अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

त्रिलोचन शास्त्री

(२० अगस्त १९१७ — ०९ दिसम्बर २००७)

 

छायावादोत्तर हिन्दी साहित्य में त्रिलोचन का प्रमुख स्थान है। कविता ही नहीं उनकी कहानियाँ भी उन्हें निराला की परम्परा में ला बिठाती हैं। उन्हें तुलसी बाबा का अवतार भी कह सकते हैं- ’तुलसी बाबा भाषा मैंने तुमसे सीखी। मेरी सजग चेतना में तुम रमे ह्रुए हो।‘ जिस प्रकार रामभक्त तुलसी राम से भी ऊपर उठ गए थे- ’भक्त हुए उठ गए राम से भी यों ऊपर।‘ तुलसी भक्त त्रिलोचन के विषय में भी यही कहा जा सकता है। हाँ! उनके यहाँ नायकत्व आम आदमी और पीड़ित समाज को मिला है।   

त्रिलोचन शास्त्री जन्मना कृषक थे, देहाती थे। उनका जन्म 20 अगस्त 1917 को उत्तरप्रदेश, जिला सुलतानपुर, तहसील कादीपुर के गाँव कटघरा, चिरानिपट्टी में हुआ। पिता का नाम ठाकुर जगरदेव सिंह था और वे बैरागी बाबू के नाम से जाने जाते थे। माँ ठेठ ठकुराइन थी। उसका विश्वास था कि पढ़ लिखकर व्यक्ति न तो देहाती जीवन के दाँव पेंचों, उतार-चढ़ाव या नित्य होने वाले झगड़ों के काबिल रहता है और न ही इससे उसका भविष्य सँवर सकता है। वह तो बेटे को गँवार खेतीहर ही बनाना चाहती थी। इसी लिए सदैव बेटे की पढ़ाई का विरोध ही करती रही। हाँ! दादी, जिसे वे बुआ कहते थे, उनकी पढ़ाई के पक्ष में थी और पोते पर भी पढ़ाई की धुन सवार थी। कुल मिलाकर वे युद्ध प्रेमी ठाकुर परिवार के शर्मीले से पहलवान पुत्र थे। उनका बचपन का नाम ठाकुर वासुदेव सिंह था। त्रिलोचन नाम उनके संस्कृत के गुरु जी ने रखा। त्रिलोचन शिव का नाम है। शिव का तीसरा वक्र नेत्र। संस्कृत में शास्त्री की परीक्षा पास करने के कारण शास्त्री तखल्लस की तरह उनके नाम के साथ जुड़ गया। पंजाब से शास्त्री करने के इलावा उन्होंने काशी से बी. ए. एवं अंग्रेजी एम. ए. का पूर्वार्द्ध किया। घुम्मकड़ी उनके स्वभाव का अंग थी। उनके साहित्यकार व्यक्तित्व के मूल में पिता, स्वामी जी एवं गुरु जी का प्रभाव देखा जा सकता है। पत्नी जयमूर्ति ने त्रिलोचन के जीवन के सर्वांगीण विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। शमशेर बहादुर सिंह एक जगह लिखते हैं, "भई, वह घबराते किसी से नहीं, सिवाय सच्ची बात अपनी शास्त्राणी जी के। और दरअसल वही इनको ठीक-ठीक समझती भी थी।"1 धरती में त्रिलोचन शास्त्री लिखते हैं-  

मेरी दुर्बलता को हर कर
नयी शक्ति नव साहस भर कर
तुमने फिर उत्साह दिलाया 
कार्यक्षेत्र में बढ़ूँ संभल कर
तब से मैं अविरत बढ़ता हूँ
बल देता है प्यार तुम्हारा।2

त्रिलोचन प्रेम के कवि हैं, लेकिन उनका प्रेम गृहस्थ की नैतिक एवं स्वस्थ भावभूमि पर खड़ा है। वे प्रकृति के कवि हैं, प्राकृतिक अनुभूतियों के कवि हैं-

कुछ सुनती हो
कुछ गुनती हो
यह पवन आज यों बार-बार
खींचता तुम्हारा आँचल है
जैसे जब-तब छोटा देवर
तुमसे हठ करता है जैसे।3

