तुम्हारा संगीत
काव्य साहित्य | कविता नरेश अग्रवाल25 Aug 2016
कितने सारे पहाड़ देख लिए मैंने
कितनी ही नदियाँ
और संगीत बड़े-बड़े वादकों का
फिर भी सुनता हूँ जब
तुम्हारी ढोलक की थपथपाती मधुर आवाज़
लगता है जैसे मैं जाग गया,
जाग गया हो चंद्रमा
इसके दोनों छोर के हिलने से।
सिर्फ मैं नहीं सुन रहा हूँ इस आवाज़ को
सभी सुन रहे हैं इस आवाज़ को
जहाँ तक जाती होगी यह
सभी के कान तुम्हारी तरफ़
जैसे तुम उनमें एक शक्ति का संचार कर रहे हो
भर रहे हो धड़कन धीमी-धीमी
पारे के आगे बढ़ने जैसी।
तुम बार-बार बजाओ
मैं निकलता जा रहा हूँ दूर तुमसे
पूरी तरह ओझल
फिर भी तुम्हारे स्वर मुझे थपथपा रहे
जाग्रत कर रहे हैं मुझे अब तक।
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