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टूटी हुई डोर

तो तुम्हें भी रास नहीं आया
मेरा आज़ाद होना,
अस्तित्वहीन बंधन की डोर से।

 

कुछ सच भी तो नहीं था,
तुम्हारी हलचल आँखों की कोर से।
तो मैं कैसे बँधा रहता,
अस्तित्वहीन बंधन की डोर से।

 

लोगों की तरह तुम्हें भी
कर्णप्रिय नहीं थे,
मेरे शब्दों के अर्थ।
तुम्हें प्रिय भी नहीं थी,
मेरे सिद्धान्तों की शर्त।
कुछ सम्बल भी नहीं थे,
तुम्हारे हाथों के ज़ोर से।
तो मैं कैसे बँधा रहता,
अस्तित्वहीन बंधन की डोर से।

 

समय की तरह तुम्हें भी
मंजूर नहीं थे,
मेरे ख़ामोशियों के जज़्बात।
तुम्हें पसंद भी नहीं थे,
मेरे वक़्त के हालात।
तुमने आवाज़ भी दी तो ज़माने के शोर से।
तो मैं कैसे बँधा रहता,
अस्तित्वहीन बंधन की डोर से।

 

कुछ बचा भी नहीं है मेरे पास,
मेरे शोषित भावनाओं को छोड़कर
अब कौन होगा?
तुम्हारे शोषण का हक़दार,
मुझे पाबंद छोड़कर।
अब कैसे गर्वित होगे?
किस पे फ़ैसला सुनाकर।
कौन सुनेगा मेरे बाद,
चुपचाप गरदन झुकाकर।
कुछ कहा भी तो तुमने,
चिलमनों के छोर से।
तो मैं कैसे बँधा रहता,
अस्तित्वहीन बंधन की डोर से।

 

क्या अब भी कुछ बाक़ी है,
तुम्हारे शोषण के कोश में?
मैं अब भी सहने को तैयार हूँ
होशो-हवास में।
अब कुछ भी नहीं बचा
तुम्हारे रिश्ते कमज़ोर से।
तो मैं कैसे बँधा रहता,
अस्तित्वहीन बंधन की डोर से।
 

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