जीवन निर्वाह के लिए त्रिलोचन शास्त्री ने कटु संघर्ष किए। उन्होंने चनों पर गुज़ारा किया। हाथ से खींचने वाली रिक्शा चलाई। पत्रकार और अध्यापक रहे। 1930-35 तक आगरा से निकलने वाले साप्ताहिक प्रभाकर में काम किया। 1936 में राजकोट में सौराष्ट्र के प्रसिद्ध साहित्यकार झवेरचन्द मेधाणी के साथ प्रूफ रीडिंग का काम किया। 1938 में वे वाराणसी से निकलने वाले मासिक वानर में थे। 1939 से 1941 तक उन्होंने 30 रुपए महीने पर हंस में प्रूफ रीडर का काम किया। 1943 और 1948 में आज, 1944-46 में हंस, 1949-50 में समाज एवं चित्ररेखा, 1972-75 में दैनिक जनवार्त्ता तथा 1975-78 में भाषा में रहे। गणेशराय इन्टरकालेज, जौनपुर में 1952-53 में अँग्रेज़ी के प्रवक्ता पद पर कार्य किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में 1967 से 1972 तक अमरीकी छात्रों को हिन्दी-उर्दू-संस्कृत का व्यावहारिक शिक्षण दिया। हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर की मुक्तिबोध सृजनपीठ के 1984-90 एवं 1995-2002 में अध्यक्ष रहे। 1991-92 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पोइट ऑन कैंपस रहे। तुम्हें सौंपता हूँ में जीवन संघर्ष पर लिखते हैं-

चलना ही था मुझे- 
सडक, पगडंडी, दर्रे कौन खोजता, 
पाँव उठाया और चल दिया। 
खाना मिला न मिला, 
बड़ी या छोटी हर्रें नहीं गाँठ में बाँधी, 
श्रम पर अधिक बल दिया। 
मुझे कहाँ जाना है यह जानता था, 
मगर कैसे और किधर जाना है
यह व्यौरा अनजाना था।4

त्रिलोचन मुख्यतः कवि हैं। अपनी काव्य यात्रा में वे प्रथमतः छायावादी रहे हैं और फिर प्रगतिवादी। उनका प्रथम काव्यसंग्रह धरती (1945) प्रगतिवादी आंदोलन प्रारम्भ होने के 9 वर्ष बाद और तार सप्तक के तीन वर्ष बाद प्रकाश में आया। नयी कविता के दौर में भी वे प्रगतिवादी कविताएँ लिखते रहे। उनके 15 काव्य ग्रंथ मिलते हैं- धरती 1945, गुलाब और बुलबुल 1956, दिगंत 1957, ताप के ताये हुए दिन 1980, शब्द 1980, उस जनपद का कवि हूँ मैं 1981, अरधान 1983, अनकही भी कुछ कहनी है 1985, तुम्हें सौंपता हूँ 1985, फूल नाम है एक 1985, सब का अपना आकाश 1987, चैती 1987, अमोला 1990, मेरा घर 2002, जीने की कला 2004। 1981 में उन्हें ताप के ताये हुए दिन पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1992 में हिन्दी अकादमी दिल्ली ने श्लाका पुरस्कार दिया। 2003 में भारतीय भाषा परिषद कलकत्ता ने उन्हें सम्मानित किया। त्रिलोचन धरती के कवि हैं- 

मुझमें जीवन की लय जागी
मैं धरती का हूँ अनुरागी।5

एक उदात्त नैतिक एवं सामाजिक चेतना उन्हें दायित्व बोधों के प्रति सचेत करती रहती है। इसीलिए निष्क्रियता पर उन्हें ग्लानि और आक्रोश होता है-

कोई काम नहीं कर पाया
कोई किसी के काम न आया
जगती से अन्न-जल-पवन लेता हूँ
क्या मेरा जीवन जीवन है?6

शोषकों के प्रति, राज नेताओं के प्रति, अवसरवादियों के प्रति व्यंग्य उनके काव्य में सर्वत्र बिखरे पड़े हैं-

झूरी बोला कि बाढ़ क्या आई
लीलने अन्न को सुरसा आई
अब कि श्रीनाथ तिवारी का घर
पक्का बन जाने की सुविधा आई।7

मार्क्सवादियों की तरह उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों और जड़ता का विरोध किया है- 

करता हूँ आक्रमण धर्म के दृढ़ दुर्गों पर।8

सत्यं, शिवं, सुन्दर के दिन प्रति दिन हारने का उल्लेख भी उनके काव्य में यहाँ वहाँ मिल जाता है-

अच्छाई इन दिनों बुराई के घर पानी
भरती है
अच्छाई के बिगड़े दिन हैं, और बुराई
राजपाट करती है।9 

उस जनपद का हूँ में अनेक कविताएँ आत्मकथात्मक हो गई हैं। वही त्रिलोचन है, चीर भरा पाजामा, भीख माँगते, इधर त्रिलोचन ने, कवि है वही त्रिलोचन आदि में उन्होंने अपने ऊपर तटस्थ दृष्टि से लिखा है।

कवि के साथ साथ त्रिलोचन गद्यकार भी थे। देशकाल (1986) उनका कहानी संग्रह है। इसमें बीस कहानियाँ संकलित है। प्रगतिवादी पृष्ठभूमि पर लिखित इसकी हर कहानी पैना और गहरा व्यंग्य लिए है। अपनी इज्जत आप करो कहानी में कहते हैं- ’जो गरीब हैं, उनसे कहना कि अपनी इज्जत आप करो, दुनिया इज्जत करेग- उनकी हँसी उड़ाना है। उनके घावों में तीर चुभोना है। वे किसी से इज्जत माँगने का अधिकार नहीं रखते। वे इज्जत की माँग करें तो उनसे प्रश्न किया जाएगा। इज्जत? कैसी इज्जत? तेरे भी इज्जत है?‘10 

कला पक्ष के विषय में लिखते हैं-

सीधे सादे सुर में अर के गान सुनाए
मन के करघों पर रेशम के भाव बुनाए।11  

त्रिलोचन ने सानेट, रुबाइयों और ग़ज़लों में लिखा। छोटी और लम्बी कविताएँ लिखी। छायावादी शब्दावली, आँचलिक शब्द प्रयोग उनमें एक साथ मिलते हैं। शब्द की शक्ति वे पहचानते भी थे और उसके प्रति सचेत भी थे-

शब्दों के द्वारा जीवित अर्थों की धारा
.....................................................
शब्दों से ही वर्ण गंध का काम लिया है
मैंने शब्दों को असहाय नहीं पाया है।12

डॉ. कान्तिकुमार के शब्दों में- ’जिस प्रकार तुलसीदास को हम उनकी चौपाइयों से जानते हैं, बिहारी को उनके दोहों से अथवा मैथिलीशरण गुप्त को उनकी हरिगीतिका से, वैसे ही त्रिलोचन को उनके सानेटों से पहचाना जा सकता है।‘13 फणीश्वरनाथ रेणु ने सानेट के कारण ही त्रिलोचन को ’शब्दयोगी‘ कहा है। त्रिलोचन अध्यापक हैं, कवि हैं, कहानीकार हैं, पत्रकार है, शब्दकोशकार हैं। उन्होंने डायरी लिखी, आलोचना कार्य किया, सम्पादक कर्म निभाया। वे सचमुच त्रि-लोचन हैं।

संदर्भ:

  1. शमशेर बहादुर सिंह,मेरे कुछ आधुनिक कवि, स्थापना-7, पृ. 95
  2. त्रिलोचन, धरती, पृ. 11
  3. वही, पृ. 31
  4. वही, तुम्हें सौंपता ह, पृ. 71
  5. वही, धरती, पृ. 11
  6. वही, पृ. 54
  7. वही, गुलाब और बुलबुल, पृ. 11
  8. वही, दिगंत, पृ. 15
  9. वही, पृ. 36
  10. वही, देशकाल, पृ. 24
  11. वही, उस जनपद का कवि ह, पृ. 113
  12. वही, शब्द, पृ. 44
  13. डॉ. कांतिकुमार , नई कविता, पृ. 128
     

 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

साहित्यिक आलेख

पुस्तक समीक्षा

लघुकथा

शोध निबन्ध

कहानी

रेखाचित्र

यात्रा-संस्मरण

कविता

पुस्तक चर्चा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं