तुम्हारे हाथ
काव्य साहित्य | कविता सुशील कुमार31 Oct 2008
कौन है तुम्हारे घट्ठाये हाथों का ख़सम
जो नहीं जानता कि
इन हाथों की कठुआयी खाल के नीचे
जज़्बातों की अविरल नदी बहती है
जिसमें रुई के नरम फाहे सा छुवन है
जो विकल आत्माओं का संताप हरती है?
किसे पता नहीं कि
इन खुरदुरे हाथों में सृजन के हुनर हैं
जिससे समूची पृथ्वी टिकी है
पूरी नफ़ासत से
इनकी कलावंत उँगलियों पर?
इन चट्टानी हाथों का लोहापन
कौन नहीं जानता?
कौन नहीं जानता कि
जिंदगी का हर फ़न है इनमें?
फिर भी ये हाथ
विदा-गीत की तरह उदास क्यूँ हैं,
चाबुक खाये घोड़ों की तरह कराहते क्यूँ है,
कंगाल के भूखे चेहरों की तरह क्यूँ डरावने, काले हैं?
क्यूँ न
दग्ध, चुप इन हाथों के चंद सवाल
चनक शीशे के घरों में फेंक
आराम फरमा रही मोम-सी गुलफ़ाम हथेलियों को
नींद से जगाया जाय?
और उनके गुलामफ़रोशी के खिलाफ़ गोलबंद
हो रही मुट्ठियों का मिजा़ज बताया जाय?
(नाज़िम हिक़मत की एक रचना से प्रेरित होकर)
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