छे से अच्छे फिजिशियन्स ने उसका इलाज किया, लेकिन रोग बढ़ता गया, और चार महीने बीमार रहने के बाद एक दिन वह मर गया। ओलेंका फिर से विधवा हो गयी। 

“मेरे डार्लिंग, तुम मुझे किसके भरोसे छोड़ गए?” फ्यूनरल के बाद वह बिलखने लगी। “तुम्हारे बिना मैं कैसे रह पाऊँगी, मैं एक बदनसीब प्राणी जो हूँ। मुझ पर दया करो, सज्जन लोगों, मुझ पर दया करो, मेरा बाप नहीं, मेरी माँ नहीं, इस दुनिया में बिलकुल अकेली!”

वह काले मातमी लिबास में रहती, और उसने हैट और दास्तानें पहनना छोड़ दिया था। वह घर से कम ही निकलती, चर्च या अपने पति की कब्र जाने के सिवाय। वह एक तरह से एक नन का जीवन जी रही थी।

पूरे छह महीने बाद ही उसने मातमी लिबास छोड़ा और घर की खिड़कियों के शटर्स खोले। अब वह कभी-कभार सुबह के समय अपने रसोइये के साथ मार्किट जाने लगी थी। लेकिन वह घर में किस तरह रहती थी और वहाँ क्या होता था, उसका मात्र अंदाज़ा लगाया जा सकता था। इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि अपने छोटे से गार्डन में वेटेरिनेरियन के साथ चाय पीते हुए दिखाई देती थी, और वह उसे ऊँचे स्वर में अख़बार पढ़कर सुना रहा होता था, और इस बात से भी कि एक बार पोस्ट-ऑफ़िस में अपनी परिचिता से मिलने पर उसने उससे कहा:

“अपने क़स्बे में वेटरनरी जाँच सही तरीक़े से नहीं होती है। इसीलिए यहाँ बहुत सी बीमारियाँ हैं। हम अक़्सर सुनते हैं कि दूध से लोग बीमार हो रहे हैं और घोड़ों व गायों से उन्हें इन्फ़ेक्शन हो रहा है। वास्तव में, पालतू जानवरों के स्वास्थ्य का भी उतना ही ध्यान रखा जाना चाहिए जितना कि मानव-जाति का रखा जाता है।"

वह वेटेरिनेरियन के शब्दों को दोहराती और सभी चीज़ों के बारे में उसकी राय वही होती जो सर्जन की होती। यह बिलकुल साफ़ था कि बिना किसी अटैचमेंट के वह साल भर भी नहीं रह सकी, और उसने अपनी नई ख़ुशी अपने घर के विंग में पा ली। दूसरे किसी और के लिए यह अवश्य ही निंदनीय होता; परन्तु ओलेंका के बारे में कोई भी ग़लत नहीं सोच सकता था। उसके जीवन में सबकुछ बिलकुल पारदर्शी था। ओलेंका के लिए कुछ भी गोपनीय नहीं था। जब रेजिमेंट से सर्जन के साथी उससे मिलने आये, उसने चाय बनाई, और नाश्ता सर्व किया, और उनसे जानवरों के प्लेग और दूसरी बिमारियों, और म्युनिसिपलिटी के क़त्लगाहों के बारे में बातें करने लगी। सर्जन बहुत ही शर्मिंदा हुआ। जब मेहमान चले गए, उसने उसका हाथ पकड़ा और क्रोध में फुफकारा:

“क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि जिसके बारे में तुम नहीं समझती हो, उसके बारे में बात मत करना? जब हम डॉक्टर्स आपस में चर्चा करते हैं, प्लीज़ उसमें शामिल मत हुआ करो, यह परेशानी का सबब बनता जा रहा है।" 

उसने विस्मय से और चौंकते हुए उसे देखा और पूछा:

“लेकिन, वोलोदिच्का, फिर मैं क्या बात करूँ?"

