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थोड़ी सी जगह

ठीक पौने बारह बस का समय था और वह बज चुका था। बस, बसस्टॉप छोड़ चुकी थी और श्रुति बस अड्डे के बाहर ही बस रुकवा कर अंदर चढ़ गई।

नॉन स्टॉप बस में ठसाठस सवारियाँ भरी हुई थीं। कहीं तिल धरने को जगह नहीं थी। ‘उफ! कपासन तक का लम्बा सफर क्या खड़े-खड़े तय करना पड़ेगा?’ यह ख्याल आते ही श्रुति को झुरझुरी फूट आयी। किसी तरह थोड़ा इधर-उधर खिसक कर बस की दोनों सीढ़ी़ ही चढ़ पायी।

"अरे भैया प्लीज यह सामान ऊपर बर्थ पर रख दो.......आप ज़रा सा पाँव हटाईये ये बैग सीट के नीचे आ जायेगा......हाँ हाँ ठीक है.....कोई बात नहीं।" अपना सामान व्यवस्थित करवा कर श्रुति ने राहत की साँस ली। ‘समय से पहुँचने की मजबूरी नहीं होती तो क्या मैं इस भीड़ में घुसती?’ मन में उठी कोफ़्त पर मजबूरी ने अपनी विवशता जमाई। उसने एक पाँव पर वज़न डालते हुए दूसरे पाँव को थोड़ा रिलेक्स किया। रिलेक्स होने के बाद उसकी निगाहें उस भीड़ भरी बस में बैठने की जगह तलाशने लगीं। शायद इस उम्मीद में कि कोई उठ कर कहे - ‘आईये आप बैठ जाईये।’ हर चेहरा हर निगाह उसे बेगानी लग रही थी। बैठी सवारियाँ भीड़ की ओर से बेफिक्र हुईं अपने में तल्लीन थीं। कोई कागज़ में लिपटे व्यंजन का आनंद ले रहा था। तो कोई आपस में बतिया रहा था। तो कोई आँखे बंद किये ऊँघने में तल्लीन। काश! वह भी बैठे हुए लोगों की श्रेणी में होती। आँख मूँदती और बेफ़िक्री का सफ़र करती।

थक कर उसने दूसरे पाँव पर वज़न डाल पहले को रिलेक्स किया। ‘बड़ी भाग्यशाली हो तुम। चाहे कितनी भी भीड़ हो तुम्हें जगह मिल ही जाती है।’ पति द्वारा की गई उक्त टिप्पणी उसे याद हो आयी। ‘हूं!’ उसने दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए फिर जगह तलाशनी शुरू कर दी। किन्तु आज पति महोदय की ये टिप्पणी सार्थक होती नज़र नहीं आ रही थी।

तभी श्रुति की नज़र दो की सीट पर बैठे दुर्बल देह वाले वृद्ध स्त्री-पुरुष पर गिरी। ‘क्या इनसे जगह मिल सकतीहै?.....शायद। यदि थोड़ा सा खिसक जाय तो......बस थोड़ा सा’ मन में पति की टिप्पणी फिर गूँज उठी। वह उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगी। साफ लग रहा था कि वह श्रुति के किसी अनुनय विनय को नहीं मानने वाले। इनसे जगह मिलनी मुश्किल है। अब...? तभी वृद्धा से श्रुति की निगाहें मिलीं। मन में एक उपाय कौंधा।

"आप कहाँ से आ रही हैं?" ऐसे अवसर पर स्वर के मिठास के क्या कहने। निराला ही होता है, सो श्रुति भी सफल हुई। "चावण्ड से" संक्षिप्त ही सही। वृद्धा का प्रत्युक्तर पा श्रुति का मन इस भाव से तरंगति हो उठा कि ये अपने ही गाँव की है।

"अच्छा, आप वहाँ कहाँ रहती हैं?" श्रुति ने आश्चर्य प्रकट किया। मधुरता बकरार रखते हुए उसने वार्तालाप का सूत्र आगे बढ़ाया- "क्या, मुझे जानती है आप?"

उसने इन्कार में गर्दन हिलाते हुए कहा- "नहीं, मेरा वहाँ पीहर है और बारह बरस की थी जब ही मेरा ब्याह हो गया था।" ओह! निराशा से फिर श्रुति का मन बुझ गया। वृद्ध की खीज भरी कसमसाहट से प्रकट हो रहा था कि वृद्धा के साथ हुई वार्तालाप को वह बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है। श्रुति के मन ने तेवर बदला। ‘मुझे वृद्ध से बात करनी चाहिये।’

"आप कहाँ जा रहे है?"

"कपासन" उसने लापरवाही भरी घोर उपेक्षा से कहा। इसके बाद संवाद क्रम टूट गया। थोड़ी चुप्पी के बाद श्रुति ने दूसरे पाँव को विश्राम देते हुए पहले पर फिर शरीर का वज़न लाद दिया।

हिम्मत बटोर श्रुति ने वृद्ध से थोड़ा खिसकने का अनुरोध - "अगर आपको तकलीफ़ न हो तो ज़रा सा खिसक जायें। थोड़ी सी मेरे लिये भी जगह निकल आयेगी।" उसकी आवज़ बड़ी मुलायम थी। उसका असर भी हुआ। वृद्ध थोड़ा आगे-पीछे हुआ। पर जगह बहुत ही कम निकाली। हार कर श्रुति ने भी वहीं बैठने का फैसला कर लिया। बहुत मुश्किल से अपना आधा वज़न मुड़े घुटनों व एड़ी पर डाल वह आड़ी बैठ पायी।

"क्या आप चावण्ड से आ रहे है।"

वृद्ध निरंतर उसकी उपेक्षा बरते हुए था। शायद उसे, उसके इसी आग्रह का डर था। उसके प्रश्न पर प्रश्न पूछने पर वह शुष्कता से बोला- "हाँ, वहाँ मेरी ससुराल है।"

"अच्छा तो आप हमारे गाँव के दामाद है।" ढिटाई से श्रुति ने कुछ अदा से मुस्कुरा कर मस्का मारा- "किनके यहाँ है आपकी ससुराल?"

"अनवर खां के यहाँ।"

"अच्छा-अच्छा वहीं न जो मिस्त्री हैं......जिसका एक लड़का दुर्घटना में....उसने यूँ ही अँधेरे में तीर फेंका। परन्तु निशाना सही लगा।

"हाँ वहीं बदनसीब अनवर खां।" बूढ़े की आँखें नम हो आईं। इधर वृद्धा भी कुछ हिली।

"अच्छा तो आप ये बताये आप करते क्या हैं?" उसने बातचीत का रुख पलटा।

"मैं रोडवेज में ड्राईवर रहा बेटी.....ये देखो मेरा पास।" उसने स्नेहयुक्त स्वर में कहा और अपना पास निकाल कर श्रुति को बताया। "इस नौकरी से पहले मैं दरबार के यहाँ ड्राईवर रहा।" और वृद्धा ने वृद्ध को इशारा किया। दोनों कसमसाए तो श्रुति के लिये ठीक जगह निकल आयी। वह थोड़ा सही होती बोली- "ओह! खूब।" उसने सराहा।

वृद्ध का व्यवहार शिष्ट व स्नेहिल हो आया- "आराम से बैठो बेटी।"

"पूरी उम्र ड्राईवर की सीट पर मजे से बैठने के बाद अब इस तरह भीड़ में धक्के खाते हुए आपको कैसा लगता है? अपने कुछ संस्मरण सुनाईये न!" वाणी में मनुहार भरकर बड़ी अदब से उसने आग्रह किया। तो वृद्ध के झुर्री भरे चेहरे पर पूनम की लुनाई फूट आयी। एकाएक वह महत्वपूर्ण हो उठा था, खुद अपनी ही नज़रों में। वह इतिहास के पृष्ठों को पलटते हुए पढ़ने लगा। वृद्ध की और श्रुति की बातों से लोगों में भी दिलचस्पी जाग उठी थी। सहयात्री भी जिज्ञासा से सुनने में तल्लीन हो गये। श्रुति अपने मकसद में सफल हो चुकी थी। बूढ़ा चांद खां अर्थात् वृद्ध अब तक काफी सिमट चुका था और वृद्धा भी सिकुड़ गई थी। श्रुति बेहतर बैठी हुई थी।

