त्राहि-त्राहि मची हो
काव्य साहित्य | कविता उपेन्द्र 'परवाज़'20 Mar 2015
त्राहि-त्राहि मची हो, जब जन-जन में क्रांति हो
सत्ताधारियों को केवल, दिखती ही शांति हो।
हृदय रक्त पी रहे हों शांति के विषैले कीट
शासकों के ध्यान में हो केवल अपने किरीट
दानवों के ताप से हो विनाश कण कण में
प्रतिशोध तब है ज़रूरी जन जन में।
न्याय के दिनकर का जब हो गया हो अस्त
जनता के लिए उपाय बचता है शस्त्र
पातकी वो अहिंसा है जो व्याप्त जीवन में
प्रतिशोध तब है ज़रूरी जन जन में।
पातकी नहीं है प्रबुद्ध दलितों का अस्त्र,
मानवता के लिए उठाया केवल इन्होंने ही शस्त्र
पतित वह शांति है जो दिखती दर्शन में
प्रतिशोध तब है ज़रूरी जन जन में।
क्षमा शोभती है जब हाथ में कृपाण हो
पीठ पर भाले हो कंधे पर धनुष बाण हो
व्यर्थ हो जब शांति का दिखावा जीवन में
प्रतिशोध तब है जरूरी जन जन में।
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