और उसने अपनी बाहें उसकी गर्दन में डाल दी, आँखें आँसुओं से डबडबा गयी, और उससे नाराज नहीं होने की विनती की। और वे दोनों ख़ुश थे। 

परन्तु उनकी यह ख़ुशी ज़्यादा दिन टिकी नहीं रह सकी। वेटरनरी सर्जन को अपनी रेजिमेंट के साथ हमेशा के लिए बाहर जाना पड़ा, जब रेजिमेंट को वहाँ से दूरस्थ इलाक़े में ट्रान्सफ़र कर दिया गया, क़रीब-क़रीब साइबेरिया जितना दूर, और ओलेंका अकेली रह गयी।

अब वह बिलकुल अकेली थी। उसके पिता बहुत पहले मर चुके थे, उनकी आरामकुर्सी धूल से सनी, अटारी में तीन टाँगों पर खड़ी थी। वह दुबली और साधारण-सी दिखने लगी थी, और जो लोग उससे सड़क पर मिलते, अब उसे उस तरह से नहीं देखते थे, जैसे पहले देखा करते थे, न ही उसे देखकर मुस्कराते थे। स्पष्टरूप से, उसके जीवन का सबसे अच्छा समय बीत चुका था, और एक अनिश्चित एवं असुरक्षित जीवन की शुरुआत होने वाली थी, जिसके बारे में नहीं सोचना ही बेहतर था।

शाम के समय, ओलेंका सीढ़ियों पर बैठकर टिवोली में हो रही आतिशबाजी और वहाँ के संगीत को सुनती रहती; परतु यह अब उसमें कोई प्रतिक्रया नहीं जगाता था। वह बिना किसी उत्साह से, थकी हुई बेमतलब यार्ड को देखती रहती, न कुछ सोचती और न ही उसकी कोई चाह थी, और जब रात होती, वह सो जाती और सपने में उसे और कुछ नहीं, केवल ख़ाली-ख़ाली यार्ड दिखाई देता, उसका खाना-पीना लगता था जैसे कोई विवशता हो। 

और सबसे बुरा यह था कि अब उसकी अपनी कोई राय नहीं थी, कोई नज़रिया नहीं था। वह अपने आप-पास जो होता, उसे देखती और समझती, परन्तु उसके बारे में अपनी राय नहीं बना पाती थी। उसके पास बात-चीत करने के लिए कुछ नहीं था। और कितना भयावह होता है अपनी राय का न होना। जैसे, आप एक बोतल देखते हैं या आप देखते हैं कि बारिश हो रही है। परन्तु, बोतल या बारिश किसके लिए है या इन सबका क्या मतलब है, आप बता नहीं पाते हैं। कुकिन और पुस्तोवालोव और फिर वेटरनरी सर्जन के दिनों में, ओलेंका के पास हर चीज़ का जवाब था, वह हर बात पर अपना नज़रिया ज़ाहिर करती थी। परन्तु अब उसके दिल और दिमाग़ में वही ख़ालीपन था जो उसके यार्ड में था। वह सब वर्म-वुड के स्वाद की तरह ही कटु और तीखा था।

धीरे-धीरे क़स्बा चारों तरफ फ़ैल गया, जिप्सी-रोड अब एक बड़ी सड़क बन गयी थी, और जहाँ टिवोली और काठ-गोदाम था, अब वहाँ मकान बन गए थे और बड़ी सड़क को जोड़ने वाली छोटी सड़कों की कतार भी। समय कैसे पंख लगा कर उड़ जाता है! ओलेंका का मकान धुंधला गया था, जंग लगी छत, झुका हुआ शेड। काँटेदार झाड़ियों और डॉक के पीछे उसका यार्ड छिप गया था। ओलेंका ख़ुद बूढ़ी दिखने लगी थी। गर्मियों में वह सीढ़ियों पर बैठी रहती, और उसके अंतस में ख़ालीपन, नीरसता और कड़वाहट भर गयी थी। जब बसंत-ऋतु की हवा उसकी साँस को छूती या जब हवा कैथेड्रल की घंटियों की गूँज बिखेरती, अकस्मात यादों की बाढ़-सी आ जाती और उसका हृदय कोमल गर्माहट से फैल जाता, और आँसू उसके गालों से बहने लगते। परन्तु वह क्षण-भर के लिए होता। फिर वही ख़ालीपन उसे घेर लेता, और यह अनुभूति कि जीवित रहने का क्या मतलब है? काली बिल्ली ब्रिस्का उससे खेल रही थी, हल्का घुरघुरा रही थी, परन्तु उस निरीह प्राणी का लाड़-दुलार ओलेंका को द्रवित नहीं कर पाया। यह सब वह नहीं था, जिसकी उसे ज़रूरत थी। ओलेंका को ज़रूरत थी उस प्यार की जो उसके पूरे अस्तित्व, उसके औचित्य, उसके पूरे अंतर्मन को आत्मसात कर ले, जो उसे आइडियाज़ दे, जीने का मक़सद दे, जो उसके बुढ़ाते खून में गर्माहट पैदा कर सके। और उसने काली बल्ली को ग़ुस्से से अपने स्कर्ट से झटक कर अलग करते हुए कहा:

“चल हट यहाँ से! तूँ यहाँ क्या कर रही है?”

