अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

तुम (भूपेन्द्र ’भावुक’

सिर्फ ‘तुम’
हाँ
सिर्फ ‘तुम’ ही तो हो
यहाँ
वहाँ
इसमें
उसमें
मुझमें
सबमें।
और आज से नहीं
जब ‘तुम’ मुझे-
इस कदर मिली हो,
बल्कि तब से
जब मैंने पहली बार
'तुम्हारे' पेट में
हाथ-पैर मारे थे।
मेरी आँखें खुली न होंगी
उस वक़्त
पर
मैंने ‘तुम्हें’ देख लिया था।
जब 'तुमने' मेरी नाड़ी काटी
और मेरे 'क्हाँक्हाँ' पर
'अल्लेलेले' कहा था
मैंने सुने थे
वो तुम्हारे बोल।
सुकून अथाह थे
उन लम्हों में
जब 'तुमने' मुझे
माथे पर चूमा था
और स्तनों से लगा लिया था। 
'तुम्हारे' साथ की ये यात्रा
अभी ख़त्म नहीं
बल्कि शुरू हुई थी।
मेरी कलाई पर
जो 'तुमने' स्नेह बाँधा था
वो आज भी-
कहाँ खुला है
और न कभी खुलेगा 
वो प्रेम
जो मैंने 'तुम्हारी' आँखों में-
देखा था।
आज भी तो
वही देख रहा हूँ।
वही ममत्व
वही स्नेह
वही भाव-
अपनेपन वाला।
कभी 'तुम' नाड़ी काटने आयी
कभी दूध पिलाने
तो कभी राखी बाँधने।
और आज भी तो
'तुम' आयी हो
गुलाब लेकर।
मैं 'तुम्हारी' आँखों में
वही स्नेह
वही वाला प्रेम-
देख पा रहा हूँ।
'तुम्हारा' रूप बदला है
निगाहें बदली हैं
प्रेम नहीं। 
न जाने कितने रूपों में
'तुम' मुझे बनाती रही हो।
मुझे ही नहीं
सबको बनाती रही हो
और बनाती रहोगी।
सब में 'तुम' हो
और 'तुम' में सब हैं
हाँ
'तुम' से सब हैं।

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं