तुम्हारे फूल
काव्य साहित्य | कविता अजन्ता शर्मा6 Apr 2007
तुम्हारे फूलों ने जब
मेरी सुबह की पहली साँसें महकायीं
मैंने चाहा था,
उसी वक़्त तितली बन जाऊँ
मँडराऊँ ख़ूब
उन ख़ुशबू भरे खिलखिलाते रंगों पर
बहकूँ सारा दिन उसी की महक से
महकूँ सारी रात उसी की लहक से
ख़ुद को बटोरकर
उस गुलदस्ते का हिस्सा बन जाऊँ
अपने घर को महकाऊँ
पड़ी रहूँ दिन रात उसे लपेटे
बिखेरूँ
या सहेजूँ उसकी पंखुड़ियाँ
सजा लूँ उससे अपने अस्तित्व को
या सज लूँ मैं
कि वो हो
या ये
मैं चाह रही हूँ अब भी
अपनी पंक्तियों की शुरुआत
जो हो अंत से अनजान।
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