और इस तरह, दिन के बाद दूसरा दिन, साल के बाद दूसरा साल, एक भी ख़ुशी का लमहा नहीं, अपनी कोई राय नहीं, जो भी रसोइया मारवा कहता वह सब ठीक था। 

जुलाई महीने का एक गर्म दिन, शाम के समय, क़स्बे के पशुओं को हाँका जा रहा था, और सारा यार्ड गर्द के गुबार से भर गया था, गेट पर अचानक खटखटाहट हुई, ओलेंका ख़ुद दरवाज़ा खोलने गयी, और वेटेरिनेरियन स्मिरनोव को सामने देखकर भौंच्चकी रह गयी। उसके बाल सफ़ेद हो गए थे, वह सिविलियन की ड्रेस में था। पुरानी यादों के सैलाब ने उसके अंतर्मन को लबालब कर दिया। वह अपने आपको रोक नहीं पाई, एकाएक रो पड़ी, और बिना एक शब्द कहे उसने अपना सिर स्मिरनोव के सीने में धँसा दिया। वह इतनी अभिभूत हो गयी थी, इतनी बेसुध कि उसे पता ही नहीं चला कि कब वे मकान में दाखिल हुए और चाय पीने के लिए बैठ गए। 

“मेरे डार्लिंग!” ख़ुशी के मारे काँपती हुई, वह बड़बड़ाई। “व्लादिमीर प्लातोनिच, भगवान् ने तुम्हें कहाँ से भेजा है?"

“मैं अब सेटल होना चाहता हूँ," उसने उससे कहा, “मैंने रेजिमेंट की अपनी पोज़ीशन छोड़ दी है, और मैं यहाँ एक आज़ाद व्यक्ति की तरह अपना भाग्य आज़माने और एक व्यवस्थित जीवन जीने के लिए आया हूँ। और यह समय मेरे लड़के को स्कूल भेजने का भी है। वह अब बड़ा हो गया है। तुम जानती हो, मेरी पत्नी और मेरे बीच समझौता हो गया है।"

“वह कहाँ है?” ओलेंका ने पूछा 

“होटल में, मेरे बेटे के साथ। मैं किसी छोटे-से मकान की तलाश में हूँ।"

“वह दयालु, तुम पर कृपा करे, तुम मेरा मकान ले लो, क्या मेरा मकान ठीक नहीं रहेगा? ओह डिअर! मैं तुम से किराए के लिए नहीं कहूँगी!" ओलेंका ने अति उत्साह से भावावेश में कहा, और वह फिर से रोने लगी। “तुम यहाँ रहो, और वह विंग मेरे लिए काफ़ी है। ओह, भगवान्, आज मैं कितनी ख़ुश हूँ!”

अगले ही दिन छत का रंगरोगन और दीवारों की पुताई शुरू हो गयी, और ओलेंका, कमर पर हाथ रखे, यार्ड के चौतरफ़ा निरीक्षण के लिए निकल पड़ी। उसका चेहरा उसकी पुरानी मुस्कान से दमक उठा। उसका पूरा अस्तित्व फिर से जी उठा, चमक उठा, जैसे कि वह गहरी, लम्बी नींद से जागी हो। वेटेरिनेरियन की पत्नी और बेटा आये। वह दुबली और साधारण स्त्री थी, थोड़ी तुनकमिज़ाजी। लड़का साशा, दस साल का, लेकिन उम्र से छोटा लगता, मोटाताज़ा बच्चा था, साफ़ नीली आँखें और गालों पर पड़ते डिंपल। यार्ड में दाख़िल होते ही वह बिल्ली की ओर चला गया, और यार्ड उसकी खिलखिलाहट से गूँज उठा।

“आंटी, क्या वह बिल्ली आपकी है?" उसके ओलेंका से पूछा। “जब इसके छोटे-छोटे किटिज होंगे तो प्लीज़ एक मुझे दीजिएगा। मम्मा चूहों से बहुत डरती है।"

ओलेंका ने उससे गपशप की, चाय दी, और अचानक उसने अपनी छाती में गर्माहट और दिल में रोमांच महसूस किया, जैसे वह बालक उसका ख़ुद का बेटा हो। 