वृद्ध उसके शिष्ट अंदाज़ और सम्मान से सम्मोहित हो चुका था। वृद्ध कह रहा था- "बेटी, मैंने दोनों ज़माने देखे हैं। ये भी और वो भी। दोनों का नमक खाया है, गलत नहीं कहूँगा......" उसके पोपले मुँह से निरंतर उफनता थूक......टच्च!...सीं....." उसके छींटे लगातार श्रुति तक पहुँच रहे थे और वह लगातार थूक के सूक्ष्म कणों को रूमाल से पोंछ रही थी।

इस स्थिति में श्रुति के मन के एक कोने ने उसे धिक्कारा पर उसने सुनी की अनसुनी कर दी। इधर वृद्ध संस्मरण सुना रहा था - और उधर मन अपनी ही उधेड़बुन में लगा था। सुख भोगने का आदी शरीर जब तकलीफ में होता है तो ऐसे में मन की कौन सुनता है। पर मन तो मन है। मन के कोनों में तीखी चोंचे उभर आयी और चंहु ओर से वे तन पर गिद्धप्रहार करने लगी- ‘ये तेरी मीठी-चुपड़ी बाते स्वार्थवश हैं। अगर तुम्हें बैठने को जगह की ज़रूरत न होती तो क्या तुम इससे बात करती? न बूढ़ा कोई ऐसा विश्ष्टि व्यक्ति है जिसके अतीत से तुम्हें कोई लेना-देना हो।’ वह झुंझला उठी, ‘तो फिर काटो एक पाँव पर पूरा रास्ता हिचकोले खाते हुए।’ स्वार्थी मन ने फिर लोकोचार समझाया, ‘नहीं जी! व्यक्ति को थोड़ा तो व्यवहारकुशल होना चाहिये।’ तभी मन ने चोंच मारी काम निकालने का आसान तरीका है।’

इधर श्रुति के मन में अन्तरद्वंद्व मचा हुआ था और उधर वृद्ध अपनी दरबारी नौकरी के संस्मरण सुनाने में तल्लीन था। मानो उसे मन चाही मुराद मिल गई हो। तभी मन ने कुर्तक किया, ‘अरे, बूढ़े से बतियाता ही कौन है? और फिर तुम जैसी पढ़ी-लिखी, मॉर्डन.....इसका इतना मान दे रही हो। वह इसकी इज़्ज़त आफ़जाई नहीं तो और क्या है? फिर आज के युग में तसल्ली से सुनने वाला श्रोता इसे मिलेगा ही कहाँ?’ मन ने व्यंग्य का तीर खींचा। बूढ़ों से बात करना, उनका अतीत सुनना अब इतना धैर्य व दिलचस्पी किसे है? कई नये आकर्षणों से ज़माना भरा पड़ा है। आज़ादी की सुकून भरी स्वतंत्रता युक्त साँस लेते कौन भला इस पुराने गुलामी के इतिहास को सुनना पसंद करेगा?’

मन ने फिर कचोटा, ‘अगर बैठने की विवशता नहीं होती तो क्या तुम इस तरह यह सब सहन करती?’ मन के इस प्रश्न के आगे वह निरुत्तर हो उठी। उसने पहलू बदला और अपना मुँह दूसरी ओर घुमा लिया। चूँकि उसके लिये बैठना महत्वपूर्ण था और इसके लिये वृद्ध का लगातार बातों में उलझे रहना नितांत आवश्यक। एक पल वह रुका नहीं कि फिर पीछे खिसक आयेगा और वह मुश्किल में..........

उधर मुँह किये ही उसने उसे फिर कुरेदा, "अच्छा! ये बताये आपने ड्राईवरी सीखी कहाँ से?" लोग कौतूहल से अब श्रुति को देख रहे थे। वे अपने मन में अब तक यह भ्रम पाल चुके थे कि वह किसी अखबार से रिश्ता रखती हैं। उसका वृद्ध से साक्षात्कार लेने का ढंग दूसरों की नज़रों में उसे महत्वपूर्ण बना रहा था। तभी भावुक हुआ एक युवा लड़का उठ खड़ा हुआ, श्रुति के लिये-

"आप यहाँ बैठिये मेडम।" वह बिना अचकचाए, सहजता से उसकी खाली हुई सीट पर काबीज़ हो गई। इधर वृद्ध अपना साक्षात्कार बड़ी संजीदगी से दिये जा रहा था जिसे बीच में ही अर्द्धविराम देते हुए उक्त युवक ने श्रुति से प्रश्न किया- "मेम आप किस अखबार या प्रेस से.....?" श्रुति मुस्कुरा दी। क्या बोले? पर चुप भी तो नहीं रहा जा सकता था। ऐसे में एक उपाय उसके ज़ेहन में कौंधा - उसे भी प्रश्न में उलझाने का।

"हाँ, एक कार्यक्रम की कवरेज करने......." आधा सच और आधा झूठ बोलते हुए श्रुति ने उससे भी प्रश्नों की शुरूआत कर डाली। "अच्छा इन्टरव्यू लेती हूँ मैं?" बदले में वह युवक मुस्कुरा दिया।

"क्या करते हो तुम?"

युवक उसे संजीदगी से बताने लगा- अभी उसने एम.ए. किया है इतिहास में। जॉब ढूँढ रहा है। थोड़ा बहुत कम्प्यूटर भी जानता है। छः माह का डिप्लोमा कर रखा है उसने। घर में अब उसका कमाना बहुत ज़रूरी हो गया है। अगर श्रुति कोई मदद कर सके तो वह कुछ भी काम कर सकता है।

"अब कपासन कितना दूर है?" बात गम्भीर मोड़ लेने लगी थी। अब श्रुति ने बात का रुख बदला।

"बस अब आने ही वाला है बेटी। कुछ देर का और सफर है।" जवाब चांद खां ने दिया। श्रुति ने अपना मुख उधर घुमा लिया। इस पर अपनी ज़िन्दगी का सफ़रनामा फिर ज़ारी कर दिया- "एक बार की बात है बेटी जब एक अंग्रेज अफसर दरबार के यहाँ मेहमान बनकर आया था और मैं गाड़ी चला रहा था। तब हम मुँह अँधेरे ही शिकार के लिये निकल पड़े थे।ये अंग्रेज भी...हुआ क्या? कहते हुए उसके बूढ़े मुँह से हँसी गुदगुदा उठी। साथ ही थूक के कई बड़े बगुले हवा में उछल पड़े।

छिः! श्रुति घिन्न से खिड़की से बाहर देखने लगी। अब वह आराम से बैठी हुई थी। पूरी जगह में पसर कर। इस आराम के मिलने के बाद बेख्याली जो हावी हुई तो बाहर के भागते प्रकृति के नज़ारे उसे मोहक दिखने लगे। उसकी दृष्टि सूर्य पर केन्द्रित हो गई। वह अस्ताचल की ओर जा रहा था। निरंतर एकटक देखते रहने से वह हरा नज़र आने लगा था। बस आसमां में थोड़ी सी जगह के लिये निरंतर घूर्णन करता हुआ। इधर चांद खां अपने में तल्लीन अब भी अपनी बात ज़ारी रखे हुआ था। उसे लग रहा था जैसे श्रुति अब भी उसकी बात सुन रही है।

श्रुति का मुकाम करीब आने लगा था। उधर वह युवा लड़का उसका कोई सम्पर्क सूत्र पाने के लिये अधीर हुआ बोला -

"मेम आपका फोन नंबर....पता....वगैरह..."और वह जेब में पेन खोजने लगा। तभी एक झटका सा लगा। बस मोड़ घूम रही थी। खड़ी सवारिया सँभलने की कवायद करने लगी। अंत में एक धक्का और पीछे देती हुई बस अपने गतंव्य पर जाकर रुक गई। युवक सँभलते ही शीघ्रता से बोला - "शायद पेन कहीं गिर गया है।"

श्रुति ने उतरते हुए कहा- "हाँ.... हाँ ..... मैं तुम्हें अपना कार्ड भेज दूँगी।"

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