शाम को जब वह ड्राइंग-रूम में बैठ कर पढ़ाई करने लगा, वह उसे ममत्व से निहारती रही और अपने आप में फुसफुसाई:

“मेरे डार्लिंग, मेरे प्रिटी। तुम बहुत ही होशियार बच्चे हो, देखने में बेहद सुन्दर।"

“द्वीप पृथ्वी का वह भू-भाग है, जो चारों तरफ से पानी से घिरा होता है," वह पाठ याद करते बोला।

“द्वीप पृथ्वी का वह भू-भाग है,” उसने दोहराया – इतने सालों की चुप्पी और दिमागी ख़ालीपन के बाद, उसका पहला मत एक दृढ़ विश्वास के साथ व्यक्त हुआ।

अब उसके अपने विचार थे, राय थी, और शाम के भोजन के समय साशा के अभिभावकों से चर्चा की कि किस प्रकार बच्चों के लिए पाठशाला की पढ़ाई मुश्किल हो गयी है, कि इस सब के बावजूद किस प्रकार पारंपरिक शिक्षा व्यवसायिक पाठ्यक्रम से बेहतर थी, क्योंकि जब आप पाठशाला से ग्रेजुएट होते, आपके लिए सभी प्रकार के करियर के लिए रास्ता खुला होता था। अगर आप डॉक्टर बनना चाहते तो बन सकते थे या अगर आप इंजीनियरिंग करियर को चुनाव करते तो इंजिनियर बन सकते थे। 

साशा पाठशाला जाने लगा। उसकी माँ अपनी बहिन से मिलने खार्कोव चली गयी, और कभी वापस नहीं आई। पिता पशुओं के निरीक्षण के लिए दिन-भर बाहर रहता, और कभी-कभी तो लगातार तीन-तीन दिनों तक। ओलेंका को लगता कि बेचारे साशा को बिलकुल अकेला छोड़ दिया गया है, उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है जैसे वह फ़ालतू है, और वह ज़रूर भूख से तड़फ रहा होगा - वह उसे अपने साथ विंग में ले आई और वहाँ उसके लिए एक छोटा कमरा तैयार कर दिया। 

हर सुबह ओलेंका उसके कमरे में आती, और उसे गहरी नींद में पाती, उसका मुड़ा हुआ हाथ उसके गाल को नीचे होता, इतना शांत कि लगता कि वह साँस ही नहीं ले रहा है। उसे नींद से उठाते वक़्त वह अपराध बोध से भर जाती।

“साशेंका,” उसने भरे मन कहा, “डार्लिंग, उठ जाओ। पाठशाला जाने का समय हो गया है।"

वह उठा, तैयार हुआ, अपनी प्रार्थनाएँ की, और चाय पीने बैठ गया। उसने दो गिलास चाय पी, दो बड़े बिस्कुट खाए और आधी मक्खन लगी रोल। वह अभी ही उनिंदा था, इसलिए थोड़ा ग़ुस्से था।

“तुम्हें तुम्हारी फ़ेबल अच्छी तरह से याद है न साशेंका?” ओलेंका ने कहा, उसे इस तरह देखते हुए जैसे वह लम्बी यात्रा के लिए विदा हो रहा था। “तुम्हें सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, और अपने टीचर्स का ध्यान रखना होगा।"

“ओह, मुझे अकेला छोड़ दो, प्लीज़,” साशा ने कहा।

और इस तरह वह नीचे सड़क पर उतर कर पाठशाला के ओर निकलता, नन्हा-सा बालक, बड़ी कैप लगाए, अपना बस्ता पीठ पर लटकाए। ओलेंका चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलती।

“साशेंका,” उसने आवाज़ दी।

उसने मुड़ कर देखा और उसने उसके हाथ में खजूर या कोई मिठाई पकड़ा दी। पाठशाला की गली के मोड़ तक पहुँच कर उसने पीछे देखा, एक लम्बी मोटी औरत का पीछा करने से शर्मिन्दा होते हुए उसने कहा: 

“आंटी, अच्छा, अब आप घर चले जाओ, अब यहाँ से आगे मैं ख़ुद चला जाऊँगा।"

वह रुक कर उसे तब तक देखती रही जब तक वह स्कूल के दरवाज़े में ओझल नहीं हो गया।

ओह, वह उससे कितना प्यार करती थी! अब तक के उसके बन्धनों में कोई भी बंधन इतना गहरा नहीं रहा था। इससे पहले उसने इतनी पूर्णता के साथ, इतने तटस्थ भाव से, इनती प्रसन्नता के साथ स्वयं को समर्पित नहीं किया था। उसका नैसर्गिक मातृत्व भाव पूर्णरूप से जाग उठा था। इस बालक के लिए, जो उसका नहीं था, उसके गाल में पड़ते डिंपल्स के लिए, और उसकी बड़ी कैप के लिए, वह अपना सम्पूर्ण जीवन दे सकती थी, ख़ुशी-ख़ुशी और छलछलाते ममतामय आँसुओं के साथ। क्यों? आह, सचमुच, क्यों?

जब उसने साशा को स्कूल छोड़ा, वह चुपचाप घर वापस आयी, शांत, संतुष्ट, प्यार से छलछलाती हुई। उसका चेहरा, पिछले छह महीने में जिस पर फिर से ताज़गी आ गयी थी, मुस्कराहट से दमक रहा था। जो भी उससे मिलता, उसे देखकर ख़ुश होता।
“तुम कैसी हो। ओल्गा सेमियोनोवना, डार्लिंग? और सब कैसा चल रहा है, डार्लिंग?”

“आजकल स्कूल का कोर्स बहुत ही कठिन है," वह मार्किट में मिलने वालों से कहती, “मैं  मज़ाक नहीं कर रही हूँ। कल पहली कक्षा के बच्चों को एक फ़ेबल ज़ुबानी याद करने के लिए दी गयी, साथ ही एक लेटिन अनुवाद, और एक प्रोब्लम। एक छोटे बालक के लिए क्या यह सब कर पाना सम्भव है?” 

और वह टीचर, और पाठों, और पाठ्य-पुस्तकों के बारे में बात करती, ठीक वही दोहराते हुए जो साशा उसे बताता।

तीन बजे वे डिनर लेते। शाम को वे साथ बैठ कर लेसन तैयार करते, और मुश्किलें आने पर साशा के साथ-साथ ओलेंका भी रोती। जब वह उसे बिस्तर पर सुलाने जाती, देर तक वहीं ठहरी रहती, उसके ऊपर क्रॉस का चिन्ह बनाती हुई और प्रार्थना बुदबुदाती हुई। और जब वह बिस्तर आकर पर लेटती, वह सपना देखती, बहुत दूर, धुंधले भविष्य का, जब साशा अपनी पढ़ाई पूरी कर लेगा और डॉक्टर या इंजिनियर बन जाएगा, ख़ुद का बड़ा मकान होगा, घोड़े और बग्घियाँ होंगी, शादी करेगा, बच्चे होंगे, उन्हीं चीज़ों के बारे में सोचते-सोचते, उसकी बंद आँखों से गालों पर आँसू लुड़कते, उसे नींद आ जाती। और काली बिल्ली उसके पास ही लेटी घुरघुराती रहती: “मरर, मरर, मरर”

अचानक गेट पर ज़ोर की खटखटाहट हुई। ओलेंका जागी, डर से साँस फूली हुई, उसका दिल ज़ोर से धड़क रहा था। आधा मिनट के बाद दूसरी बार खटखट हुआ।

“खार्कोव से टेलीग्राम,” उसने क्षणभर के लिए सोचा, और उसका पूरा शरीर काँप रहा था।

“उसकी माँ चाहती है कि साशा उसके पास खार्कोव आ जाए। ओह, भगवान्!”

वह निराश हो गयी। उसका माथा, उसके पैर, उसके हाथ ठंडे हो गए। उसे लगा, इस दुनियाँ में उस जैसा दुखी इंसान कोई नहीं है। परन्तु एक मिनट बाद, उसने आवाज़ें सुनी। वह वेटेरिनेरियन था क्लब से घर आ रहा था।

“भगवान् का शुक्र है,” उसने सोचा। उसके दिल का बोझ धीरे-धीरे कम हो गया। वह फिर से निश्चिन्त हो गयी। और वह सोने चली गयी, साशा के बारे में सोचते हुए जो पास के कमरे में गहरी नींद सो रहा था।
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अचानक....
|

मूल लेखिका : शुभा सरमा अनुवादक : विकास…

अनाम-तस्वीर
|

मूल कहानी: गोपा नायक हिन्दी अनुवाद : दिनेश…

एक बिलकुल अलग कहानी – 1
|

 मूल कहानी (अँग्रेज़ी): डॉ. नंदिनी साहू …

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

अनूदित कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं